
कुमार प्रशांत
तो राहुल गांधी के सबसे धारदार हथियार की धार भोथरी करने के लिए प्रधानमंत्री ने एक ऐसा झूठ बोला कि जिस बराबरी का झूठ खोजना उनके संसार में भी मुश्किल है. झूठ की शिफत यही है कि उसे हरबार पिछले से ज्यादा बढ़ा–चढ़ा कर बोलना चाहिए अन्यथा उसकी तासीर बेअसर हो जाएगी. प्रधानमंत्री इस कला के माहिर उस्ताद हैं. वे झूठ भी बोलते हैं – याकि झूठ ही बोलते हैं ! – और सार्वजनिक विमर्श कास्तर इतना गिराते जाते हैं कि शालीनता, विवेक, ज्ञान आदि के खड़े होने की जगह ही न बचे. जवाब में फिर दूसरी तरफ से भी उसी स्तर की बातें आती हैं.
लोकसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी अपने भाषणों में भारतीय संविधान की लाल रंग की एक आवृत्ति दिखाते घूमते रहे. उनका कहना है कि भारतीय संविधान में वह सब कुछ है जो आंबेडकरजी, गांधीजी, फुलेजी आदि के दर्शन में है. वे समझाते हैं कि जनता के अधिकार, जनता की शिक्षा, जनता का आरक्षण, जनता का रोजगार, जनता की आजादी आदि सभी इसी संविधान से निकलती है और प्रधानमंत्री इसी संविधान को समाप्त करना चाहते हैं. बक़ौल राहुल गांधी प्रधानमंत्री व भारतीय जनता पार्टी ऐसा इसलिए चाहती है कि उसे समता व बराबरी का समाज नहीं चाहिए. वे इससे जुड़ी तमाम दूसरी बातें भी कहते हैं. राहुल गांधी जो कर रहे हैं, वह सब सही है, ऐसा तो कैसे कहें हम लेकिन हम यह कहना जरूर चाहते हैं कि राहुल जो कह रहे हैं, उस पर गहराई से विचार होना चाहिए.
लेकिन किसी विचार की बात तो दूर, प्रधानमंत्री ने राहुल गांधी को ऐसा जवाब दिया कि जिसका सर है, न पांव ! प्रधानमंत्री दहाड़ कर बोले, बार–बार बोले और हर बार नई मुद्रा में बोले कि राहुल गांधी संविधान की जो किताब दिखाते हैं उसके भीतर कुछ लिखा ही नहीं है. वह खाली है. राहुल गांधी ने अपनी अगली सभा में फिर किताब दिखाई लेकिन इस बार उसे खोल कर भी दिखाया. उसमें बाजाप्ता लिखाहुआ था. वह खाली नहीं थी. अभी तक किसी ने उस किताब की ऐसी कोई प्रति सार्वजनिक भी नहीं की है जो ऊपर से लाल हो लेकिन भीतर से खाली हो.
हमारा संविधान प्रधानमंत्री ने पढ़ा हो कि नहीं, देखा तो जरूर होगा. उसके सामने दंडवत होते वक्त भी उन्हें अनुमान तो हुआ ही होगा कि वह एक खासा भारी–भरकम ग्रंथ है. उतना बड़ा ग्रंथ उस गुटके में समाही नहीं सकता है. तो संविधान का सार बताने वाला वह प्रतीक संस्करण है. कांग्रेस ने तुरंत ही वह फोटो भी छाप दिया जिसमें प्रधानमंत्री स्वंय ही तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविद को वही लाल संस्करण भेंटकर रहे हैं. तो क्या प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति को कोरा गुटका दे कर झांसा दिया था. अगर नहीं, तो राहुल गांधी ऐसा झूठा काम क्यों करेंगे जो तभी–के–तभी, वहीं–के–वहीं पकड़ा जा सके ! पप्पू कैसा भी पप्पू हो, ऐसा फेंकू तो नहीं हो सकता !
अब अपना अमृत–प्रवचन दे कर प्रधानमंत्री देश से बाहर चले गए. भारतीय जनता पार्टी उनके इस झूठ को सन्नाटे में डुबो कर ही झेल सकती है. वह झेल रही है. लेकिन इससे भारतीय जनता पार्टी को हासिल क्या हुआ ? राहुल गांधी ने भारतीय राजनीति में अब अपनी ऐसी जगह तो बना ही ली है कि उन्हें प्रधानमंत्री वापस पप्पू साबित नहीं कर सकते. सहमति–असहमति, योग्यता–अयोग्यता सब अपनी जगह है लेकिन कांग्रेस को भी राहुल को उसी तरह ढोना है जिस तरह भारतीय जनता पार्टी को नरेंद्र मोदी को ढोना है. यह दोनों पार्टियों का अंदरूनी मामला है. लेकिन किसी को यह हक कैसे मिल सकता है कि वह मतदाता को ऐसा मूर्ख माने और चुनाव–प्रचार को इतनी फूहड़ता से ले !
चुनाव प्रचार को झूठ का बवंडर और अर्थहीन जुमलों का ऐसा जंगल बना दिया गया है कि वहां लोक शिक्षण की जगह ही बाकी न हीं रही है. चुनाव प्रचार मतदाता को जागरूक करने का नहीं, उसके ही पैसेसे उसे मूर्ख बनाने का सबसे बड़ा संवैधानिक आयोजन बन गया है. सारी संवैधानिक संस्थाएं इस शर्मनाक प्रहसन की मूक दर्शक भर हैं. देश के सार्वजनिक व वैधानिक जगत का ऐसा पतन संविधान निर्माताओं की कल्पना में नहीं रहा होगा. 1977 के अत्यंत नाजुक लोकसभा चुनाव के वक्त भी कम नहीं थे ऐसे ज्ञानी–धुरंधर जो जयप्रकाश नारायण को समझाते रहे थे कि साधारण लोग कहां समझेंगे आपकी यह लोकतंत्र व तानाशाही की बात ! “ दो में से एक चुनना है : लोकतंत्र या तानाशाही !” का सीधा नारा दे कर, वे यह कहते हुए आगे निकल गए कि आप लोग अपनी समझ की फिक्र कीजिए, जनता की नहीं! साधारण मतदाता ने वह चुनौती समझी और लोकतंत्र उभर आया.
संविधान की किताब दिखा कर चुनाव की तासीर बदलने की राहुल की कोशिश आज भी जारी है. कांग्रेस संगठन में कोई राजनीतिक समझ होती तो वह इसी का बड़ा आंदोलन खड़ा कर सकती थी. जब सामने वैचारिक शून्यता का घटाटोप रचा जा रहा हो, तब आपकी सामान्य वैचारिक बातें भी जड़ जमा लेती हैं. लेकिन कांग्रेस में ऐसी समझ होती तो उसका ऐसा हाल होता ही क्यों! कोई चिढ़ कर जवाब देता हैकि जहां राहुल गांधी की अपनी सरकारें हैं, वहां भी तो वह सब नहीं हो रहा है जो राहुल गांधी कह रहे हैं. बात गलत नहीं है लेकिन यह राहुल गांधी की बात का जवाब नहीं है. जिस तरह मतदाताओं को नंगों–कंगलों–भीखमंगों की भीड़ समझ कर रुपये बांटने की नई शैली चली है, जिसमें कांग्रेस–भाजपा में एक–दूसरे को मात देने की होड़ चल रही है, वह भी इस बात का जवाब नहीं है कि संविधान में कैसा भारत बनाने का सपना दर्ज है, और वैसा भारत बनाने का क्या रास्ता संविधान बताता है. सबसे बड़ा क्षद्म यह है कि अब सभी संविधान की शपथ लेते हैं, उसे पढ़ता कोई नहीं है. अभी–अभी सेवानिवृत हुए हमारे सर्वोच्च न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ साहब ने तो बाकायदा घोषणा ही कर दी कि संविधान पढ़ना ईश्वर का काम है, न्यायपालिका का काम ईश्वर से पूछ लेना भर है.
देश इतना खोखला बना दिया गया है, मतदाता इतनी बार, इतनी तरह से छला गया है कि आज सारा कुछ संविधान में सिमट आया है. प्रधानमंत्री भले खिल्ली उड़ाएं कि राहुल गांधी खाली संविधान दिखा रहे हैं, देश को आज जरूरत खाली संविधान की ही है. खाली संविधान की कसौटी पर विधायिका–कार्यपालिका–न्यायपालिका को कसने की ताकत देश एक बार पा ले तो गाड़ी पटरी पर लौट सकती है. मीडियासंस्थानों का विष–दंत भी संविधान ही तोड़ सकता है. मतदाता को यह ताकत व यह दृष्टि खाली संविधान से ही मिल सकती है. हम सब अपनी–अपनी जगह पर इसके औजार बनें तो 1977 का चमत्कार फिर दोहराया जा सकता है.
(20.11.2024)
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