घटनाएं इस तेजी से घट रह हैं मानो किसी ने उन्हें चर्खी पर चढ़ा दिया है; और यह खेल हम सबने बचपन में खेला ही है कि सतरंगी चर्खी को जब हम तेजी से घुमाते हैं तो सारे रंग एकरूप हो जाते हैं और दिखाई देता है सिर्फ सफेद रंग का नाचता गोलाकार ! हमें आज तेजी से बदलती घटनाएं भी ऐसी ही दिखाई दे रही हैं. इस तीखी व तेज चक्करघिन्नी में सारे रंग एकरूप हो गए हैं – सिर्फ एक फर्क के साथ कि अब हमारे सामने जो चर्खी घूम रही है वह सफेद नहीं, काली है. यह बता रही है कि देश की तमाम राजनीतिक-सामाजिक-वैधानिक-पेशेवर ताकतों ने मिल कर इस देश को, इसकी व्यवस्था को और इसके संविधान को किस कदर छलने का जाल बुन रखा है.
हमारे सामने दो तरह के लोग खड़े हैं : एक वे कि सत्ता जिनका आखिरी सत्य है. वे सब प्रधानमंत्री की रहबरी में सत्ता की अपनी भूख शांत करने के लिए सारे धतकर्म करते जा रहे हैं. यह चिंता का विषय तो है लेकिन किसी दूसरे धरातल पर. मेरी पहली व सबसे बड़ी चिंता यह है कि राजनीतिक सत्ता जिनका अंतिम लक्ष्य नहीं है, वे क्या कर रहे हैं; क्या कह रहे हैं ? क्या खोज रहे हैं वे और क्या पा रहे हैं वे? इनमें अधिकांश वे कायर लोग हैं जो जिंदगी भर सुविधा व संपन्नता के रास्ते तलाशते रहते हैं और किसी हद तक उसे पा भी लेते हैं. पा लेने के बाद वे ताउम्र सावधान रहते हैं कि कहीं से कुछ ऐसा न हो कि यह छिन जाए. इनमें न बौद्धिक ईमानदारी है, न रत्ती भर साहस ! ये सब खुद को बुद्धिजीवी कहते हैं – शुद्ध शाब्दिक अर्थ में ! इनकी सारी चातुरी, सारा ज्ञान, सारी व्यवहार कुशलता आदि का कुल निचोड़ यह है कि जीने के सुविधाजनक रास्ते तलाशने में बुद्धि का इस्तेमाल कैसे किया जाए. कभी किसी से गांधी से पूछा था : आपको सबसे अधिक उद्विग्नता किस बात की होती है ? उन्होंने जो कहा, उसका मतलब था: मैं इस ‘बुद्धिजीवी वर्ग’ की बढ़ती जमात से सबसे अधिक उद्विग्न हूं !
नोटबंदी जैसा मूढ़ फैसला और फिर ‘डैमेज कंट्रोल’ के लिए बार-बार बोला जाने वाला झूठ; जीएसटी की घोषणा के लिए संसद में आधी रात को आयोजित प्रधानमंत्री का खोखला आयोजन व उस अपरिपक्व योजना से हो रहे नुकसान को छिपाने की हास्यास्पद कोशिशें; प्रधानमंत्री का लगातार झूठ-अर्धसत्य-विज्ञान व इतिहास का उपहास करने वाली उक्तियां, भारतीय समाज को खंड-खंड करने वाली जहरीली काईयां वाकवृत्ति, संविधान व न्यायपालिका की हिकारत भरी उपेक्षा, लोकतांत्रिक परंपराओं की धज्जियां उड़ाना, विपक्ष के लिए समाज में घृणा फैलाना, लोकतांत्रिक समाज को पुलिसिया राज में बदलना, नौकरशाही को चापलूसों की जमात में बदलना, फौज को राजनीतिक कुचालों में घसीट कर जोकरों की जमात भर बना देना, ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार का नया तानाबाना तैयार करना जैसे कितने ही थपेड़े देश ने झेले हैं, झेल रहा है. लेकिन इन तथाकथित बुद्धिजीवियों में से एक की भी मुखर व अडिग मुखालफत सामने आई हो तो मालूम नहीं है. इनमें से अधिकांश ढोलबाजों की जमात में नाचते मिलते हैं.
कांग्रेस का चुनाव घोषणापत्र जारी हुआ. उससे हमारी लाख असहमति हो सकती है लेकिन प्रधानमंत्री का यह कहना कि उन्हें यह मुस्लिम लीग का घोषणापत्र लगता है, क्या राजनीतिक पतन की पराकाष्ठा नहीं है ? उनका बयान बताता है कि उन्हें न तो इतिहास की धेले भर की जानकारी है, न वे उस दौर की राजनीति की कोई समझ रखते हैं. लेकिन मुझे गहरी वेदना तब हुई जब मैंने देखा कि दूसरे दिन सारे अखबारों ने प्रधानमंत्री के इस मूढ़ व जहरीले बयान को ज्यों-का-त्यों परोस दिया ! मीडिया की स्वतंत्र आत्मा होती तो वह लोकतंत्र के पक्ष में खड़ी होती. वह ऐसे बयान या तो प्रसारित नहीं करती या फिर इसे खारिज करते हुए प्रसारित करती. लेकिन ‘गोदी मीडिया’ हर समय लोकतंत्र की लाश पर ही खड़ी हो सकती है. जो गोदी में हैं वे गुलाम ही रहेंगे.
आजादी की अनोखी, लंबी लड़ाई के बाद मिले लोकतंत्र की इतनी कम कीमत लगाते हैं हम ? लोकतंत्र के बिखर जाने के कारण हमारे पड़ोसियों का हाल देखने के बाद भी यदि हम इसकी तरफ से इतने उदासीन हैं तो हमें किसी भी गुलामी से परहेज कैसे होगा ? चौतरफा विकास के तथ्य व सत्यहीन आंकड़ों का जो घटाटोप रचा गया है वह यदि सच हो तो भी हमें यह कहना चाहिए कि नागरिक स्वातंत्र्य, मीडिया की आजादी, व्यक्तित्वहीन न्यायपालिका, अन्यायपूर्ण श्रम-कानूनों की कीमत पर हमें कोई भी, कैसा भी विकास नहीं चाहिए. पिंजड़ा सोने का हो तो भी खुली हवा से उसका सौदा नहीं हो सकता है, यह बात कितनी भी पुरानी हो, अंतरात्मा पर स्वर्णाच्छरों में दर्ज रहनी चाहिए. लेकिन प्रेस-मीडिया के लोगों को अपनी कलम के बारे में उतना भी सम्मान नहीं है जितना किसी भिखारी को अपने भीख के कटोरे के बारे में होता है. कुर्सी को अंतिम सत्य मानने वाले राजनीति के धंधेबाजों का रोज-रोज अपनी पार्टी छोड़ बीजेपी में जाने का क्रम मुझे शर्मसार करता है लेकिन मीडिया का रोज-रोज ईमान बदलना अकुलाहट से भर देता है. आजाद भारत के कोई 75 सालों में जिस जमात ने 6 इंच की कलम उठाना व संभालना नहीं सीखा, क्या उसे कभी लोकतंत्र का चौथा खंभा माना जा सकता है ? देश में मीडिया जैसी कोई संकल्पना आज बची ही नहीं है. धंधा है जो धंधे की तरह चलता है. इस रोने का कोई औचित्य नहीं है कि हम पर मालिकों का दवाब है और नौकरी छोड़ने की हमारी स्थिति नहीं है. आप बताए, क्या कभी 10 पत्रकारों ने भी मिल कर यह बयान निकाला है कि हम दवाब में काम करने को तैयार नहीं हैं और ऐसे दवाब में काम करने से अच्छा होगा कि हम सब त्यागपत्र दे दें. ऐसी कोई नैतिक आवाज कहीं से उठे तो !
धंधेबाजों का पूरा कुनबा चुनावी बौंड के घोटाले को सार्वजनिक होने से रोकने में किस तरह लगा था, यह सारे देश ने देखा. सरकारी तंत्र इसमें क्यों लगा था, यह बात तो समझी जा सकती है लेकिन सत्ता के इशारे पर नाचते देश-दुनिया के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक की भूमिका को किस तरह समझेंगे आप ? उसका तो धेले भर का स्वार्थ नहीं था कि यह जानकारी देश के सामने न आए. लेकिन उसने अपनी पूरी साख दांव पर लगा दी. हर अदालती डंडे के सामने उसकी हालत गली के उस कुत्ते-सी हो रही थी जो दुम दबा कर कायं-कायं कर रहा हो. उसने कभी कोई नैतिक भूमिका लेने की कोशिश ही नहीं की. अब स्टेट बैंक एक खोखला साइनबोर्ड भर रह गया जिसे किसी भी गैरतमंद सरकार को बंद कर देना चाहिए. नई संहिता के साथ उसकी नई संरचना लाजिमी है.
हमने यह भी देखा कि वकालत का धंधा करने वाले वे सारे नामी-गरामी लोग, जिन्होंने अपनी ऐसी छवि गढ़वाई है कि वे हैं तो संविधान है, न्याय है, कैसे-कैसे तर्कों के साथ सामने आ रहे थे ! वे सब सर्वोच्च अदालत को समझा व धमका रहे थे कि चुनावी बौंड की कोई भी जानकारी सार्वजनिक हो गई तो न्यायपालिका सदा-सर्वदा के लिए कलंकित हो जाएगी तथा देश तो गड्ढे में गया ही समझिए! इन सबके पीछे करोड़ों की वह फीस बोल रही थी जो इनकी छवि का आधार है. इनकी कोई नैतिक रीढ़ बनी व बची नहीं है.
यह असली खतरा है. सरकारें आएंगी, जाएंगी. जब भी, जो भी सरकार आएगी उसे भी अपने ऐसे ही रीढ़विहीन लोगों की जरूरत होगी. ऐसे ही बुद्धिजीवी, पत्रकार, मीडिया संस्थान उसे भी तो चाहिए होंगे ! इसलिए लोकतंत्र के पैरोकारों की जमात खड़ी करना प्राथमिक शर्त है. हमें आज का दायित्व पूरा करना है और कल का दायित्व निभाने की ताकत संयोजित करनी है. दोनों काम साथ-साथ करने हैं.
(10.04.2024)
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