पूरा नाम धीरजलाल शांतिलाल मेहता (27 अप्रैल 1936 : 22 अप्रैल 2024)… लेकिन इतना बड़ा नाम अधिकांशत: अनजाना व अजनबी ही रहा. वे अपने सभी जानने वालों के लिए बस धीरू भाई थे. कारपोरेट जगत की तीखी दुनिया में, बहुतों के कठिन व नाज़ुक निजी जीवन में, गांधी व गांधी इतर सार्वजनिक जीवन के बहुत बड़े दायरे में यह छोटा-सा नाम बहुत बड़ी जगह घेरता था. 88 साल की पकी उम्र में उनके देहावसान के साथ गांधीजनों के बीच वह शून्य बना है जिसे भरना आसान नहीं है, क्योंकि धीरू भाई बनना आसान नहीं है.
1995 से अपनी अंतिम सांस तक धीरू भाई गांधी शांति प्रतिष्ठान के नियामक मंडल के सदस्य रहे और उनकी यह सदस्यता औपचारिक नहीं थी. अपने जीवन में उन्होंने औपचारिक भूमिका शायद ही निभाई होगी. उन्होंने जो भी, जब भी किया, पूरी शिद्दत से किया.
1974 में जब जेपी ने संपूर्ण क्रांति का आंदोलन शुरू किया तब धीरू भाई से मेरा नया परिचय हुआ. कहां सुदूर बिहार में आंदोलन और कहां मुंबई के कारपोरेट जगत की सबसे ऊंची कतार में विराजते धीरू भाई ! लेकिन मैं याद कर के भी उस श्रेणी का दूसरा कोई नाम याद नहीं कर पा रहा हूं जिनमें उन जैसी दीवानगी थी. वे इस आंदोलन की हर गतिविधि से ऐसे जुड़ गए जैसे उन्हें दूसरा कोई काम ही न हो. जेपी के विश्वस्त सहयोगी की जिम्मेवारी के साथ वे मुंबई की सड़कों पर उतरे, जुलूसों में शामिल हुए, नारे लगाए, युवकों को उत्साहित किया, आर्थिक मदद जमा की, पटना-मुंबई की दौड़ लगाते रहे, उन सबसे भिड़ते रहे जो आंदोलन की राह रोकने सामने आए – फिर वे नामचीन धनपति हों, कारपोरेट जगत के उनके मित्रगण या फिर विनोबा भावे. अपने बजाज ग्रुप को भी उन्होंने कठघरे में खड़ा किया, अपनी नायाब नौकरी पर ग्रहण लगने की हद तक गए.
1975. जेपी जब प्राणघातक बीमार से ग्रस्त, चंडीगढ़ की एकांत कारा से निकाल कर मुंबई के जसलोक अस्पताल में पहुंचाए गए तब वे इंदिरा गांधी की नजर में देश के ‘सबसे बड़े अपराधी’ थे. कुर्सी-दौलत की दुनिया उनसे दामन बचाने लगी थी. उस बूढ़े-बीमार ‘दुश्मन’ से मिलने या उन्हें देखने यदि कोई जसलोक अस्पताल आ जाता तो उसका नाम सरकार की काली सूची में दर्ज हो जाता था. ऐसे में दो लोग ऐसे थे जो बिना नागा हर दिन अपने जेपी से मिलने, उनकी पसंद व सुविधा की चीजें ले कर जसलोक अस्पताल पहुंचते रहे और रोज ही अपना नाम दर्ज करवाते रहे तो वे दो थे धीरू भाई व नंदिनी बहन. पति-पत्नी दोनों ने मुंबई में बीमार व अकेले ‘जेपी का परिवार’ बना दिया था.
यह सारा कुछ धीरू भाई तब कर रहे थे जब वे सार्वजनिक जीवन में उतरे भी नहीं थे. सार्वजनिक दायित्व के इस बोध का एक सिरा महात्मा गांधी के प्रति उनकी भक्ति से जुड़ता था तो दूसरा सिरा अपनी प्रिय पत्नी नंदा की अद्भुत संतुलित जीवन-दृष्टि से ! इन दो सिरों के बीच धीरू भाई उन तमाम विशिष्ट जनों के निजी संपर्क में रहे जिन्होंने स्वतंत्रता के बाद के गांधी-आंदोलन को बनाया-बढ़ाया-संवारा. वे उन सबका विश्वास अर्जित कर सके, सबके सबसे विश्वसनीय सहयोगी बन सके, यही उनकी विशिष्टता बतलाता है. तब कोई गहरा विवाद उठ खड़ा हुआ था. कठघरे में सर्व सेवा संघ के वरिष्ठ जन खड़े थे. स्व. विमला ठकार मामले को देख रही थीं. मुंबई आईं तो मेरी पेशी भी हुई. मुझसे पहले धीरू भाई की पेशी हो चुकी थी. उसका संदर्भ देती हुई वे बोलीं थी : “ मैं धीरू भाई से असहमत हो सकती हूं लेकिन पल भर के लिए भी उन पर शंका नहीं कर सकती. ऐसा मैं बिरले लोगों के लिए कह सकती हूं.”
धीरू भाई के व्यक्तिमत्व की ऐसी ही पारदर्शी संरचना थी.
हास-परिहास में डूबे बेहद संजीदा इंसान थे वे.
गुजरात के भावनगर जिले से सोनगढ़ गांव के जिस परिवार में उनका जन्म हुआ वह गांधीवाला नहीं था लेकिन गहरे नैतिक मूल्यों वाला था. मां अत्यंत व्यावहार कुशल लेकिन नैतिकता से न डिगने वाली मजबूत गृहिणी थीं, पिता अपनी सीमित आय में संस्कारी परिवार चलाते थे. इन दोनों का धीरू भाई के जीवन पर गहरा व अमिट असर रहा. यहीं से खादी पहनने का व्रत लिया और ताउम्र उसे निभाया. फिर सारा परिवार मुंबई आ गया जहां से धीरू भाई के जीवन ने एक अलग दिशा पकड़ी. वे मेधावी छात्र रहे, सीए की दो कठिन परीक्षाएं आसानी से पास कीं. जैसे नियति उन्हें हाथ पकड़ कर भावी के लिए तैयार कर रही थी, कुछ इस तरह उनकी शादी गांधी-विनोबा के ‘दास’ राधाकृष्ण बजाज की बेटी नंदिनी बजाज से हुई. गुजराती-राजस्थानी परिवार के बीच यह संबंध उन दिनों सामान्य नहीं था. लेकिन दोनो के बीच ‘गांधी’ थे तो यह सारा कुछ संभव हुआ. इस विवाह के साथ धीरू भाई बजाज परिवार से भी जुड़े और बजाज कंपनी से भी. यह प्रतिभा व जरूरत का ऐसा मधुर संयोग था जिसने दोनों को पल्लवित व पुष्पित किया. आर्थिक मामलों में धीरू भाई की दक्षता, दूरंदेशी, मूल्यनिष्ठा तथा अथक काम करने की क्षमता ने उन्हें बजाज समूह का अभिन्न अंग बना दिया. बजाज समूह की तीन पीढ़ियों, कमलनयन बजाज, रामकृष्ण बजाज तथा राहुल बजाज के साथ धीरू भाई का लंबा साथ अपूर्व रहा. साथ व विश्वास का यह हाल हुआ कि रामकृष्ण बजाज के देहांत के बाद जब बजाज-परिवार में मालिकी व संपत्ति का विवाद हुआ और बजाज ग्रुप दो हिस्सों में टूट गया तब दोनों पक्षों में मध्यस्थता के लिए एक ही नाम पर सहमति बनी : धीरू भाई !
निजी जीवन की उपलब्धियों व निश्चिंतता के बाद भी सार्वजनिक जीवन के कर्तव्यों के प्रति उनका विवेकपूर्ण आकर्षण उन्हें खींचता ही रहता था. ऐसे में उन्हें साथ मिला डॉक्टर सुशीला नैयर का जो वर्धा के कस्तूरबा अस्पताल की गाड़ी खींचने में बेदम हुई जा रही थीं. उम्र का 50वां दशक पार कर रहे धीरू भाई को वे अपने साथ नई दिशा में ले गईँ. बजाज जैसे समूह की सर्वप्रिय ऊंचाई से मुंह मोड़ कर एक नई दिशा में निकल पड़ना किसी के लिए भी आसान नहीं होगा. भरा-पूरा घर भी, खिलते हुए बच्चे भी, सुरक्षित वर्तमान को भविष्य की अनजानी अनिश्चितताओं की तरफ खींच ले जाना न आसान था, न परिजनों की नज़र में समझदारी! लेकिन धीरू भाई ने रास्ता बदलना सोचा तो सबकी सुनते हुए, सबको साथ लेते हुए रास्ता बदल ही लिया.
अब जिस धीरू भाई को हम पाते हैं वह सेवाग्राम अस्पताल, लेप्रेसी फाउंडेशन, इंदौर के कस्तूरबाग्राम, अहमदाबाद के गुजरात विद्यापीठ, गांधी के नवजीवन प्रकाशन, राजकोट के आंख के अस्पताल, महाराष्ट्र के धुर आदिवासी विस्तार मेलघाट के अस्पताल से ले कर भारतीय विद्या भवन तक, दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान से लेकर गांधी स्मारक निधि तक के बीच भागता मिलता है. कहूं तो इन सबको धीरू भाई ने जैसे अपना ही लिया.
कस्तूरबा की स्मृति में बापू के आशीर्वाद से जिस छोटे-से अस्पताल की शुरुआत उनकी बेटीसमान डॉ. सुशीला नैयर ने की थी, सेवाग्राम का वह अस्पताल व संस्थान आज जहां व जैसा है, उसकी कल्पना भी धीरू भाई की ही है और वह उपलब्ध भी उनकी ही है. अपने हर अभिक्रम को गांधी से जोड़ने की उनकी कोशिश ने वहां कितनी ही नयी शुरुआत की, नई दिशा दी. देश में दूसरा कोई मेडिकल कॉलेज नहीं है कि जहां प्रवेश के लिए गांधी-विचार से संबंधित एक परीक्षा भी देनी व पास करनी पड़ती है, जहां एडमिशन पाए हर युवा भावी डॉक्टर को अपना प्रारंभिक 15 दिन गांधी के सेवाग्राम आश्रम में, वहां की दिनचर्या से जुड़ कर, जीना पड़ता है. स्वास्थ्य व चिकित्सा के बारे में गांधी-विचार से उन्हें परिचित कराने की उनकी यह कोशिश कितनी सफल या असफल रहती है, इसका हिसाब लाने वाले बहुत मिलेंगे लेकिन गहरी एकाग्रता व संलग्नता से ऐसी कोशिश करने वाले धीरू भाई अकेले ही थे. इसी अस्पताल में नये-पुराने व नवागंतुक सारे ही डॉक्टर खादी के कपड़ों में मरीजों की जांच करते, वार्डों का दौरा करते व ऑपरेशन करते मिलते रहे. अपने अस्पताल व संस्थान को चिकित्सा की दुनिया में फैले भ्रष्टाचार से अलग रखने व बचाने की जितनी व जैसी कोशिश धीरू भाई ने की, दूसरे उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते. इसके साथ ही वे लगातार प्रयत्नशील रहे कि आधुनिक चिकित्सा-विज्ञान की हर सुविधा वर्धा ग्रामीण के इस अस्पताल में उपलब्ध हो.
वे गांधी-विचार के गहन अध्येता, व्याख्याकार नहीं थे. गांधी आंदोलनों से उनका सीधा सरोकार भी नहीं था लेकिन गांधी संस्थाओं की बहुत सारी जिम्मेवारियां उन्होंने संभाल रखी थीं. हमारे बीच वे आर्थिक सलाहकार, विवेकपूर्ण निर्णायक तथा संतुलित व्यवहारिकता के आधारस्तंभ थे. पढ़ने का उन्हें शौक था – गुजराती उनकी पहली भाषा थी तो अंग्रेजी उनकी सहज अभिव्यक्ति की भाषा थी. गुजराती साहित्य— काव्य भी, कथा-कहानी-उपन्यास भी उनकी दिनचर्या में शामिल थे. कवि मकरंद भाई से ले कर कथाकार मोरारी बापू तक उनकी सहज समाई थी. वे अपनी तरह से लेखन भी करते थे – गुजराती व अंग्रेजी दोनों में. सरदार पटेल उनके राजनीतिक हीरो थे जिनकी जीवनी के भी वे सहलेखक रहे.
56 सालों की जीवन-संगिनी नंदा 80 वर्ष की उम्र में, 2022 में जटिल बीमारियां झेल कर विदा हुईं तो जैसे जीवन के प्रति धीरु भाई का उत्साह फीका पड़ गया. उन्होंने अपनी सारी मानसिक शक्ति समेट कर इस एकाकी जीवन को भुलाने की कोशिश की जरूर लेकिन उसका रंग उतर चुका था. 2014 के साथ भारतीय राजनीति में जैसे परिवर्तन हुए उसकी बारीकियों को देखने-समझने में भी वे गांधी-परिवार से अलग दिशा में गए. गांधी-दर्शन से उनका भटकाव जिस कदर हुआ, उसने भी उनका अकेलापन बढ़ा दिया. ऐसा हमेशा हुआ. गांधी अपने वक्त में समकालीनों की अत्यंत कड़ी कसौटी तो करते ही रहे, गांधी-दर्शन भी अपने अनुयायियों से सख्ती से बरतता रहा. अहिंसक क्रांति का स्वप्न जितना मोहक है उतना ही दुर्धर्ष भी. धीरू भाई के लिए भी वह परीक्षा कठिन साबित हुई. लेकिन समग्रता व संपूर्णता में धीरू भाई न केवल अनोखे व अनूठे थे बल्कि बड़ी मुश्किल से मिलने वाली सख्सियत थे.
गांधीजन उनकी स्मृति में सर झुकते हैं.
(07.05.2024)
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