भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने हिन्दू धार्मिक ग्रंथों की प्रकाशक गीता प्रेस को सन 2021 का गाँधी शांति पुरस्कार प्रदान करनी की घोषणा की है. यह एक प्रतिष्ठित पुरस्कार हैं, जिसमें 1 करोड़ रुपये नगद शामिल हैं. पूर्व में यह पुरस्कार जूलियस न्येरेरे (तंज़ानिया), नेल्सन मंडेला (दक्षिण अफ्रीका), शेख मुजीबुर्रहमान (बांग्लादेश) और समर्पित समाजसेवी बाबा आमटे जैसे प्रतिष्टित व्यक्तित्वों को मिल चुका है.
सन 2023 गीता प्रेस का शताब्दी वर्ष है. गीता प्रेस को भारत की “आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत” को बढ़ावा देने के लिए स्थापित किया गया था. प्रधानमंत्री मोदी ने जागरूकता फैलाने और शांति को बढ़ावा देने के लिए गीता प्रेस की सराहना की. कांग्रेस के प्रवक्ता जयराम रमेश ने बहुत मौजूं बात कही. उन्होंने ट्विटर पर लिखा, “…अक्षय मुकुल ने 2015 में गीता प्रेस के बारे में एक बहुत अच्छी किताब लिखी थी जिसमें बताया गया है कि महात्मा गाँधी के प्रति गीता प्रेस किस तरह का बैरभाव रखती थी और गांधीजी के राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक एजेंडा पर उसने किस तरह के प्रश्न खड़े किये थे. यह निर्णय हास्यास्पद है और सावरकर या गोडसे को गांधीजी की नाम पर स्थापित पुरस्कार देने के समान है.”
गीता प्रेस की स्थापना एक सदी पहले हुई थी. उस समय कट्टरपंथी हिन्दू इस बात से परेशान थे कि दलित अपनी समानता और आज़ादी के लिए आवाज़ उठा रहे थे और महिलाएं शिक्षा हासिल कर सार्वजनिक जीवन में उतर रहीं थीं. गीता प्रेस की स्थापना के कुछ समय पहले हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन हिन्दू महासभा का गठन हुआ था और उसके कुछ समय बाद आरएसएस अस्तित्व में आया. गीता प्रेस और उसकी पत्रिका ‘कल्याण’ प्रारंभ में गांधीजी के विरोधी नहीं थे और ‘कल्याण’ ने गाँधीजी के कुछ लेख भी प्रकाशित किये थे. पूना पैक्ट (1932) के बाद यह सब कुछ बदल गया क्योंकि गांधीजी ने घोषणा की कि वे अछूत प्रथा के उन्मूलन, दलितों के मंदिर प्रवेश और उनके साथ भोजन करने के पक्ष में आन्दोलन और अभियान चलाएंगे.
पूना पैक्ट के पहले गांधीजी के आमरण अनशन ने देश को हिला दिया और हिन्दू समाज, जाति-वर्ण व्यवस्था और अछूत प्रथा की अमानवीयता पर सोचने को मजबूर हो गया. गांधीजी के इस निर्णय के देश पर असर के बारे में अक्षय मुकुल अपनी पुस्तक ‘गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ़ हिन्दू इंडिया’, जो कि गीता प्रेस पर लिखी गयी सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों में से एक है, में लिखते हैं: “पद्मजा नायडू ने इसे ‘कैथार्सिस (दमित भावनाओं से मुक्ति)’ बताया और कहा कि इससे हिन्दू धर्म ‘सदियों से जमा हो रही बुराईयों से मुक्त हो सकेगा’ वहीं रबीन्द्रनाथ टैगोर, जो गांधीजी के उपवास का समाचार सुन दौड़े-दौड़े उनसे मिलने आये, ने उसे ‘अद्भुत’ की संज्ञा दी.”
इसके बाद से गीता प्रेस और उसके संस्थापकों, हनुमान प्रसाद पोद्दार और जयदयाल गोयनका के असली एजेंडा का खुलासा होना शुरू हो गया. उन्होंने दलितों के मंदिर प्रवेश और सहभोज के पक्ष में गांधीजी के आन्दोलन की निंदा की. कल्याण के एक बाद एक अंकों में जाति-वर्ण व्यवस्था के मूल्यों की गांधीजी की खिलाफत की कटु शब्दों में आलोचना की गयी. कल्याण ने खुल्लमखुल्ला लिखा कि दलितों का मंदिरों में प्रवेश और विभिन्न जातियों के लोगों के साथ भोजन करने को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए. कल्याण और गीता प्रेस के संस्थापकों का मानना था कि हिन्दू धर्मग्रन्थ सर्वोच्च हैं और गांधीजी का आन्दोलन उन ग्रंथों के खिलाफ है.
गीता प्रेस ने अपनी पत्रिकाओं और अन्य प्रकाशनों के साथ-साथ गीता, रामायण, भागवत एवं विष्णुपुराण की प्रतियाँ भी आम लोगों को अत्यंत कम कीमत पर बेचना शुरू किया. उसने विदेशों में रहने वाले भारतीयों को भी अपने प्रकाशन उपलब्ध करवाने शुरू किये. उसने अंग्रेजी सहित कई भाषाओँ में अपनी पुस्तकें छापनी शुरू की.
गीता प्रेस महिलाओं की समानता के भी खिलाफ थी. इस विषय पर गीता प्रेस की कई किताबें उपलब्ध हैं. इनमें से कुछ हैं हनुमान प्रसाद पोद्दार की ‘नारी शिक्षा’, स्वामी रामसुखदास द्वारा लिखित ‘गृहस्थ में कैसे रहें’ और गोयनका रचित ‘स्त्रियों के लिए कर्त्तव्य शिक्षा’ और ‘नारी धर्म’. इनके अलावा, कल्याण ने महिलाओं पर विशेष अंक भी निकाले . इन पुस्तकों की लाखों प्रतियां बिक चुकीं हैं. कुल मिलकर, इन किताबों की शिक्षाएं भारत के संविधान के मूल्यों के खिलाफ हैं.
स्वामी रामसुखदास कहते हैं कि पतियों द्वारा पत्नियों की पिटाई जायज़ हैं क्योंकि इससे उन स्त्रियों को अपने पिछले जन्म के पापों से मुक्ति मिलती है. स्वामीजी एक बलात्कार पीड़ित स्त्री और उसके पति को यह सलाह देते हैं: “जहाँ तक संभव हो उसके (बलात्कार पीड़िता) के लिए चुप रहना की श्रेयस्कर है. अगर उसके पति को यह बात पता चल जाती है तो उसे भी चुप रहना चाहिए. दोनों के लिए चुप रहना ही फायदेमंद होगा.” वे महिलाओं के पुनर्विवाह के भी खिलाफ हैं, “एक बार उसके माता-पिता द्वारा लड़की तो विवाह में दान कर दिया जाता है, उसके बाद वह कुमारी नहीं रहती है. ऐसे में भला उसे किसी और को कैसे दान किया जा सकता है? उसका पुनर्विवाह करना पाशविकता होगी.”
जून 1948 में कल्याण ने लिखा: “अविवाहित महिलाओं की भरमार, असंख्य गर्भपात, तलाक की बढ़ती दर, अपने सम्मान और शुचिता की चिंता न करते हुए महिलाओं का होटलों और दुकानों में काम करना – ये सब चीख-चीख कर हमें बतला रहे हैं कि पश्चिमी सभ्यता, महिलाओं के लिए अभिशाप है.” कल्याण हमें यह भी बताता है कि, “ऋषि-मुनियों ने घर और समाज में महिलाओं के बारे में जो व्यवस्था निर्मित की है, वह उनके ज्ञान से संपन्न है.”
हिन्दू कोड बिल का मसविदा तैयार करने का काम शुरू होते ही, गीता प्रेस के प्रकाशनों और उसके संस्थापकों ने उसका कड़ा विरोध करना शुरू कर दिया. उनका कहना था कि को प्रावधान इसमें प्रस्तावित हैं वे शास्त्रों और भारतीय संस्कृति के खिलाफ हैं.” तत्कालीन विधि मंत्री बी.आर. अम्बेडकर उस समय गीता प्रेस के निशाने पर थे. इसके पहले से ही, कल्याण अम्बेडकर की खिलाफत करता आ रहा था. वह उनकी मांग के सख्त खिलाफ था कि अछूतों को समानता मिलनी चाहिए. हिन्दू कोड बिल के विषय पर कल्याण में प्रकाशित लेख में अम्बेडकर के बारे में अत्यंत अपमानजनक और जातिवादी टिप्पणियां की गई हैं.
“अब तक तो हिन्दू जनता उनकी बातों को गंभीरता से ले रही थी. परन्तु अब यह साफ़ है कि अम्बेडकर द्वारा प्रस्तावित हिन्दू कोड बिल, हिन्दू धर्म को नष्ट करने के उनके षड़यंत्र का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है. अगर उनके जैसा व्यक्ति देश का विधिमंत्री बना रहता है तो हिन्दुओं के लिए यह घोर अपमान और शर्म की बात होगी और यह हिंदू धर्म पर एक धब्बा होगा.
गीता प्रेस के संस्थापकों को महात्मा गांधी की हत्या में उनकी भूमिका के लिए गिरफ्तार भी किया गया था. उस समय घनश्यामदास बिरला, जो महात्मा गांधी के बहुत नजदीक थे, ने कहा था कि जहां गांधीजी सनातन हिन्दू धर्म का आचरण कर रहे हैं वहीं गीता प्रेस के संस्थापक शैतानी हिन्दू धर्म के पैरोकार हैं.
बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्तियों को स्थापित करने के षड़यंत्र में भी गीता प्रेस शामिल थी. इसके अलावा यह संस्था गौरक्षा एवं राम मंदिर आंदोलनों में भी सक्रिय रही है और यह समय-समय पर लोगों को भाजपा को वोट देने की सलाह भी देती रहती है.
कुल मिलाकर कट्टरपंथी हिन्दू मूल्य या दूसरे शब्दों में ब्राम्हणवादी मूल्यों को गीता प्रेस बढ़ावा देती रही है और हिन्दू धर्म के संकीर्ण संस्करण को प्रचारित करती रही है. गांधीजी का हिन्दू धर्म मानवीय और समावेशी था और वे धर्म के मानवीय पहलू पर जोर देते थे. इसके विपरीत गीता प्रेस अपनी असंख्य पुस्तकों और अपनी पत्रिका ‘’कल्याण’ के जरिए गांधीजी के हिन्दू धर्म, उनकी राजनीति और साम्प्रदायिक सद्भाव पर उनके जोर की विरोधी रही है. हम एक ऐसे काल में जी रहे हैं जब गांधीजी के नाम पर ही उनके मूल्यों और सिद्धांतों की बलि चढ़ाई जा रही है. अब समय आ गया है कि हम सद्भावना और जातिगत व लैंगिक समानता के मूल्यों पर आधारित अपनी राष्ट्रीय संस्कृति को पुनर्स्थापित करें.
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
https://www.navjivanindia.com/opinion/does-gita-press-deserve-the-gandhi-peace-prize-article-by-ram-puniyani
28/06/2023
આ સવાલ શિક્ષણ વિભાગને છે.
સિનિયર આઇ.એ.એસ. ડો. ધવલ પટેલે છોટાઉદેપુર જિલ્લાની 6 શાળાઓની મુલાકાત લીધી, તેમાં વિદ્યાર્થીઓ અને શિક્ષકોના દેખાવથી તેમને ભારે નિરાશા સાંપડી અને તેમણે પ્રાથમિક શિક્ષણ સેક્રેટરી ડો. વિનાયક રાવને સ્પષ્ટ જણાવ્યું કે આદિવાસી વિદ્યાર્થીઓને આપણે સડેલું શિક્ષણ આપીને અન્યાય કરી રહ્યાં છીએ. તેઓ પેઢી દર પેઢી મજૂરી કરે અને આગળ ન વધે એ આપણે સુનિશ્ચિત કરી રહ્યા છીએ. બાળકો અને વાલીઓ આપણાં પર વિશ્વાસ મૂકીને આવે તો તેમની સાથે છળ થતું હોય એ સ્થિતિ નિવારવી જોઈએ. 8 વર્ષ બાળક આપણી પાસે રહે અને તેમને સરવાળા-બાદબાકી પણ ન શીખવી શકીએ તે આપણી ઘોર અસમર્થતાનું જ પરિણામ છે.
આદિવાસી બાળકો આગળ ન વધે એવી વ્યવસ્થાની વાતનો જ પડઘો પાડતા હોય તેમ પાટણ જિલ્લાના સવર્ણ શિક્ષકો અંદરોઅંદર વાતો કરતા ઉમેરે છે કે આ લોકો (એટલે કે પછાત જાતિના વિદ્યાર્થીઓ) ભણીને આગળ જશે તો આપણાં ખેતી ને કામ કોણ કરશે?
ખરેખર તો પ્રફુલ્લ પાનસેરિયા, શિક્ષણ મંત્રી, ગુજરાત રાજ્યને માનવ અધિકારના પ્રમુખ હરગોવનજી એલ. ઠાકોરે, પાટણ જિલ્લાના ધોરણ 1થી 8ના શિક્ષકો સામે કડક હાથે કામ લેવાની કરેલી ફરિયાદમાંની આ ચોથી ફરિયાદ છે. બાળકોનું શિક્ષણ, શિક્ષકોની બેદરકારીને લીધે કથળી રહ્યું છે એવો એ 110 નંબરના, 27 જૂન, 2023 ને રોજ લખાયેલા પત્રનો મુખ્ય સૂર છે. ગુજરાતે વર્ગ ભેદ, જાતિ ભેદ, ધર્મ ભેદમાં કરેલો વિકાસ જોતાં લાગે છે કે એવા શિક્ષકો પાસે ન ભણવાથી કદાચ વધુ શિક્ષિત થઈ શકાય એમ છે.
ડો. પટેલે નિર્ભીક્તાથી પ્રાથમિક શિક્ષણની અવદશાનો ચિતાર આપ્યો છે. બને કે તેમણે પૂછ્યું હોય તેનાં ઉત્તરો કેટલાક વિદ્યાર્થીઓને આવડતાં પણ હોય, પણ શિક્ષકો પાસેથી સમાન્ય જ્ઞાનની રાખેલી અપેક્ષાઓમાં પણ તેમને નિરાશા જ હાથ લાગી છે તે સૂચક છે. પ્રવેશોત્સવ દરમિયાન ખાણ ખનિજ વિભાગના કમિશનર ડો. પટેલની પ્રતિક્રિયામાં થોડી આત્યંતિક્તા હોય તો પણ, તે સત્યથી સાવ વેગળી છે એવું કહી શકાશે નહીં. એ હકીકત છે કે પ્રાથમિક શિક્ષણ ઘણા વિદ્યાર્થીઓને સામાન્ય જ્ઞાન કે સાદી ગણતરી સુધી પણ પહોંચાડી શક્યું નથી. આ સ્થિતિ ગામડાંની જ છે એવું નથી, શહેરી સ્કૂલોમાં પણ આશ્વસ્ત થઈ શકાય એવી સ્થિતિ નથી. એનું સાદું કારણ એ છે કે સરકાર પ્રાથમિક શિક્ષણ પરત્વે બહુ જ ઉદાસીન છે. મફત શિક્ષણને નામે તે વેઠ ઉતારે છે ને તે એટલે ઉતારે છે કે ખાનગી શિક્ષણને ઉત્તેજન મળે. ભણે ગુજરાત, વાંચે ગુજરાત, પ્રવેશોત્સવ જેવા ઘણા તાયફા સરકાર કરે છે, પણ એમાં વાત આપવડાઈથી આગળ જતી નથી. પ્રવેશોત્સવમાં પ્રવેશ તો મોટે ભાગે રાજકારણીઓનો જ થાય છે ને જેમને માટે એ યોજવામાં આવે છે તે તો આ મહાનુભાવોની સરભરામાંથી જ ઊંચા નથી આવતા. આવા ઉપક્રમો દેખાડા સિવાય કોઈ રીતે ઉપકારક નીવડતા નથી. શિક્ષણ મંત્રી કુબેર ડિંડોરે પણ એ સ્વીકાર્યું છે કે સરહદી વિસ્તારોની શાળાઓમાં ક્ષતિઓ છે ને તે દૂર કરીશું. વાત માત્ર સરહદી શાળાઓની જ નથી, સમગ્ર પ્રાથમિક શિક્ષણને સારગ્રાહી ને સર્વગ્રાહી દૃષ્ટિએ, પ્રમાણિકતાથી અને નિષ્ઠાથી જોવા-તપાસવાની તાતી જરૂર છે.
પ્રાથમિક શિક્ષણ તુક્કાઓ પર ચાલે છે ને પછી થૂંકીને ચાટવા જેવું થાય છે, તો તેની નાનમ નથી લાગતી. જ્ઞાનસેતુ પ્રોજેક્ટ મોટા ઉપાડે દાખલ કર્યો અને તે રદ્દ કરવો પડ્યો. NCERTએ કેટલા ય પાઠો રદ્દ કર્યા ને એ પાઠો પાછા દાખલ કરવા પડ્યા. 2017થી કાયમી શિક્ષકોની ભરતી થઈ નથી ને પ્રવાસી શિક્ષકો, વિદ્યા સહાયકોથી કામ લેવું પડ્યું છે. તે બાકી હતું તે હવે જ્ઞાન સહાયકો વીસ હજારને પગારે કોન્ટ્રાક્ટ પર લેવાની વાત છે. પ્રવાસી શિક્ષકો બિનતાલીમી હોય છે ને તેવા તેવાની પણ મંજૂરી મળતી નથી. આ બધા નિર્ણયોમાં ક્યાં ય માનસિક સ્વસ્થતા દેખાય છે? 2017થી ત્રીસેક હજાર શિક્ષકોની ઘટ ચાલી આવે છે તે પૂરી કરવામાં સરકારના હાથ કોણે બાંધ્યા છે તે સમજાતું નથી. જો પ્રવાસી શિક્ષકો મળી રહેતાં હોય, વિદ્યાસહાયકોની જાહેરાતો બહાર પડાતી હોય, તો પેલી ત્રીસેક હજારની મૂળ ઘટ પૂરી કરવામાં શું આડે આવે છે તેનો ખુલાસો થવો જોઈએ. જો શિક્ષણ મંત્રીઓ એકથી વધુ રાખી શકાતા હોય, શિક્ષણ સચિવોની નિમણૂકમાં વાંધો ન આવતો હોય, પૂરા પગારે બીજી નિમણૂકો થતી રહેતી હોય, તો 6-6 વર્ષથી શિક્ષકોની ઘટ પૂરવા પ્રવાસી શિક્ષકો કે જ્ઞાન સહાયકોથી કામ ચલાવવું પડે એનો સંકોચ થવો જોઈએ, પણ થતો નથી.
શિક્ષણ મંત્રીને બદલે પ્રવાસી શિક્ષણ મંત્રી કે જ્ઞાનસહાયક શિક્ષણ મંત્રી કે વિદ્યાસહાયક શિક્ષણ મંત્રી રાખતા નથી, તો શિક્ષકને બદલે પ્રવાસી શિક્ષક કે વિદ્યા કે જ્ઞાન સહાયકને રાખીને સરકાર આંગળાં ચાટીને જ પેટ જ ભરે છે કે બીજું કૈં? ગયે મહિને શિક્ષણ વિભાગ દ્વારા ચિંતન શિબિર થઈ, એમાં નક્કી થયું કે હવે વિદ્યાસહાયકોને બદલે જ્ઞાનસહાયકો રખાશે. કેમ? તો કે ગુણવત્તાયુક્ત શિક્ષણ માટે ! તો આટલાં વર્ષ વિદ્યાસહાયકોને અવગુણવત્તાયુક્ત શિક્ષણ માટે રાખ્યા હતા? ને કોણે, કઇ સરકારે રાખ્યા હતા? ને હવે જે જ્ઞાનસહાયકો રખાશે તે ગુણવત્તાયુક્ત શિક્ષણ જ આપશે એની ખાતરી સરકારને કઇ રીતે છે તેની કોઈ ખાતરી મળતી નથી. નામ બદલવાથી બધું સુધરી જશે એવા ભ્રમમાં તો સરકાર નથીને? હાલ પ્રાથમિક શાળામાં દસેક હજાર વિદ્યાસહાયકોની ઘટ છે. એમાં ય ઘટ? હદ છેને ! મૂળ શિક્ષકોની ઘટ તો ઊભી જ છે. એને બદલે પ્રવાસી શિક્ષકોથી કામ લેવાયું. હવે એની ય મંજૂરી મળતી નથી. કેમ? તો કે એ તાલીમી શિક્ષકો મળતા નથી. મળતા નથી કે લેવા નથી? બિનતાલીમી શિક્ષકો રાખીને સરકાર જ તાલીમી શિક્ષકોનું માન ઘટાડી રહી છે એવું, નહીં?
મૂળ મુદ્દો કાયમી શિક્ષકોની ભરતી કેમ થતી નથી એ છે. એને બદલે પ્રવાસી ને વિદ્યાસહાયકોથી કામ લેવું પડે છે તો, પ્રશ્ન એ થાય કે કાયમી શિક્ષકો મળતા નથી કે તે ઘટ પૂરવાની સરકારની ઈચ્છા જ નથી? એમને પૂરા પગારે રાખવા પડે કે પેન્શન આપવું પડે એ વાતે સરકાર મૂંઝાય છે કે સમસ્યા બીજી જ છે? જો મંત્રીઓની નિમણૂક થતી હોય, એમને એકથી વધુ પેન્શનની સવલતો આપી શકાતી હોય, તો શિક્ષકોને પૂરા પગારે રાખવાની મૂંઝવણ ન થવી જોઈએ.
એક તરફ નવી શિક્ષણ નીતિની ઠેર ઠેર આરતી ઉતારાતી હોય, તેનાં અનેક લાભો ગણાવાતા હોય તો તે શીખવવા તાલીમી સ્ટાફ જ ન રખાય તો અસરકારક શિક્ષણ આપી શકાય એવું સરકારને કઇ રીતે લાગે છે? બધી કંજૂસાઈ સરકાર પ્રાથમિક શિક્ષણમાં જ કેમ કરે છે? વગર શિક્ષકે નવી શિક્ષણ નીતિનો કોઈ અર્થ રહે ખરો? ગામડાંની ઘણી સ્કૂલો એવી છે જ્યાં એક જ શિક્ષક સ્કૂલ ચલાવે છે. પૂરતા વર્ગ ખંડો ય ન હોય, હોય તો ખંડેરને સારાં કહેવડાવે એવા હોય, શૈક્ષણિક સાધનોનાં અભાવમાં શિક્ષણ ચાલતું હોય, વિદ્યાર્થીને સ્કૂલે આવવા જવાની પૂરતી સગવડો ન હોય ને સરકાર કેબિનમાં બેઠી બેઠી સબ સલામતનો શંખ ફૂંક્યા કરે તેનો અર્થ ખરો? જો સરકાર ખરેખર જ એટલી ગરીબ હોય તો તેણે પ્રાથમિક શિક્ષણની જવાબદારીમાંથી હાથ ઊંચા કરી દેવા જોઈએ. જો કે, તેવું તેણે સરકારી સ્કૂલો બંધ કરતાં જઈને અને ખાનગી શિક્ષણને ઉત્તેજન આપીને કરવા પણ માંડ્યું છે.
કાલના જ સમાચાર છે કે ગણદેવી તાલુકાની 99માંથી 6 પ્રાઇમરી સ્કૂલો બંધ થઈ ગઈ છે ને બીજી 5 બંધ થવાની અણીએ છે. જે તાલુકામાં 58 શિક્ષકોની ઘટ હોય, ખાનગી સ્કૂલો વધતી આવતી હોય, સાધન સામગ્રીની અછત હોય, ત્યાં વાલી, કયા આધારે બાળકને સ્કૂલે મોકલશે તે પ્રશ્ન જ છે. જતે દિવસે મફત શિક્ષણ નાબૂદ કરીને સરકાર ખાનગી સંસ્થાઓને ખભે શિક્ષણનો બોજ નાખી દે તો નવાઈ નહીં ! તેને એમ.એલ.એ., સાંસદો, અધિકારીઓ પરવડે છે, એમને પેન્શન ખટાવવાનો વાંધો નથી, પણ શિક્ષકોને કાયમી ધોરણે પૂરો પગાર આપવાનો કે પેન્શન ચૂકવવાનો વાંધો છે. ઓછા સમયમાં શિક્ષક વધુ કમાય છે એવું પણ તેની દાઢમાં છે એટલે તેની પાસેથી બીજું કામ લેવાના પેંતરા પણ ચાલે છે. તેની પાસે રસીકરણ, વસતિગણતરી જેવાં કામો પણ લેવાય છે. આજનો શિક્ષક ડેટા ભરતો ક્લાર્ક થઈ ગયો છે. સરકારને શિક્ષક ભણાવે છે કે નહીં, એની જોડે લેવાદેવા નથી. એને તો પરિપત્રોના જવાબો મળે, આંકડા ભરાઈને આવી જાય કે કામ પૂરું થઈ જાય છે. ડેટા ભરવામાં જ તે એટલો વ્યસ્ત થઈ ગયો છે કે વર્ગમાં જઈને બાળકોને ભણાવવાનો તેને સમય જ નથી રહેતો. એક તરફ ઈતર કામોને લીધે શિક્ષક વર્ગમાં જઇ નથી શકતો તેનો અફસોસ છે તો એવા શિક્ષકો પણ છે જેમણે વર્ષોથી હાથમાં ચોક પકડ્યો નથી. તેને વર્ગ બહારની સેવાનો પગાર લેવાનું ગૌરવ છે. આવા નમૂનાઓ એક તરફ ને બીજી તરફ ભીરુ શિક્ષકો પણ છે. તે નથી તો સરકારને કૈં કહી શકતા કે નથી તો યુનિયન તેની પડખે ઊભું રહેતું. સ્વતંત્ર થયા પછી શિક્ષક, સરકારથી અને યુનિયનથી ડરતો થયો છે. યુનિયનો, પગારની ચિંતા કરે છે એટલી પ્રશ્નોની કરતાં નથી, પણ પ્રાથમિક શિક્ષણ જ નહીં રહે તો યુનિયનો પણ નહીં રહે તે સમજી લેવાનું રહે. આટલાં યુનિયનો છતાં કાયમી ધોરણે શિક્ષકોને રાખવાની સરકારને ફરજ પાડી શકાતી નથી તે દુ:ખદ છે.
લાગે છે એવું કે પ્રાથમિક શિક્ષણ સરકાર પોતાનાં પરથી ઓવારી દેવાં માંગે છે, તેને શિક્ષકોને પગાર ચૂકવવાનું ને વગર ફીએ ભણાવવાનું પરવડતું નથી, પણ, એ ખર્ચ તે લોકોના ટેક્સમાંથી કરે છે. જે પગાર સરકાર પોતે ખાય છે તે પણ લોકોની હોજરીમાંથી આવે છે, તો તે પ્રાથમિક શિક્ષણનું ના’વા કેમ બેઠી છે તે સમજાતું નથી. બીજા લોકો નફાતોટાના દાખલા ગણે તે તો કૈંકે ક્ષમ્ય, આ તો સરકાર પોતે જ ધંધો કરવા બેઠી છે ને તે ય, નફાનો, એને તે શું કહેવું?
000
e.mail : ravindra21111946@gmail.com
પ્રગટ : ‘આજકાલ’ નામક લેખકની કટાર, “ધબકાર”, 30 જૂન 2023