मुखौटे बहुत खतरनाक होते हैं लेकिन बड़े काम के होते हैं. जो अआप मुंह से नहीं बोल पाते हैं, मुखौटा वह आसानी से बोल सकता है. मतलब हींग, ना फिटकरी, रंग फिर भी चोखा !
जो जानते हैं वे जानते हैं कि कब मुंह बोल रहा है, कब मुखौटा; जो नहीं जानते हैं वे मुंह की कम सुनते हैं, मुखौटे की ज्यादा. यह खेल तब तक मजे से चलता है जब तक आप मुखौटे को मुखौटा कह कर, उसका मुखौटा छीनने नहीं लगते हैं. ऐसा खतरनाक खेल हुआ है 80 के दशक में. भारतीय राजनीति में चाणक्य होने का मुगालता पालने वाले एक आचार्यजी ने, भारतीय संस्कृति की अलंबरदार पार्टी के शीर्ष नेता को मुखौटा कह दिया. उन्हें भरोसा था कि मुखौटा जिस मुंह का मुखौटा था, वह असली मुंह उनकी रक्षा करेगा. लेकिन मुखौटा-शास्त्र का प्राथमिक पाठ वे भूल गए कि जो असली मुंह होता है, वह मुखौटे की कीमत जानता है. वह मुखौटे को कभी अरक्षित नहीं छोड़ता है.
ठीक भी है न, मुखौटा खिसक जाए तो फिर तो मुंह ही बचेगा; और वह मुंह, मुंह दिखाने लायक नहीं होगा तभी तो मुखौटे की जरूरत पड़ी. तो मुंह मुखौटा को ही बचाएगा, मुखौटा-चोर को नहीं. सो, तब हुआ यूं कि मुंह भी बचा रहा और मुखौटा भी; रेगिस्तान-बियाबान में जो गया वह मुखौटा-चोर था; और ऐसा गया कि आज तक उसकी घर वापसी नहीं हुई है.
आज हमारे सामने 2014 के बाद वाले मुखौटे हैं. लेकिन आगे की बात करने से पहले मैं बता दूं कि आधुनिक विज्ञान के युग में मुंह कौन और मुखौटा कौन, यह स्थिर सत्य नहीं होता है. कभी मुंह मुखौटा बन जाता है, कभी मुखौटा मुंह बन जाता है. बहुत ज्ञानी लोग ही जान पाते हैं कि कौन, कब किसका मुखौटा है और कौन, किसे, कब मुंह बनने की अनुमति दे रहा है. तो यूं समझ लीजिए कि होते तो दोनों मुखौटा ही हैं, मुंह बनने का खेल खेलना पड़ता है.
तो अब बात की बात पर आते हैं. एक है राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और एक हैं दत्तात्रेय होसबाले ! संघ परिवार ने एक को काम दिया है समाज को बेहोश रखने का, होसबाले साहब को काम दिया है इस सरकार को होश में लाने व रखने का. आप समझ ही सकते हैं कि जिस काम पर होसबाले लगाए गए हैं, वह काम वे तभी कर सकते हैं जब सरकार उसके लिए रजामंद हो. इसे मुखौटा निर्माण की प्रक्रिया कहते हैं. तो बात कुछ इस तरह तै हुई कि जब होसबाले होश में रहेंगे तो मुंह रहेंगे; जब होश छोड़ देंगे तो मुखौटा बन जाएंगे. 80 के दशक वाला हादसा फिर न हो, इसलिए यह सावधानी जरूरी है. तो आइए, अब कहानी पर आते हैं. होसबाले साहब ने कहा कि देश में भयंकर गरीबी है, बेरोजगारी है तथा विषमता का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है. उन्होंने भारतीय संस्कृति का सहारा लिया और बोले कि ये सब दानव हैं जिनका सामना देश कर रहा है. बात को विज्ञान का बल देना भी जरूरी होता है, सो वे बोले : देश में 20 करोड़ लोग ऐसे हैं जो गरीबी की रेखा के नीचे हैं जिन्हें देख कर बेचारे होसबाले दुखी हो जाते हैं. फिर उन्होंने कहा कि 23 करोड़ लोग ऐसे हैं कि जो प्रतिदिन 375 रुपयों से कम कमाते हैं. उनके मुताबिक देश में 4 करोड़ बेरोजगार हैं. फिर वे एक कदम आगे जाते हैं : कहा जाता है कि हमारा देश संसार की 6 सबसे बडी अर्थ-व्यवस्था में एक है. लेकिन क्या यह बड़ी सुखद स्थिति है कि देश के सबसे ऊपर के 1 फीसदी लोग देश की राष्ट्रीय आय के 20 फीसदी के मालिक हैं जबकि देश के 50 फीसदी के पास मात्र 13 फीसदी है. वे और आगे गए कि देश की बड़ी आबादी को पीने का साफ पानी व पौष्टिक आहार नहीं मिलता है.
किस्सा तमाम यह कि देश का यह हाल देख कर होसबाले साहब का होश गुम है. मैं सोच रहा हूं कि क्या देश का असली हाल बताने वाले ये आंकड़े ऐसे नये हैं कि जिन्हें पहली-पहली मर्तबा संघ-परिवार की विशेषज्ञ समिति ने खोज निकाला है? नहीं, ऐसे आंकड़े तो पता नहीं कब से हमारे सामने हैं. फिर आज इनकी बात क्यों? यहां मुखौटा अपने खेल खेलता है. केंद्र व राज्य के कई चुनाव सामने हैं और संघ व पार्टी में कई सारों को सारे पासे जगह पर दिखाई नहीं दे रहे. सभी सावधान हैं कि कोई अनहोनी हो न जाए ! ऐसे में संघ-परिवार को एक तीर से कई शिकार करने हैं.
केंद्र में यह सरकार वापस लौटे, उसे यह देखना है क्योंकि संघ-परिवार जानता है कि उसके लिए भारतीय जनता पार्टी से अधिक अनुकूल सरकार हो ही नहीं सकती है. लेकिन वह महसूस करता है कि मोदी-सरकार उस तरह इनके इशारे पर चलती नहीं है कि जिस तरह ये चाहते हैं. संघ चाहता है कि खेल के नियम वह तय करें, सरकार का काम खेलना भर हो. इसलिए यह मुखौटा सामने लाया गया. इसे दो कामों के लिए आगे किया गया है. ये आंकड़े मतदाताओं के सामने रखे तो गए हैं लेकिन दरअसल यह सरकार को सावधान करने के लिए हैं. इशारा यह है कि लाइन पर आओ, नहीं तो सरकारी प्रचार की पोल खोली जा सकती है. होसबाले साहब को बारीकी से सुनेंगे तो पाएंगे कि वे यह भी बताते चलते हैं कि इस सरकार की किस योजना से, कौन-सी समस्या हल होगी. जहां वे गरीबी व शिक्षा व्यवस्था की बुरी दशा की बात करते हैं वहीं यह भी कहते हैं कि इसलिए ही नई शिक्षा-नीति का प्रारंभ किया गया है. स्वावलंबी भारत अभियान, स्किल डेवलपमेंट आदि का उल्लेख भी करते हैं. वे कोरोना काल में मिली इस सीख की भी बात करते हैं कि ग्रामीण रोजगार गांव में ही विकसित हो तथा यह भी कि आयुर्वेदिक दवाओं के विकास की दिशा में सही कदम बढ़ाया जा रहा है. मतलब, मुखौटा हटाएंगे तो आपको सरकार से नाराज होने जैसा कुछ नहीं मिलेगा. एक तेवर है जो सरकार को सावधान करता है कि हमसे बना कर चलो.
आप देखेंगे कि संघ प्रमुख भागवत भी लगातार कुछ ऐसा कहते रहते हैं कि जो सरकार की दिशा से एकदम-से मेल नहीं खाता है. लगता है, रास्वंसं को सरकार से न केवल परेशानी हो रही है बल्कि उसके पास ज्यादा फलदायी दूसरी दिशा भी है. लेकिन यह भी गौर करने लायक है कि ये सब मिल कर डोर उतनी ही और वहीं तक खींचते हैं कि जहां से वह टूटने न लगे. सब कुछ जैसा है वैसा ही चलता रहे लेकिन एक हवा ऐसी बनी रहे कि कोई है जो अंकुश लगाने का काम कर रहा है. लेकिन न तो अंकुश लगता है, न लगाया जाता है, न सरकार की दशा-दिशा में कोई फर्क पड़ता है. ऐसा ही हाल हमारे सड़क कल्याण मंत्री का है. वे भी कुछ अलग व तीखा कहने की मुद्रा में बोलते हैं लेकिन मर्यादा का ध्यान रखते हैं. मर्यादा का ध्यान रखना भी चाहिए. मुखौटों ने मर्यादा तोड़ी तो वे टूट ही जाते हैं. फिर उनकी कोई राजनीतिक दशा बचती नहीं है.
इसलिए हम मुखौटों की बात सुनें जरूर लेकिन यह ध्यान रखें कि मुंह और मुखौटे में फर्क होता है; और कब मुंह बोल रहा है और कब मुखौटा, यह फर्क करने की तमीज अनुभव के बाद ही आती है.
(06.10.2022)
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