जिसे जनता ने बहुमत नहीं दिया, उसने अपनी सरकार बना ली; जिसे देश ने स्वीकार नहीं किया वह देश को अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति दिलाने के बहाने इटली घूम आया ताकि दुनिया को बता सके कि मैं वहीं हूं, जहां था. रात-दिन वही पिछला माहौल बनाने में सारी सरकारी मशीनरी झोंकी जा रही जो माहौल अब कहीं बचा नहीं है. देश ने जिस ‘गोदी मीडिया’ को गोद से उतार दिया है, वह अपने लिए ‘फेयर एंड लवली’ खोजता, नई जोड़-तोड़ में लग गया है. कितना शर्मनाक है यह देखना कि कल तक यानी 3 जून की रात तक हर संभव हथियार से स्वतंत्र मीडिया की हत्या करने में जो जुटे थे, प्रधानमंत्री की खैरख्वाही में लोटपोट हुए जा रहे थे, वे ही मीडिया-व्यापारी 4 जून की शाम से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लोकतंत्र की नींव बताते हुए पता नहीं किसे, क्यों संबोधित कर रहे हैं. अवसरवादिता आप गिरगिट से सीखेंगे कि गिरगिट आपसे, यह समझना कठिन है.
जिन्हें याद होगा उन्हें याद होगा कि ऐसा ही लिजलिजा माहौल 1977 के आम चुनाव के बाद भी बना था. कायर व स्वार्थी लोग तब भी बहादुरी का तमगा धारण कर सबसे पहले सड़क पर उतरे थे. जिन्हें लोगों ने इस तरह खारिज कर दिया था जिस तरह देश के लोकतांत्रिक इतिहास में कभी, किसी को खारिज नहीं किया था फिर भी लगातार यह तिकड़म की जा रही थी कि इस अस्वीकृति को कैसे स्वीकृति का जामा पहनाया जाए. जो तब कांग्रेस ने और इंदिरा गांधी ने किया था, वही सब आज भारतीय जनता पार्टी व नरेंद्र मोदी कर रहे हैं. तब इमर्जेंसी घोषित की गई थी; आज अघोषित इमर्जेंसी से देश जूझ रहा है. इतिहास बताता है कि जो कायर थे, वे कायर ही रहेंगा.
ऐसे माहौल में आज देश में कोई जयप्रकाश नहीं हैं. वह नैतिक अंकुश नहीं है जो पक्ष-विपक्ष दोनों को उनकी मर्यादा बताए भी और उसे लागू करने के हालात पैदा भी करे. 1977 में इंदिरा गांधी को हटा कर जयप्रकाश ने जिस सरकार को दिल्ली सौंपी थी, उस सरकार को पहले दिन ही यह भी बता दिया था कि सिर्फ 1 साल का समय है आपके पास : “ इस 1 साल में मैं कुछ बोलूंगा नहीं, आप अपना काम करिए, लेकिन आप मेरी गहरी निगरानी में हैं, यह कभी भूलिएगा नहीं. एक साल बाद मैं आपका मूल्यांकन भी करूंगा और आगे का रास्ता भी बताऊंगा.”
जिन्हें पता था वे समझ रहे थे कि यही वह भूमिका थी जिसकी जमीन बनाने में, 30 जनवरी 1948 को गोली खाने से पहले तक गांधी लगे थे. इतिहास इस तरह भी खुद को दोहराता है. हिंदुत्ववादियों ने गांधी को वह करने का मौका नहीं दिया; जयप्रकाश किसी हद तक वह काम कर पाए.
1977 की पराजय के बाद जयप्रकाश बिना बुलाए इंदिरा गांधी के घर पहुंचे थे और उन्हें प्यार से समझाया था कि हार-जीत लोकतंत्र के खेल का हिस्सा है. लेकिन लोगों की सच्ची सेवा कर तुम अपना पुराना मुकाम फिर से हासिल कर सकती हो. वैसा ही हुआ. दूसरी तरफ जनता पार्टी के एक साल के कामकाज का, एक शब्द में जयप्रकाश का मूल्यांकन था : निराशाजनक ! उन्होंने जनता पार्टी के तब के अध्यक्ष चंद्रशेखर व तब के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को एक खुला पत्र लिखा जिसका लब्बोलुआब यह था कि देश में उभरा आशा का ज्वार, आप सबके करतबों से निराशा के भाटे में बदलने लगा है. उन्होंने मोरारजी देसाई को यह भी लिखा था कि उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी खाली कर देनी चाहिए ताकि कोई दूसरा उपयुक्त व्यक्ति सामने लाया जा सके. जयप्रकाश इससे आगे बात नहीं ले जा सके. मौत की लक्ष्मण-रेखा कौन पार कर सका है !
1977 का अनुभव बताता है और आज 2024 का माहौल भी यही बता रहा है कि जो भी सरकार, जैसे भी बनी है, उस पर पहले दिन से ही नजर रखने तथा उसके बेजा इरादों पर अंकुश लगाने की जरूरत है. यह अंकुश सदन के भीतर भी लगे तथा सदन के बाहर भी तभी इस अंधी गली को पार करना संभव होगा.
दिल्ली के बला के असम्मानित लेफ्टिनेंट गवर्नर वी.के. सक्सेना की अनुमति से अरुंधति राय एवं कश्मीरी प्रो. डॉ. शेख शौकत हुसैन पर यूएपीए के तहत मुकदमा दर्ज किया गया है. इन दोनों पर आरोप है कि 2010 में इन दोनों ने कश्मीर से सवाल पर एक उत्तेजक भाषण दिया था. 2010 के उत्तेजक भाषण से यह सरकार आज तक इतनी उत्तेजित है तो यह जरूरी है कि उसे जितनी तरह से व जितनी ऊंची आवाज में संभव हो, यह बताया जाए कि यह अब चलेगा नहीं. उसे समझना ही होगा कि वक्त उसके हाथ से निकल गया है. लोकतंत्र का खेल लोकतंत्र की मर्यादा से ही खेला जाएगा.
मैं अपनी कहूं तो मैं अरुंधति राय के अंग्रेजी लेखन व उनकी भाषा का कायल हूं लेकिन उनकी बातों व स्थापनाओं से मुझे हमेशा ही परेशानी होती है. उनमें कच्चापन भी है, अधकचरापन भी और गैर-जिम्मेवारी भी. लेकिन अरुंधति को किसी मुकदमे में फंसाने का मैं सख्त विरोध करता हूं. उन्हें पूरा हक है कि वे अपनी राय बनाएं, उसे जाहिर करें तथा उसे देश में प्रचारित भी करें. ऐसा करते हुए उन पर भी यह संवैधानिक बंदिश है कि वे देश की एकता-अखंडता को कमजोर न करें. अगर सरकार को ऐसा लगता है कि अरुंधति ने यह मर्यादा तोड़ी है तो उसके पास भी अदालत का रास्ता खुला है. वह चोर दरवाजे से अरुंधति पर वार करे, यह किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं होना चाहिए. पिछले 10 सालों में पनपाई गई यह राजनीतिक संस्कृति न सभ्य है, न लोकतांत्रिक.
हमें अदालत से बार-बार पूछना चाहिए कि वह संविधान का संरक्षण करने का काम कैसे कर रही है जबकि यूएपीए जैसा कानून संसद ने बना दिया और उसे अदालती समीक्षा के दायरे से बाहर भी कर दिया ? संविधान कहता है कि देश में संसद ही एकमात्र संवैधानिक संरचना है जिसे कानून बनाने का अधिकार है. वही संविधान, उतने ही स्पष्ट शब्दों में यह भी कहता है कि संसद द्वारा बनाए हर कानून की वैधता जांचने का अधिकार जिस एकमात्र संवैधानिक संरचना को है वह है न्यायपालिका. न संसद को अधिकार है कि वह न्यायपालिका का अधिकार छीने, न न्यायपालिका को अधिकार है कि वह संसद के अधिकार पर बंदिश लगाए. फिर न्यायालय देश को बताए कि यूएपीए जैसा कानून उसने कैसे संवैधानिक मान लिया है ? कितने ही आला लोग इस कानून के तहत सालों से जेलों में बंद हैं. उन्हें दोषमुक्त करना तो दूर, उन्हें अदालतें जमानत देने से भी इंकार कर रही हैं. जमानत अदालती कृपा नहीं है, हर नागरिक का अधिकार है बशर्ते कि जमानत के कारण किसी के जीवन पर या राष्ट्र की सुरक्षा पर खतरा न हो. अदालत हमें बताए कि विभिन्न विश्वासों के कारण जिन लोगों को जेलों में बंद रखा गया है उनमें से कौन है जो जेल से बाहर आने पर किसी की हत्या कर देगा या राष्ट्र के खिलाफ षड्यंत्र रचेगा ? या तो अदालत इस बारे में देश को विश्वास में ले या फिर संविधान के संरक्षण की जिम्मेवारी से अपना हाथ खींच ले. हम इस सफेद हाथी का बोझ क्यों ढोएं यदि यह न चल पाता है, न बोल पाता है ?
यूसुफ पठान क्रिकेट के बहुत आला खिलाड़ी नहीं रहे हैं. अब तो उनका वह खेल भी समाप्त हो चुका है. पता नहीं, ममता बनर्जी ने क्यों यूसुफ पठान को राजनीति में उतारा और यूसुफ पठान ने क्यों राजनीति में उतरना कबूल किया ! राजनीति का यह खेल न तो बहुत सम्मानजनक है, न बहुत अहम. लेकिन बहुत सारे लोग यह खेल खूब खेल रहे हैं तो ममता बनर्जी व यूसुफ पठान को भी यह खेलने का अधिकार तो है ही. तो यूसुफ पठान ने वह खेल खेला और चुनाव जीत कर अब वे सांसद भी बन गए हैं. वडोदरा में रहने वाले इस मुस्लिम-परिवार का, बंगाल से भाजपा को हरा कर संसद में पहुंचना संघ परिवार को रास नहीं आया. उनका छूंछा क्रोध फूटा यूसुफ पठान और वडोदरा के उनके घर पर. गुजरात संघ परिवार की घोषित प्रयोगशाला है. वहां से यूसुफ पठान जैसा विभीषण पैदा हो तो संघ-परिवारी उन्माद में आ गए और उनके घर पर पत्थरबाजी हुई, यूसुफ पठान को धमकाते हुए, उन्हें उनकी औकात बताई गई. यह तो उनका काम हुआ लेकिन इस मामले में राजनीतिक दलों तथा समाज के सभी तबकों में जैसी चुप्पी छाई रही है, वह शर्मनाक भी है और खतरनाक भी ! कोई यह बताना चाह रहा है कि चुनाव का नतीजा भले जैसा भी रहा हो, हमारी हैसियत में कोई फर्क नहीं आया है. मुसलमान आज भी हमारे निशाने पर हैं. तो यह चुपचाप पी जाने वाला मामला नहीं है. इंडिया गठबंधन को और भारतीय समाज को हर स्तर पर इसकी भर्त्सना करनी चाहिए तथा यूसुफ पठान किस राजनीतिक दल से जुड़े हैं, इसका ख्याल किए बगैर उनके साथ खड़ा होना चाहिए.
चुप्पी लोकतंत्र को कायर व गूंगा बनाती है. यह चुप्पी हर वक्त और हर मामले में टूटनी चाहिए; तोड़ी जानी चाहिए.
(27.06.2024)
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