मिलान कुंडेरा नहीं रहे ! मैंने तुरंत देखा कि वे कहां थे जब उनकी मृत्यु हुई ? इसलिए नहीं कि मुझे यह पता नहीं था कि वे पिछले कई वर्षों से फ्रांस की राजधानी पेरिस में रह रहे थे बल्कि इसलिए कि वे जहां रह रहे होते थे, वहां होते नहीं थे. मुझे इसी मिलान कुंडेरा का अपार आकर्षण रहा है. वह साहित्यकार भी क्या साहित्य रचेगा जो धरती पर कहीं भी अपना संसार नहीं रच सके.
आप सोच कर देखिए कि मैं एक ऐसे लेखक की बात कर रहा हूं जिसे मैं जानता तो नहीं ही हूं, उसकी भाषा भी नहीं जानता. उसका देश भी मैंने कभी देखा नहीं. यह कहना भी जरूरी है कि उनकी हर रचना मैंने पढ़ी हो, ऐसा भी नहीं है. उनका अधिकांश साहित्य चेक भाषा में है; जब चेक में लिखना उन्होंने घोषणापूर्वक छोड़ दिया, तब के बाद से उनके साहित्य की भाषा फ्रेंच हो गई. मुझे इन दोनों में से एक भाषा भी नहीं आती है. हममें से अधिकांश लोग मिलान कुंडेरा को अंग्रेजी माध्यम से जानते हैं – अंग्रेजी, जिस भाषा में उन्होंने कभी लिखा नहीं. तो फिर आप ही बताइए, ऐसे लेखक को मुझ जैसा कोई जानेगा भी तो कैसे व कितना ! लेकिन मैं आपसे कह सकता हूं कि मैं मिलान कुंडेरा को लगातार अपने आसपास पाता रहा हूं – एक दोस्त लेखक की तरह नहीं, एक सहयात्री की तरह!
यह भी कहना जरूरी है कि यदि निर्मल वर्मा न होते तो मेरे पास मिलान कुंडेरा भी नहीं होते. निर्मल वर्मा ने ही मिलान कुंडेरा से, उनके लेखन से मेरा परिचय करवाया था. वह दुबचैक का चेकोस्लोवाकिया था जिसे रूसी टैंकों ने घेर कर मार डाला था – बहुत कुछ उसी तरह जिस तरह आज वे ही रूसी टैंक यूक्रेन को घेर कर मारते जा रहे हैं. तब भी ऐसा ही था, आज भी ऐसा ही है कि सारी दुनिया तमाशाबीन बनी हुई थी. निर्मल वर्मा तब चेकोस्लोवाकिया में थे और चुप नहीं थे; यहां भारत में जयप्रकाश नारायण थे और चुप नहीं थे. जब भारत में कोई सोवियत खेमे के खिलाफ बोलने की हिमाकत नहीं करता था, जयप्रकाश चेक लोगों की स्वतंत्रता के पक्ष में खुल कर सामने आए थे, एक दवाब खड़ा करने की कोशिश भी की थी. मानवीय गरिमा के हनन पर जो साहित्य चुप रहे तो वह साहित्य नहीं है; जो गांधीवाला चुप रहे, वह गांधीवाला नहीं है, मेरी यह समझ उसी दौर में बनी. उसी दौर में मिलान कुंडेरा का साहित्य भी बना. विचार न हो तो आदमी होना शक्य नहीं है; प्रतिबद्धता न हो तो कलम उठाने से अर्थहीन काम दूसरा नहीं है. प्रतिबद्धता और ढोलबाजी में जो फर्क है, उसका विवेक खोये नहीं, यह जरूरी है. मुझे कुंडेरा इसलिए ही पसंद थे, अपने-से लगते थे. वे बला की प्रतिबद्धता से लिखते रहे लेकिन उनके समस्त लेखन में कोई ढोलबाजी नहीं थी.
वे साम्यवादी देश चेकोस्लोवाकिया में पैदा हुए थे. तब का साम्यवाद वह नहीं था जो आज का है – पूंजीवादी घोड़े की दुम पकड़ कर, साम्यवादी नारेबाजी करने वाला विदूषक ! वह दुबचैक का दौर था जब वे अपने चेकोस्लोवाकिया में, रूस की तनी भृकुटि के बावजूद साम्यवाद का ‘मानवीय चेहरा’ बनाने में लगे थे. युवा कुंडेरा उन दुबचैक के साथ खड़े हुए. इसके बाद का पूरा इतिहास रूसी साम्यवादी शासन के पतन का इतिहास है जिसमें कितनी ही मूर्तियां टूटीं, कितनी आस्थाएं बिखरीं तथा कितने ही लोग मिटा दिए गए. दुबचैक खुद ही किसी गतालखाने में डाल दिए गए. कुंडेरा ने स्वप्नों के बिखरने के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की. फिर वही हुआ जो सबसे सहज था : जिस साम्यवादी पार्टी के वे सदस्य ही नहीं थे बल्कि जिसकी पैरवी करने में वे कुछ भी उठा नहीं रखते थे, उसी पार्टी ने उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया. जितनी आजादी हम दें, उसमें खुश रह कर दिखा वाले साम्यवाद के साथ कुंदेरा का बनना नहीं था; नहीं बना.
पार्टी छोड़ी फिर देश छोड़ा ! रूसी सोल्जेनित्सीन को भी सोवियत संघ छोड़ना पड़ा था और वे जा बसे थे अमरीका में. उनसे देश तो छूटा लेकिन वे कभी देश छोड़ नहीं सके. कुंडेरा ने अपना प्यारा देश छोड़ा, तो ऐसे छोड़ा कि छोड़ ही दिया. पेरिस में आ बसे तो वहीं के हो कर रह गए. भाषा भी छोड़ दी. फ्रेंच में लिखने लगे. लेखक किसी देश का नहीं, मूल्यों का होता है. अगर मूल्यों की पहचान साफ है और उनके प्रति प्रतिबद्धता पूरी है तो कहीं भी रहो, लिखोगे वही जो लिखना है; और जो लिखना जरूरी है. कुंडेरा ऐसी मान्यता को जीते थे. इसलिए फ्रांस में रहते हुए उन्होंने आजादी, अभिव्यक्ति और अस्मिता तीनों पर लगातार काम किया.
आप कुंडेरा को बोलते कम ही सुनते थे क्योंकि वे मानते थे कि लेखक को नहीं, उसकी रचना को बोलना चाहिए. 1968 में उनकी पहली किताब आई ‘ जोक्स’ यानी हंसी-मजाक लेकिन सत्ता समझ गई कि यह हंसी-मजाक नहीं है, तेजाब है. हंसी-मजाक का आलम यह है मिलान कुंडेरा के यहां कि किताबों के नाम भी उसी की बात करते हैं – लाफेबल लव्स, द बुक ऑफ लाफ्टर; लेकिन आप हंसी-मजाक में इसे उठा लेंगे तो फंस जाएंगे. उनकी आखिरी किताब आई ‘द अनबेयरेबल लाइटनेस ऑफ़ बीइंग’ – अस्तित्व ऐसा कि हवा में तिरता पंख हो; प्रतिबद्धता ऐसी ही कि जैसे पहाड़ उठा रखा हो, इसका द्वंद्व है यह उपन्यास. साम्यवादी दर्शन व संचालन में दमन व हिंसा का अतिरेक ही कुंडेरा को परेशान नहीं करता है, वे उसकी व्यर्थता को पहचानते भी हैं और हमें दिखाते भी हैं. हैरान भी होते हैं कि ऐसी व्यर्थ हिंसा से हासिल क्या होता है ! गांधीजी ने भी हिंसा की क्रूरता से अधिक, उसकी निरर्थकता को बार-बार उभारा है. कुंडेरा भी उसे पहचानते हैं. यह उपन्यास लिखने के बाद कुंडेरा ने लिखना करीब-करीब बंद ही कर दिया. फिर आई ‘ ए किडनैप्ड वेस्ट : द ट्रेजडी ऑफ़ सेंट्रल यूरोप.’ इसके साथ कुंडेरा का जीवन भी समाप्त हुआ.
कुंडेरा बार-बार लिखते रहे कि हम कितनी बड़ी संभावनाओं तक पहुंच सकते थे लेकिन हम कितनी बुरी तरह चूकते रहे हैं. साम्यवाद को वे इसी नजरिये से विश्लेषित करते हैं. हम भारत में पहचानें तो पाएंगे कि सांप्रदायिकता का जो तूफान आज खड़ा किया गया है और जो जहर इसकी नसों में उतारा जा रहा है, वह कितना अर्थहीन है. हम जैसे खुद अपना ही कार्टून बना रहे हैं. दूसरों के लिए हम जो कब्र खोद रहे हैं, उसमें दफन हम ही होंगे. यह आत्महत्या नहीं, आत्म विद्रूपण है जिसमें से ग्लानि से सिवा दूसरा कुछ हाथ नहीं आएगा. मानव मात्र को यही ग्लानि मिली है हर उस सत्ता व सत्ताधीश से जो हिंसा व घृणा को उकसाता है. कुंडेरा बार-बार यही समझाते हैं. 94 वर्ष की उम्र में अब वे थक कर सो गए हैं. उन्होंने खुद को कभी विस्थापित या शरणार्थीं नहीं माना. हमेशा लेखक की भूमिका में रहे और कहते रहे कि हम कभी जान ही नहीं सकते हैं कि हम क्या चाहते हैं; क्योंकि हमारे हाथ तो यही एक जिंदगी है जिसकी पहले वाली जिंदगी से तुलना करने का कोई उपाय हमारे पास नहीं है; न भावी जिंदगी संवारने की कोई नई तस्वीर हमारे पास है.
हां, मिलान कुंडेरा, हम नई-पुरानी तो नहीं जानते लेकिन सपनों की वह तस्वीर हमारे पास है जो आपने उकेरी है. आपका आभार कि आप हमें उस दहलीज तक ले गए.
(14.07.2023)
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