
कुमार प्रशांत
पूरा कोलकाता पहले गुस्से से लाल हुआ, फिर जल-भुन कर राख हुआ ! अस्पताल में ही नहीं, वह राख कोलकाता शहर में भी सब दूर फैली. जुलूस-धरना-प्रदर्शन चला तो लगातार चलता ही रहा. उसे भाजपा समेत विपक्षी दलों ने उकसाया-भड़काया जरूर लेकिन वह जल्दी ही कोलकाता के भद्रजनों के आक्रोश में बदल गया. ऐसा जब भी होता है, बंगाल से ज्यादा खतरनाक भद्रजन आपको खोजे नहीं मिलेंगे. ममता बनर्जी यह अच्छी तरह जानती हैं क्योंकि इसी भद्रजन के आक्रोश ने, उन्हें मार्क्सवादी साम्यवादियों का पुराना गढ़ तोड़ने में ऐसी मदद की थी कि वे तब से अब तक लगातार सत्ता में बनी हुई हैं. लेकिन सत्ता ऐसा नशा है एक जो जानते हुए भी आपको सच्चाई से अनजान बना देता है. ममता भी जल्दी ही बंगाल के भद्रजनों की इस ताकत से अनजान बनती गईं.
किसी भी अन्य मुख्यमंत्री की तरह सत्ता के तेवर तथा सत्ता की हनक से उन्होंने बलात्कार व घिनौनी क्रूरता के साथ लड़की रेजिंडेंट डॉक्टर की हत्या के मामले को निबटाना चाहा. लेकिन उस मृत डॉक्टर की अतृप्त आत्मा जैसे उत्प्रेरक बन कर काम करने लगी. जैसे हर प्रदर्शन-जुलूस-नारे-पोस्टर के आगे-आगे वह डॉक्टर खुद चल रही थी. ऐसी अमानवीय वारदातों को दबाने-छिपाने-खारिज करने की हर कोशिश को विफल होना ही था. वह हुई और कोलकाता का आर.जी.कर अस्पताल, ममता की राजनीतिक साख व संवेदनशील छवि के लिए वाटर-लू साबित हुआ. अब ममता भी हैं, उनकी सत्ता भी है लेकिन सब कुछ कंकाल मात्र है.
यह आग कोलकाता से निकल कर देश भर में फैल गई. मामला डॉक्टरों का था जो वैसे भी कई कारणों से सारे देश में हैरान-परेशान हैं. सो देश भर की सूखी लकड़ियों में आग पकड़ गई. आंच सुप्रीमकोर्ट तक पहुंच गई. नागरिक अधिकारों, संवैधानिक व्यवस्था, प्रेस की आजादी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से ले कर सत्ता के मर्यादाविहीन आचरण तक के सभी मामलों में देश में जैसी आग लगी हुई है, उसकी कोई लपट जिस तक नहीं पहुंचती है, उस अदालत को यह लपट अपने-आप कैसे दिखाई दे गई, कहना कठिन है. मणिपुर की लड़कियों को जो नसीब नहीं हुआ, कोलकाता की उस डॉक्टरनी को वह नसीब हुआ- भले आन व जान देने के बाद! सुप्रीम कोर्ट ने आनन-फ़ानन में अपनी अदालत बिठा दी और कड़े शब्दों में अपनी व्यवस्था भी दे दी, एक निगरानी समिति भी बना दी जिसकी निगरानी वह स्वयं करेगी. मैं हैरान हूं कि हमारी न्यायपालिका, जो इसकी निगरानी भी नहीं कर पाती है कि उसके फैसलों का सरकारें कहां-कब व कितना पालन करती हैं, वह डॉक्टरों पर हिंसा की जांच भी करेगी व उसकी निगरानी भी रखेगी, यह कैसे होगा ! लेकिन अदालत कब सवाल सुनती है ! अगर वह सुनती तो उसे सुनायी दिया होता कि सत्ता की शह से जब समाज में व्यापक कानूनहीनता का माहौल बनाया जाता है, तब राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक-नैतिक-आर्थिक एनार्की का बोलबाला बनता है. कानूनविहीनता का आलम देश में बने तो यह सीधा न्यायपालिका का मामला है, क्योंकि संविधान के जरिये देश ने यही जिम्मेवारी तो उसे सौंपी है. न्यायपालिका के होने का यही, और एकमात्र यही औचित्य है. 2014 से अब तक अदालतों को यह दिखाई नहीं दिया तो अंधेरा और किसे कहते हैं ? बताते हैं कि कोलकाता के अस्पताल में जब वह अनाचार हुआ तो वहां भी अंधेरा था.
कोलकाता की घटना के बाद यौनाचार व यौनिक हिंसा की कितनी ही वारदातों की खबरें देश भर से आने लगीं. लगा जैसे कोई बांध टूटा है ! पता नहीं, ऐसा कहना भी कितना सही है. जब घर-घर में ऐसी वारदातें हो रही हों, जब सब तरफ हिंसक उन्माद खड़ा किया जा रहा हो तब कोई कैसे कहे कि यह जो सामने है, यह पूरी तस्वीर है!
यह सब हुआ, होना चाहिए था. आगे भी होता रहेगा. प्रधानमंत्री यूक्रेन की आग बुझा कर लौटेंगे तो चुनावी आग में इस मामले को होम कर, धू-धू जलाएंगे. लेकिन जो नहीं पूछा गया और जिसका जवाब नहीं मिला वह यह सवाल है कि लड़की किसे चाहिए ? आर.जी.कर अस्पताल में जो अनाचार व अत्याचार हुआ, वह डॉक्टर पर नहीं हुआ, लड़की पर हुआ. वह लड़की डॉक्टर थी और वह जगह अस्पताल थी, यह संयोग है. महाराष्ट्र में जो हुआ वह स्कूल था, और जिनके साथ हुआ वे छोटी बच्चियां थीं. तो जो यौन हिंसा हो रही है, उसके केंद्र में लड़की है जिसका स्थान, जिसकी उम्र, जिसका पेशा आदि अर्थहीन है. तो सवाल वहीं खड़ा है कि लड़की किसे चाहिए ? जवाब यह है कि हर किसी को लड़की चाहिए : व्यक्तित्वविहीन लड़की ! शरीर चाहिए. वह स्त्री-पुरुष के बीच जो नैसर्गिक आकर्षण है, उस रास्ते मिले कि प्यार नाम की जो सबसे अनजानी-अदृश्य भावना है, उस रास्ते मिले या डरा-धमका कर, छीन-झपट कर, मार-पीट कर मिले. वह मिल जाए, यह हवस है; मिल जाने के बाद हमारे मन में उसकी प्रतिष्ठा नहीं मिलती है. इसलिए घर, जो लड़की के बिना न बनता है, न चलता है, लड़की के लिए सबसे भयानक जगह बन जाता है जहां उसकी हस्ती की मजार मिलती है. हर घर में लड़की होती है लेकिन मिलती किसी घर में नहीं है. इसकी अपवाद लड़कियां भी होंगी लेकिन वे नियम को साबित ही करती हैं.
इसलिए समस्या को इस छोर से देखने व समझने की जरूरत है. अंधी-कुसंस्कृति की नई-नई पराकाष्ठा छूती राजनीति व जाति-धर्म-पौरुष जैसे शक्ति-संतुलन का मामला यदि न हो, तो भी स्त्री के साथ अमानवीय व्यवहार होता है. ऐसी हर अमानवीय घटना हमें बेहद उद्वेलित कर जाती है. दिल्ली के निर्भया-कांड के बाद से हम देख रहे हैं कि ऐसा उद्वेलन बढ़ता जा रहा है. यह शुभ है. लेकिन यह भीड़ का नहीं, मन का उद्वेलन भी बने तो बात बने. स्त्री-पुरुष के बीच का नैसर्गिक आकर्षण और उसमें से पैदा होने वाला प्यार का गहरा व मजबूत भाव हमारे अस्तित्व का आधार है. वह बहुत पवित्र है, बहुत कोमल है, बहुत सर्जक है. लेकिन इसके उन्माद में बदल जाने का खतरा हमेशा बना रहता है. यह नदी की बाढ़ की तरह है. नदी भी चाहिए, उसमें बहता-छलकता पानी भी चाहिए, बारिश भी चाहिए, वह धुआंधार भी चाहिए लेकिन बाढ़ नहीं चाहिए. तो बांध मजबूत चाहिए. कई सारे बांध प्रकृति ने बना रखे हैं. दूसरे कई सारे सांस्कृतिक बांध समाज को विकसित करने पड़ते हैं. समाज जीवंत हो, प्रबुद्ध हो व गतिशील साझेदारी से अनुप्राणित हो तो वह अपने बांध बनाता रहता है.
परिवार में स्त्री का बराबर का सम्मान व स्थान, परिवार के पुरुष को सांस्कृतिक अनुशासन के पालन की सावधान हिदायत, समाज में यौनिक विचलन की कड़ी वर्जना, कानून का स्पष्ट निर्देश व उसकी कठोर पालना से ऐसा बांध बनता है जिसे तोड़ने आसान नहीं होगा. प्यार की ताकत समर्पण में ही नहीं, उसके अपमान की वर्जना में भी प्रकट होनी चाहिए. नहीं देखता-पढ़ता या सुनता हूं कि किसी प्रेमिका ने अपने प्रेमी को, किसी पत्नी ने अपने पति को, किसी मां ने अपने बेटे को, किसी बहन ने अपने भाई को यानी किसी स्त्री ने अपने दायरे में आने वाले किसी भी पुरुष-संबंध को रिश्ते से, परिवार से बाहर कर दिया हो क्योंकि उससे यौनिक अपराध हुआ है. बलात्कारी को यदि यह अहसास हो, उसके आसपास ऐसे उदाहरण हों कि यौनिक हिंसा के साथ ही वह समाज व परिवार से हमेशा-हमेशा के लिए वंचित हो जाएगा, तो यह एक मजबूत बांध बना सकता है. मनुष्य सामाजिक प्राणी है. वह समाज को तब तक ही ठेंगे पर रखता है जब तक उसे विश्वास होता है कि वह समाज को हांक ले जाएगा. ऐसा इसलिए होता है कि आज अधिकांशत: समाज जीवंत, संवेदनशील मनुष्यों की जमात नहीं, भीड़ भर है. भीड़ में से मनुष्य को निकाल लाना बड़ी दुर्धर्ष मनुष्यता का काम है. लेकिन बांध बनाना कब आसान रहा है !
यह हमारी खुद से लड़ाई है. लड़का डराएगा नहीं, लड़की लुभाएगी नहीं, तभी दोनों एक-दूसरे के प्रति सहज-स्वस्थ-सुंदर रिश़्ता बना व निभा पाएंगे. फिर बच जाएंगी दुर्घटनाएं जिन्हें संभालने-सुधारने-स्वस्थ बनाने का काम घर-समाज-कानून मिल कर करेंगे. अगर ऐसा कुछ बोध समाज को हुआ तो कोलकाता के उस अस्पताल की वह डॉक्टर सच में हम सबकी डॉक्टर बन जाएगी.
(26.08.2024)
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