बेचारा सर्वोच्च न्यायालय ! अब उसके या उसके उच्च न्यायालय के जज रहे 21 महानुभावों ने उसे सावधान किया है (धमकी दी है !) कि उसे दवाब में डाल कर मनचाहा फैसला पाने वाला एक गिरोह काम कर रहा है जिससे उसे बचना भी चाहिए व सतर्क भी रहना चाहिए. सार यह है कि कानूनी पेशे की रोटी खाने वाले ये 21 जज सर्वोच्च न्यायालय को बता रहे हैं कि आप इतने भोले हो कि कोई भी आपको लल्लू बना लेता है. वे यह भी कहते हैं कि मी लॉर्ड, आप घबराएं नहीं, हम हर क्षण आपकी मदद के लिए तैयार हैं. जब भी आप ऐसे दवाब में टूटने लगें, बस हमें पुकार लें. इससे पहले 2 सौ से ज्यादा ऐसे ही पेशेवर न्यायाधीशों ने सर्वोच्च न्यायालय को ऐसी ही चेतावनी दी थी.
मैं जल्दी से खोजने लगा कि इन स्वनामधन्य महानुभावों के नाम क्या हैं, तो मुझे खुद पर ही शर्म आई कि ऐसे ‘दिग्गजों’ में से मैं किसी को भी खास नहीं जानता हूं. ये महानुभाव जिन अदालतों से जुड़े रहे, उनके पन्नों में इनमें से किसी के नाम से, एक भी ऐसा मामला दर्ज नहीं मिलता है जिसने संवैधानिकता को मजबूत बनाने जैसा कोई काम किया हो. काले कोट का पेशा तो पेशा है जो ऐसे सभी महानुभाव करते हैं लेकिन काले कोट की आभा जगाने का माद्दा अलग चीज है. वह कभी-कभी ही, किसी-किसी में मिलता है.
इन महानुभावों का इतना सारा किया जैसे काफी नहीं था कि प्रधानमंत्री ने भी सर्वोच्च न्यायालय को भरी क्लास में (भरे-पूरे देश में !) मुर्गा बना दिया. बकौल प्रधानमंत्री इस देश में काला धन बनाने वाले गिरोह में अब सर्वोच्च न्यायालय भी शामिल हो गया है और ‘चुनावी बौंड’ को असंवैधानिक ठहराने के लिए देश को और सर्वोच्च न्यायालय को पछताना होगा. वे कहते हैं कि चुनावी बौंड की कल्पना उनके मन में तब कौंधी थी जब वे ‘बुधत्व’ को उपलब्ध हुए थे. चुनावी बौंड उनके मन के उसी ‘पवित्र क्षण’ की संतान है. गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए जब ऐसे ही किसी ‘पवित्र क्षण’ में उन्होंने फैसला कर लिया था कि उन्हें येनकेनप्रकारेण देश का प्रधानमंत्री बनना ही है, तबसे ले कर ‘अबकी बार 400 पार’ के नवीनतम ‘पवित्र लक्ष्य’ का इतिहास पलटें हम तो पता चलता है कि देश को पछताने के एक नहीं, अनेक मोदी-कारण हैं. लेकिन अभी मैं सिर्फ चुनावी बौंड के ‘पवित्र फैसले’ की ही बात करूंगा.
प्रधानमंत्री ने कहा है कि काले धन की गिरफ्त से चुनावी प्रक्रिया को मुक्त करने के ‘पवित्र उद्देश्य’ से चुनावी बौंड की योजना लाई गई थी. मैं जानना चाहता हूं कि नोटबंदी की तरह यह भी ‘मायावी साधक मोदी’ की निजी उपलब्धि थी या इस बारे में जानकारों से मश्विरा भी हुआ था ? स्वर्गीय अरुण जेटली के अलावा कोई ऐसा एक नाम प्रधानमंत्री ले सकते हैं जिसकी नश्वर काया अब तक हमारे बीच मौजूद है ? तब के रिजर्व बैंक के गवर्नर, बैंकिग की दुनिया के दूसरे बड़े नाम, कोई अर्थशास्त्री, चुनाव आयोग के अधिकारी कौन थे कि जिनके साथ इस ‘पवित्र’ योजना की चर्चा-समीक्षा की गई थी ? क्या संसद में कभी इस पर विमर्श हुआ ? अगर यह पवित्र मन की परिकल्पना थी तो इसमें गुप्तता के इतने प्रावधान क्यों थे ? दाता व आदाता का नाम किसी को पता नहीं चलना चाहिए, इसकी इतनी सावधानी क्यों थी ? इस पर उस तरह नंबर क्यों डाला गया था कि जो जासूसी निगाहों से ही पढ़ा जा सकता था ? गुप्त नंबर की यह तरकीब भी आपकी योजना में तो थी नहीं, बैंकों के गंभीर एतराज के बाद, लाचारी में आपके ‘पवित्र मन’ ने इसे छिपा कर डालना कबूल किया था ! बताएं प्रधानमंत्री कि इतनी तिकड़मों के पीछे कौन-सा पवित्र मन काम कर रहा था ? जो गुप्त होता है, वह पवित्र नहीं होता है.
मोदी-मार्का भ्रष्टाचार वह है जिसमें शब्दों के अर्थ ही बदल दिए जाते हैं. मोदी-सदाचार की नई परिभाषा है : सरकार जो भी करे ( नहीं, मोदी-सरकार जो भी करे ! ) वह सदाचार, जो देश करे या कहे वह कदाचार ! किसी जड़बुद्धि को भी हंसी आ जाए ऐसी बातें प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी कु-योजनाओं के बचाव में कहते आ रहे हैं. नोटबंदी के लिए कहा : इतने दिनों में काला धन खत्म करने के अलावा फलां-फलां बात नहीं हुई तो मुझे फांसी पर चढ़ा देना ! नोटबंदी से वह सब तो कुछ होना नहीं था जिसका दावा किया गया था लेकिन फांसी की अवधि आते-न-आते सारी घोषणाएं ही बदल दी गईं. सियारमार्का मीडिया के धंधेबाज मालिक और दोनों हाथों धन समेटने में लगे कारपोरेट नई घोषणाओं को ले उड़े. ऐसा ही जीएसटी के साथ हुआ. इस शेखचिल्ली योजना की मूर्खताएं आज तक सुधारी जा रही हैं. कपड़े बदलने, ढोल-नगाड़े बजाने व गले पड़ने को विदेश-नीति समझने वाली मसखरी का दौर समाप्त हुआ तो आज यह हाल है कि हमारी विदेश-नीति में न कोई नीति बची है, न आत्मसम्मान ! नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार, अफगानिस्तान, चीन से ले कर फिजी तक में हमारी किरकिरी होती है और हम कभी अमरीकी, कभी रूसी तो कभी यूरोपी हित का समर्थन कर अपने दिन निकाल रहे हैं. यूक्रेन, फलस्तीन के मामलों में हम उस मूर्ख बच्चे से नजर आते हैं जो अपना रिपोर्ट कार्ड लहराता घर लाता है बगैर यह जाने कि उसे कितने विषयों में सिफर मिला है. विदेश-नीति के निर्धारण में गलतियां पहले भी होती रही हैं लेकिन गलतियों को मास्टर-स्ट्रोक बताने की मूढ़ता इसी सरकार की देन है.
चुनावी बौंड के मामले में अदालती चांटा खाने के बाद, अमित शाह मार्का छुटभैय्यों से अनाप-शनाप बयान दिलवाने के बाद अब अपने प्रायोजित इंटरव्यू में प्रधानमंत्री ने मुंह खोला है. वे जब भी किसी मुद्दे पर मुंह खोलते हैं, देश का मुंह खुला रह जाता है. उन्होंने कहा : अगर बौंड की मेरी योजना न होती तो यह पता ही नहीं चलता कि पैसा किधर से आया और किधर गया : मनीट्रेल ! प्रधानमंत्रीजी, पूछने वाला तो यह पूछेगा कि महाशय, यदि आप ही न होते तो यह बौंड ही कहां होता ! पैसा कहां से आया और कहां गया, इतना ही नहीं, इस आने-जाने के पीछे सरकार ने कब,कहां व कैसे दलाली खाई, यह भी देश को पता चला तो इसलिए नहीं कि आपका बौंड था बल्कि इसलिए कि सर्वोच्च न्यायालय इस बौंड के पर्दाफाश के पीछे ही पड़ गया था. चुनावी बौंड का रहस्य किसी स्तर पर न खुले इसके लिए जितनी तिकड़म संभव थी, सरकार ने वह सब की. भाड़े के सारे वकील साहबानों व भ्रष्ट व कायर स्टेट बैंक की नौकरशाही तक को सरकार ने मैदान में उतार दिया लेकिन न्यायालय ने कुछ भी देखने-सुनने से मना कर इस बौंड योजना को बैंड ही कर दिया तो रास्ता ही नहीं बचा कि कहां सर छिपाएं, कहां पांव !
प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि चुनावी बौंड की योजना के कारण चुनावी प्रक्रिया से काले धन की समाप्ति हुई. उनके अपने अर्थशास्त्रियों में से कोई एक मुझे समझा दे कि कोई धन काला होता है क्या ? धन तो सारे सफेद ही होते हैं, इरादे काले-सफेद जरूर होते हैं. जब आप काले इरादे से धन छिपाते हैं तो वह काला हो जाता है, जब सरकार आपके काले इरादे वाले धन को पकड़ लेती है तथा कानूनी दंड वगैरह लगा कर उसे व्यवस्था में समाहित कर लेती है तो वही धन सफेद हो जाता है. जब सरकार अदालत में कहती है कि राजनीतिक दलों को चंदा कहां से व कितना मिला यह जानने का जनता को कोई अधिकार ही नहीं है तब वह काले इरादे से चल रही होती है. जब अमित शाह कहते हैं कि चुनावी बौंड योजना से हमें कितनी रकम मिली व विपक्ष को कितनी यह मत देखिए बल्कि देखिए यह कि हमारे कितने व विपक्ष के कितने सांसद हैं, तब वे काले इरादे से बात कर रहे थे मानो डकैतों का कोई गिरोह है जो लूट में से बंटवारे पर लड़ रहा हो. लूट ही बुरी है, यह कोई नहीं कर रहा है. अब तक विपक्ष ने भी देश से कहां माफी मांगी है कि इस लूट का छोटा-बड़ा हिस्सा ले कर हमने भी पाप ही किया !
सर्वोच्च न्यायालय ने इस संवैधानिक मुकदमे की जैसी उपेक्षा की और इसे कोई 10 साल तक लटाकाए रखा, वह ऐसा संवैधानिक अपराध है कि जिसकी सुनवाई के लिए भी कोई अदालत होनी चाहिए थी. संविधान निर्माताओं ने कल्पना ही नहीं की कि कभी ऐसा भी होगा कि मुकदमों की भीड़ में कोई सर्वोच्च न्यायालय यह विवेक भूल जाएगा कि वह क्यों बना है, और देश क्यों उसका बोझ ढोता है. सर्वोच्च न्यायालय की प्राथमिक भूमिका संविधान के संरक्षण की है; उसका पहला व अंतिम काम विधायिका को संविधान की मर्यादा में बांध कर रखना है. यह दायित्व ऐसा है कि जिसे संविधान की दूसरी कोई संरचना निभा नहीं सकती है. इसलिए सर्वोच्च न्यायाधीश को रोस्टर में यह विवेक करना ही चाहिए कि उसके पास मामलों का जो अंबार पड़ा है उसमें विधायिका की संवैधानिकता की जांच करने का कौन-कौन-सा मामला है. वे सारे मामले उसकी प्राथमिकता में पहले नंबर पर होने चाहिए. उसे भीड़ में एक बना देने से देश की संवैधानिक व्यवस्था भाड़ में जा रही है, यह उसे क्यों दिखाई नहीं दे रहा ? उसने भी काला चश्मा तो नहीं पहन रखा है !
संवैधानिक संरचनाएं जब अपना काम मुस्तैदी से व संवैधानिक तटस्थता से करती रहती हैं तब इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है कि सरकार किसकी है और उसका एजेंडा क्या है. यदि कैग, ईडी, इंकमटैक्स, सीबीआई, चुनाव आयोग, प्रेस काउंसिल, महिला, अल्पसंख्यक व बाल आयोग, निचले स्तर से ऊपर तक की न्यायपालिका अपना-अपना काम करती तो किसी सरकार की हिम्मत नहीं होती कि वह लोकतंत्र का गला दबोच कर, अपनी मनमानी करे. लेकिन इन सबने एक नहीं, अनेक अवसरों पर संविधान को विफल कर, अपनी संवैधानिक भूमिका से धोखा किया है. अदालत ने कभी सीबीआई को ‘पिंजड़े में बंद तोता’ कहा था. कहा तो था लेकिन उसने ऐसा किया कुछ भी नहीं कि जिससे पिंजड़ा टूटे, तोता बाहर आ कर बाज बन जाए. वह और ऐसी तमाम संवैधानिक संरचनाएं अपनी वर्तमान की हैसियत के लिए सरकार से उपकृत और भावी के लिए सरकार पर आश्रित रहती हैं. यह कायर गुलामी लोकतंत्र के लिए घातक है.
चुनावी बौंड के खुलासे से एक बार वह सड़ांध खुले में आ गई है जो इस सरकार ने पिछले 10 सालों में रचा है. अगर यहीं से भारत में संवैधानिकता की शुरुआत होनी हो तो वही सही लेकिन इस लोकतंत्र की इतनी गुजारिश ज़रूर है कि चंद्रचूड़ हों कि सूर्यचूड़, सभी सुनें कि अब पीछे न लौटें.
(23.04.2024)
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