
कुमार प्रशांत
यह अपने–आप में अनोखा था. कभी देखा नहीं था कि कोई मुख्यमंत्री सदन में और सदन के बाहर भी अपनी कही किसी बात के लिए बार–बार इस तरह माफी मांग रहा होकि उसे अपनी कही बात की सच में ग्लानि हो. जुमलेबाजी पर टिकी आज की राजनीतिक संस्कृति में, जुमलेवाली माफी और सच्ची माफी में जो फर्क होता है, वह पहचानने काविवेक अभी जिंदा है. इसलिए कह सकता हूं कि नीतीश कुमार को माफी मिल ही जानी चाहिए. जुमले उछालना, झूठ बोलना, गलत बोलना और अनगढ़ ढंग से बोलना, दोसर्वथा भिन्न बातें हैं.
बोलने का सच यह है कि जब कभी हम बोलते हैं तो अपनी तरह से ही बोलते हैं लेकिन बोलते हमेशा दूसरे के लिए हैं. यदि सुनने के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दूसरा कोई नहो, तो हम बोलें ही नहीं. बोलना बड़ी जिम्मेवारी है. बार–बार दोहराई लेकिन फिर भी ताजा–के–ताजा वह बात सौ टंच खरी है कि वाण से छूटा तीर व जुबान से निकली बातवापस नहीं आती है. इसलिए तो वाक्–संयम को गीता ने स्थितप्रज्ञ्य के लक्षणों में एक माना है. राजनीति में स्थितप्रज्ञ्यता की न जगह मानी जाती है, न गुंजाइश !
नीतीश कुमार को उस रोज अपनी तरह से वह बात कहनी थी जो उन्होंने पहले कभी कही ही नहीं थी; उन्हें अपनी सरकार की सफलता के झंडे भी लहराने थे जैसे हरराजनीतिज्ञ लहराता है; उन्हें विपक्ष पर गहरा कटाक्ष कर उसे व्यर्थ के बकवासी भी साबित करना था. इस नट–लीला में वे फंस गए. तनी हुई रस्सी पर संतुलन साधता नट संतुलनखो कर गिरता भी तो है न ! गिरना खेल के गलत होने का प्रमाण नहीं है; खिलाड़ी के चूकने का प्रमाण है.
बोलना तीन तरह का होता है : गलत बोलना, असभ्यता से बोलना तथा सर्वथा झूठ बोलना ! लोकतंत्र के संदर्भ में एक तीसरा प्रकार भी है : असंवैधानिक बोलना ! नीतीशकुमार ने उस रोज जो कहा व जिस तरह कहा वह दूसरी श्रेणी में रखा जा सकता है. भाषा की यह दिक्कत जगजाहिर है. वह यदि लोक–व्यवहार से गढ़ते–गढ़ते तराश न दी गई होतो भोंढी लगती है और अपना अर्थ संप्रेषित करने में विफल होती है. कितनी तो आलोचना गांधीजी की हुई, होती रहती है कि उन्होंने संसदीय लोकतंत्र को ‘बांझ व वेश्या’ कहकर स्त्री–जाति को हीन बताया. गांधीजी की तरफ से ऐसे ‘अभद्र’ शब्द आएं, कई लोगों को तो यही नहीं पचा. किसी को इसमें गांधीजी की पुरुष मानसिकता के दर्शन हुए. गांधीजी ने कहा : मैं जो कहना चाहता हूं उसके लिए इससे अधिक मौजूं शब्द मिला नहीं मुझे ! मिल जाएगा तो बदल दूंगा ! यहां मेरी तरफ से नीतीश कुमार व गांधीजी कीतुलना या साम्यता का मतलब न निकालें पाठक बल्कि भाषा की मर्यादा का एक उदाहरण मात्र समझें.
नीतीश कुमार को साबित यह करना था कि उनकी सरकार के प्रयासों से जनसंख्या नियंत्रण का प्रयास सफल हुआ है. वे आंकड़ों से उसका प्रमाण भी देते रहे. विपक्ष उनकादावा मानने को तैयार नहीं था. इसलिए उन्हें विपक्ष को धूल–धूल कर देना था, उसे उसकी सही जगह दिखला देनी थी तो उनकी आक्रामकता बढ़ने लगी. वे बताने लगे किजनसंख्या नियंत्रण में दिक्कत क्या–क्या आती है. पति या पुरुष कामुक हुआ जाता है और स्त्री उसके सामने बेबस हो जाती है. यह सब बताने में समर्थ भाषा हमने विकसित हीनहीं की है, क्योंकि यह सब ‘गुप्त ज्ञान’ के भीतर आता है. हमारे समाज में यौन–शिक्षा का जैसा हाल है वह नीतीश कुमार की देन नहीं है बल्कि हम सबकी तरह नीतीश कुमार भीउसके शिकार हैं. हमारे यहां यौनिक संदर्भ की भाषा विकसित ही नहीं हुई है क्योंकि उसे हमने हमेशा अत्यंत निजी, किसी हद तक गुप्त विषय ( गुप्त रोग ! ) माना है. इसमें अंग्रेजीका हमारा अत्यंत सीमित (व विकृत !) ज्ञान हमारा सहारा बनता है. अंग्रेजी का हमारा अज्ञान हमें वैसा कुछ कह कर निकल जाने की सुविधा देता है जिसे हम ठीक से समझते भीनहीं है. ‘चुम्मा’ कहो तो अशिष्ट लगता है, ‘चुंबन’ कहो तो कालिदासीय क्लिष्टता लगती है, तो हम ‘किस’ कहकर निकल जाते हैं जिसमें न मिठास मिलती है, न अपना कोईसंदर्भ मिलता है लेकिन अंग्रेजी में है तो भद्र ही होगा, ऐसा जमाना मानता है, तो हम भी मानते हैं.
नीतीश कुमार को कहना यह था कि लड़की पढ़ी–लिखी, जानकार होगी, जैसाकि हमारी सरकार उसे बनाने में लगी है, तो वह अपने पति की कामुकता को नियंत्रित करसकेगी, उसे गर्भ न रहने के प्रति सचेत कर सकेगी. इसे आप भदेशपन से कहेंगे तो नीतीश कुमार का हाल होगा आपका, अंग्रेजी में ‘विद्ड्रॉल’ कहेंगे तो भद्रता मान कर आपकोबरी कर दिया जाएगा. जब नीतीश कुमार आक्रामक हास्य की मुद्रा में यह सब कह रहे थे तो वे समझ रहे थे कि वे कुछ अटपटा कह रहे हैं लेकिन यही तो राजनीति है; औरराजनीति ऐसी सावधानी कब रखती है ! वह तो हमेशा कह देने की बाद की प्रतिक्रिया से, अपने कहे की सार्थकता या निरर्थकता आंकती है और अपना अगला कदम चुनती है. यही नीतीश कुमार ने भी किया.
उनकी खुली सार्वजनिक माफी ही यह बताती है कि जो कुछ कहा उन्होंने वह इरादतन महिलाओं का अपमान करने, यौनिकता को राजनीतिक हथियार बनाने या अपनी यौनकुंठा को तुष्ट करने का जायका लेने जैसा नहीं था. वे इस नाहक के विवाद और अपनी रौ में बह जाने के परिणाम से त्रस्त व्यक्ति की ईमानदार माफी थी. स्त्री–वर्ग के रूप में बिहारकी महिलाओं को नीतीश कुमार ने सशक्त ही किया है, उनमें उत्साह भरा है, उनकी उमंगों को अपनी व्यवस्था का आधार भी दिया है. मुझे अंदाजा नहीं है कि उनके मंत्रिपरिषद मेंयौन अपराधियों को कितनी जगह मिली हुई है याकि ऐसे अपराधियों के प्रति उनका रवैया कैसा है. यदि यह आंकना हो तो प्रधानमंत्री समेत केंद्रीय मंत्रिमंडल का चेहरा अच्छानजर नहीं आएगा. लेकिन इस आधार पर नीतीश कुमार से इस्तीफे की मांग याकि दूसरे किसी को सरकार की बागडोर सौंप देने की मांग अतिवादी मांग है. मांगने करने वालों कोयह समझना चाहिए कि यह अपराध से कहीं बड़ी सजा देने की अविवेकी भूल होगी. व्यापक सार्वजनिक भर्त्सना के रूप में उन्हें अनगढ़ अभिव्यक्ति की वह सजा मिल चुकी है जोकिसी राजनेता के लिए सबसे बड़ी सजा होती है. अब आगे की नितीश कुमार जानें. लेकिन कुछ तो हम भी जानें. हम सब बड़ी सावधान सावधानी बरतें कि किसी भी हाल में, कैसी भी परिस्थिति में हमारी सार्वजनिक अभिव्यक्ति यौनिक गालियों या प्रतीकों का सहारा न ले. ऐसी हर अभिव्यक्ति औरत का अपमान करती है; ऐसी हर अभिव्यक्ति यह भूलजाती है कि यौनिकता स्त्री–पुरुष दोनों की साझा विरासत है. हम जब ऐसे अपशब्दों में बात करते हैं तो खुद को भी, अपनी महिला को भी और सारी महिला साथियों को भीक्षुद्रतर साबित करते हैं. नीतीश–प्रसंग यदि हमें इतना सचेत कर दे तो हमें उन्हें माफ तो कर ही देना चाहिए.
(17.11.2023)