वे स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री ही नहीं, हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख शिल्पकार थे. वे पंडित जवाहरलाल नेहरू थे. वे जानते थे कि शरीर की गुलामी से भी ज्यादा खतरनाक होती है मन की गुलामी; और इसलिए भारतीय मन के अंधेरे कोनों को झाड़-पोंछ कर, उन्हें नया बनाने में उन्होंने अपना अस्तित्व झोंक दिया था. उन्हें गुलाम देश और भयग्रस्त आदमी, दोनों ही नापसंद थे. इस दोहरे जाल को काटने के लिए उन्होंने एक आह्वान भरा सूत्र ही बनाया था : लीव डेंजरसली, थिंक डेंजरसली एंड एक्ट डेंजरसली : दु:साहस के साथ जिओ, दु:स्साहस के साथ सोचो और दु:स्साहस के साथ करो !
खतरों से जो खेलते हैं उनका जीना तो ऐसे ही होता है; फिर जो बाकी रह जाता है वह मरने के ही भिन्न-भिन्न प्रकार हैं.
आप लॉकडाउन में घर के भीतर मरते हैं कि कौरंटीन में मरते हैं या सड़क पर खतरों को रौंदते हुए मरते हैं, सबकी मौत डाली तो मौत के खाते में ही जाती है. लेकिन हमें मरते-मरते भी यह देखना चाहिए कि हमारी मौत तो एक आंकड़ा भर होती है, लेकिन वह जो सड़क पर उतर कर चला तो चलता गया तब तक जब तक घर नहीं पहुंचा या जब तक मरा नहीं, तो उसकी मौत आंकड़ा नहीं बनी, अंकित हो गई. वह जिंदगी से भी दो-दो हाथ करता रहा और मौत से भी उसने सीधी टक्कर ली.
साहस की इस खिड़की से कोरोना को देखिए. पहले लॉकडाउन से इस चौथे लॉकडाउन तक देखिए तो एक ही चीज समान पाएंगे – भय ! हर तरफ, हर आदमी डरा हुआ है. क्या डर कोरोना के इलाज की दवा है ? वैज्ञानिक बताते हैं कि यह वायरस किसी प्राणी से निकला है और मनुष्य तक पहुंचा है. मनुष्य में पहुंच कर यह वायरस हमारे स्नायु-तंत्र पर हमला करता है और फिर धीरे-धीरे हमारी सांस बंद हो जाती है. यह छोटी-सी कहानी है कोरोना और आदमी के बीच के रिश्ते की. अब आप भी देखिए और हम भी देखते हैं कि इस कहानी में डर कहां अपनी जगह बनाता है ? बस वहीं, जहां सांस बंद होने की बात आती है. लेकिन क्या आप कभी भूले हैं कि सांस बंद होने का वह क्षण तो आना ही है जीवन में. क्या उससे हम जीना छोड़ देते हैं ? क्या जीवन अपना अस्तित्व समेट लेता है कि उसे एक दिन तो खत्म होना है ? नहीं, सच तो यह है कि जीवन वही सही व सच्चा होता है जो अंत की हर कहानी से अपनी कहानी शुरू करता है.
कोरोना की कहानी डर से शुरू नहीं होती है. चीन के उस वुहान में, जहां संसार का पहला कोरानावायरस देखा-पहचाना और पकड़ा गया, वहां एक डॉक्टर था ली वेनलियांग ! वह वायरस विज्ञान का शोधकर्मी था और उसने ही अपनी प्रयोगशाला में देखी थीं कुछ रहस्यमय वायरसों की रहस्यमय गतिविधियां ! उसके कान खड़े हुए. उसने देखा कि शहर के कुछ मरीजों में सांस की रहस्यमय बीमारी दिखाई दे रही है. रहस्यमय यानी जिसे पहले कभी देखा-जाना नहीं था. उसने वह देखा जो तब तक किसी ने देखा नहीं था. लेकिन ली डरा नहीं, उसने चुप्पी लगाना ठीक नहीं समझा. उसने सारे अस्पतालों को तक्षण सावधान किया कि यह रहस्यमय बीमारी खतरा बन कर फूट पड़े इससे पहले इसका मुकाबला करने का रास्ता खोजो. जगह थी वुहान सेंट्रल हॉस्पिटल और तारीख थी 30 दिसंबर 2019. वुहान के उसी सेंट्रल हॉस्पिटल में 7 फरवरी 2020 को ली का देहांत हो गया. वह मरा कि विज्ञानविरोधी ताकतों के हाथ मारा गया, यह विवाद आज भी जारी है. लेकिन वह किस्सा फिर कभी. अगर मैं कहूं कि ली की जिंदगी मात्र 40 दिनों की थी तो बात बहुत गलत नहीं होगी – लेकिन बात बहुत गलत भी हो जाएगी; क्योंकि आगे संसार में जहां भी, जब भी कोई कोरोना पर शोध करेगा, ली का जिक्र आएगा. फिर वह मरेगा कैसे ? खतरों से खेलने का साहस जिनमें होता है वे ऐसे ही मर कर भी मरते नहीं हैं.
कोरोना डराता है तो हम घरों में बंद हो जाते हैं. लेकिन लॉकडाउन से कोरोना का कैसा रिश्ता है ? क्या घरों में हमारे बंद होने से वह वायरस भूखा मर जाता है ? वह तो जिंदा रहता है और हमारे ही दरवाजे पर बैठा लॉकडाउन से हमारे निकलने का इंतजार करता होता है. ऐसा नहीं होता तो कहिए भला, संक्रमण के आंकड़ों में इतनी वृद्धि कैसे हो रही है ? हर दिन हमारे भारत में 6 हजार नये मामलों का पता चलता है जब कि हम दुनिया के उन देशों में हैं कि जहां सबसे कम परीक्षण हो पा रहा है. हम उन देशों में हैं जहां दो गज की सुरक्षित दूरी बनाए रखना असंभव की हद तक कठिन है. आपने देखा क्या कि सड़कों पर खाना लेते और खाते लोग; पैदल-ट्रकों-बसों-रेलों से अपने घरों की तरफ जाते लोग किस हाल में हैं ? वहां कोई सुरक्षा-व्यवस्था आप बना नहीं सकते हैं. वहां एक ही सुरक्षा-व्यवस्था काम कर रही है -सावधानी !
हम जानते हैं कि हम ऐसे दुश्मन से लड़ रहे हैं जिसे हम जानते ही नहीं हैं. हमारे पास अब तक इससे लड़ने का कोई हथियार भी नहीं है. तो अपनी पुराण-गाथाओं में खोजेंगे तो आपको ऐसे युद्ध-कौशल की जानकारी मिलेगी जो हथियारों के बगैर लड़ी जाती थी. वह अज्ञान की लड़ाई नहीं थी, समस्त ज्ञान को एकत्रित कर लड़ी जाने वाली लड़ाई थी. डरना नहीं, साहसी बनना ! सावधानी के साथ बाहर निकलना, सारी हिदायतों का पालन करते हुए अपना काम करना, सावधानी के साथ दूसरों की मदद करना, ईमानदार व उदार बनना कोरोना से लड़ने वाले सिपाही की पहचान है.
कोरोना का एक सिपाही वह है जो अस्पतालों में रात-दिन बीमारी से जूझ रहा है – सिर्फ डॉक्टर और नर्स नहीं, वार्ड में हमारी मदद करने वाला हर एक-एक स्टाफ ! वह ईमानदारी से अपना काम करता है तो सिपाही है; ईमानदारी से नहीं करता है तो यही है कि जिसके कारण हम यह लड़ाई हार जाएंगे. दूसरा सिपाही वह है जो हमारी नजरों और हमारे कैमरों और हमारी कलमों से बहुत दूर खेतों-खलिहानों में, फूल-फलों के बगीचों में, छोटे-बड़े उद्योगों में लगातार मेहनत कर उत्पादन की श्रृंखला को टूटने नहीं दे रहा है. तीसरा सिपाही वह है जो सिपाही के कपड़ों में हर सड़क-चौराहे पर खड़ा मिलता है. वह हमें रोकता है, निषेध करता है, कभी मुंह से तो कभी डंडे से बात करता है. जब वह डंडे से बात करता है तब वह हारा हुआ, अकुशल सिपाही होता है लेकिन उसे देख कर हम उन अनगिनत सिपाहियों को नजरंदाज कैसे कर सकते हैं जो हर लॉकडाउन में न ‘लॉक’ होताे हैं, न ‘डाउन’ होते हैं ? चौथा सिपाही वह है जो अपनी प्रेरणा से, अपनी छोटी मुट्ठी में बड़ा संकल्प बांध कर खाना-पानी-मास्क-ग्लब्स ले कर कभी यहां तो कभी वहां भागता दिखाई देता है. यह किसी के आदेश से नहीं, अपनी मानवीय प्रेरणा से काम करता है और उससे ही बल पाता है. इसके सामने सिर्फ आकाश होता है, दीवारें नहीं होती हैं – न धर्म की, न जाति की, न रंग की, न लिंग की. यह प्रेम व विश्वास के अलावा दूसरी कोई भाषा न सुनता है, न बोलता है. इनकी गिनती नहीं है क्योंकि आप आदमी को तो गिन भी लें, आदमियत को कैसे गिन सकते हैं ! पांचवां सिपाही वह है जो सहानुभूतिपूर्वक हर किसी की तकलीफ सुन रहा है और सद्भावपूर्वक उसे रास्ता बता रहा है. यही है जो हमारे घरों-सड़कों-पेड़ों पर रहने वाले बेजुबानों के लिए कहीं पानी धर देता है, कहीं रोटी डाल देता है. यह है जो हमारे उस प्राचीन गणित को सही साबित करता चलता है जिसमें 1 और 1, 2 नहीं, 11 होते हैं. यह गलत गणित नहीं है, हमारे गलत गणित को सही करने वाला शाश्वत गणित है.
आप लॉकडाउन में घरों के भीतर ही नहीं, घरों के बाहर क्या कर रहे हैं और किस नजर से कर रहे हैं यही बताएगा कि आप स्वंय ही कोरोना हैं कि कोरोना के खिलाफ छेड़ी गई लड़ाई के सिपाही हैं. ऐसा हर बार होता है और बार-बार होता है कि सही मोर्चे पर गलत सिपाही पहुंच जाता है. लेकिन लड़ाई तो तभी जीती जाती है न जब असली मोर्चे पर असली सिपाही पहुंचता है. तो यह खतरे में साहस और सावधानी का हथियार ले कर उतरने का समय है, बैठने का नहीं, लड़ने का समय है; हारने का नहीं जीतने का समय है.
(29.05.2020)
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