नरेंद्र नरेंद्र मोदी इन दिनों भारतीय राजनीति में हर ओर छाए हुए हैं, लेकिन क्या गुजरात दंगों के अतीत से वे अपना पीछा छुडा़ पाएंगे. पढि़ए प्रकाश भाई शाह का खा़स आकलन.ों भारतीय राजनीति में हर ओर छाए हुए हैं, लेकिन क्या गुजरात दंगों के अतीत से वे अपना पीछा छुडा़ पाएंगे. पढि़ए प्रकाश भाई शाह का खा़स आकलन.
आज का मीडिया नरेंद्र मोदी में एक विकल्प देख रहा है या फिर मोदी को विकल्प के तौर पर प्रोजेक्ट कर रहा है.
दो साल पहले मीडिया ने अन्ना हजारे को उछाला था, आज नरेंद्र मोदी को उछाला जा रहा है. मुझे ये कॉरपोरेट सांठ-गांठ लग रहा है.
कॉरपोरेट घरानों को ले लीजिए या फिर सत्ता की जोड़तोड़ को ले लीजिए तो मुझे इन दोनों में एक बात कॉमन नजर आ रही है. कॉमन बात ये है कि नीति निरपेक्ष नजरिया है. आप शासन की बात कीजिए या कोई बात कीजिए, लेकिन इसमें 2002 के दंगों के न्याय मिलने की बात कीजिए तो हजम नहीं होती.
नरेंद्र मोदी का चाहे जो भी विश्लेषण कीजिए. लेकिन मैं तो इस मामले में जनमानस, मीडिया और कॉरपोरेट घरानो की नीतियों को भी देख रहा हूं.
हमारी एक मर्यादा है कि हम नीति निरपेक्ष नीति के कायल हो गए हैं. कथित मोदी सफलता जो है वो हमारी नीति निरपेक्ष नजरिया का ही सूचक है.
जो भी सत्ता में है या सत्ता में आ सकता है, उससे जुड़ने की कोशिश हर कोई करता है. नरेंद्र मोदी में तो हर तरह के स्किल हैं.
महिला आरक्षण का विरोध
गुजरात में महिला राज्यपाल हैं. उन्होंने महिला आरक्षण बिल को बेहतर बनाने का सुझाव दिया था. लेकिन महिला आरक्षण का बिल इन्होंने पास नहीं किया, ये बडे़ ही खेद की बात है.
महिला राज्यपाल ने आरक्षण बिल का समर्थन किया था, लेकिन इन्होंने पास नहीं किया. वे फिक्की की महिला संगठन में बोलने जाते हैं, लेकिन महिला राज्यपाल की सलाह को अनसुना करते हैं.
जसुबेन की बात करते हैं, इंदूबेन की बात करते हैं, लेकिन ये लोग अपने दम पर सफलता हासिल करने वाले लोग हैं. इन्हें राज्य से क्या मदद मिली?
अपने को प्रोजेक्ट कर सकते हैं, लेकिन जब कोई तलाश करेगा तो उनका झूठ सामने आ जाएगा.
उनसे दंगो के बारे में कोई सवाल नहीं पूछता. ये एक तरह से चुप्पी का षड्यंत्र हैं.
ये चुप्पी का षडयंत्र हैं
जिस तरह के राष्ट्रीय विकल्प लाने की कोशिश चल रही है, उसे देखते हुए लोग दंगों को भूलने की कोशिश कर रहे हैं.
इनके सारे कार्यक्रम इवेंट मैनेजमेंट की तरह होते हैं. उनको खा़स तरह से प्रोजेक्ट किया जा रहा है. ये अपने आप नहीं होते हैं. इन्हें प्रायोजित किया जाता है.
इसमें 2002 दंगों की बात भुला दी जाती है, जबकि वह राज्य प्रायोजित दंगे थे.
लार्ड आदम पटेल साहब ने भी कहा कि गुजरात में न्याय की प्रक्रिया चल रही है तो उसे भूल जाइए. वे ब्रिटेन के हाउस में बैठते हैं, उन्हें तो ये बात समझनी चाहिए कि न्याय की प्रक्रिया मोदी के चलते नहीं चल रही है बल्कि मोदी के बावजूद चल रही है.
ब्रिटेन को तो दुकानदारों का देश नेपोलियन ने कहा था. ये बात ब्रिटेन की नहीं है, गुजरात में भी जो लोग कारोबार करना चाहते हैं, वे इस बात को किनारे रख कर ही आगे जा सकते हैं.
नारायण मूर्ति, अजीम प्रेमजी, दीपक पारेख जैसे गिने चुने लोगों से बात करने के अलावा किसी ने भी 2002 में मोदी के दंगों की बात की हो.
आप पुराने ख्याल को पकड़कर जी नहीं सकते. इसलिए आम लोग भूलते हैं.
दंगों का अतीत पीछा नहीं छोडे़गा

मोदी अपने को प्रोजेक्ट करने की हरसंभव कोशिश कर रहे हैं
लेकिन जो सोचने वाले तबका है, जो सत्ता में आना चाहता हो, वह आपस में इसे भुलाने की प्रक्रिया कर रहे हैं. ये भूलने की स्पर्धा हो रही है तो ये वैसी प्रक्रिया है जो लोगों को कहीं नहीं रखेगी.
मैं ये कबूल नहीं करूंगा कि लोगों ने गुजरात के दंगो को भुला दिया है. भारतीय जनता पार्टी के वोटिंग के शेयर 2002 के चुनाव के बाद से कम ही हुए हैं, बढे़ नहीं हैं.
माधव सिंह सोलंकी के सीट और वोटिंग शेयरिंग के रिकॉर्ड से मोदी काफी पीछे हैं. तो जनता मूल्यांकन कर रही है, लेकिन ये प्रभावी तौर पर सामने नहीं आई है.
चर्चा होती है, लेकिन उसकी रिपोर्ट नहीं आती है. 2002 के दंगों की बात होती है. आने वाले सालों में यह प्रकट रूप से दिख पाएगी.
मोदी डिबेट की भाषा बदलने की कोशिश करते रहे हैं, लेकिन गुजरात में न्याय की सशक्त प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, वो मोदी का पीछा नहीं छोडे़गी.
मीडिया और कॉरपोरेट इंडिया कहां इक्ट्ठा होता है, अगर उसका पता चल जाए तो पता चल जाएगा कि मोदी को इतना क्यों बढा़वा दिया जा रहा है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
सौजन्य: बीबीसी हिन्दी; गुरुवार, 11 अप्रैल, 2013 को 08:08 IST तक के समाचार