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कुमार प्रशांत
कांग्रेसमुक्त भारत बनाने की बदहवास होड़ को यही रास्ता पकड़ना था. देश भी तेजी से कांग्रेसमुक्त हो रहा है; संसद भी विपक्ष मुक्त हो गई है. संविधान में ऐसी मुक्ति की कोई कल्पना नहीं है. वहां तो संसदीय लोकतंत्र का आधार ही पक्ष-विपक्ष दोनों है. विपक्ष अपने कारणों से चुनाव न जीत सके तो वह जाने लेकिन जो और जितने जीत कर संसद में पहुंचे हैं, उन्हें पूरे अधिकार व सम्मान के साथ संसद में रखना सत्तापक्ष का लोकतांत्रिक दायित्व है. लोकसभा का अध्यक्ष इसी काम के लिए रखा जाता है कि वह संसदीय प्रणाली व सांसदों की गरिमा का रक्षक बन कर रहेगा. लेकिन हम यह नया भारत देख रहे हैं. इसमें भारत कहां है यह भी खोजना पड़ता है, इस नये भारत की संसद में विपक्ष कहां है, यह भी खोजना पड़ता है. एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में हम अपने अस्तित्व की ऐसी शानदार जगह पर आ पहुंचे हैं जहां से वह हर कुछ खोजना पड़ रहा है जिसकी दावेदारी तो बहुत हो रही है लेकिन दिखाई कुछ भी नहीं देता है.
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि विपक्ष ने संसद चलने में इतनी बाधा पैदा की कि उन्हें दंडित करना पड़ा. 60 के दशक से पहले अध्यक्ष की अपील व झिड़की काफी होती थी कि संसद के कामकाज में बाधा डालने वाला रास्ते पर आ जाता था. 60 के दशक में विपक्ष ने भी अपने अधिकारों की मांग शुरू की. उसका स्वर तीखा होता गया. 70 के दशक में कांग्रेस ने इंदिरा गांधी के मनमाने के सामने गूंगे रह कर विपक्ष को संसद से बाहर कर दिया था. लेकिन वह आपातकाल का संदर्भ था.
जब भारतीय जनता पार्टी विपक्ष में थी, तब उसने संसद को अंटकाने को हथियार की तरह बरतना शुरू किया. संसद की ऐसी-तैसी करते हुए भाजपा के अरुण जेटली व सुषमा स्वराज्य ने ऐसे बर्ताव को विपक्ष का जायज हथियार बताया था. उस वक्त के अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने संसद को बंधक रखने जैसी प्रवृत्ति पर गहरा असंतोष व्यक्त किया था. लेकिन जब आप फिसलन पर पांव धरते हैं तब गिरावट आपके काबू में नहीं रहती है.
2014 के बाद से संसद का सामान्य शील भी खत्म हो गया और इस बार इसे विपक्ष ने नहीं, सत्तापक्ष ने खत्म किया. सबसे पहले तो प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी है कि हमारा विपक्ष देशद्रोही, राष्ट्रीय एकता का दुश्मन, भ्रष्टाचारी तथा विभाजनकारी ताकतों का सफरमैना है. विपक्ष के लिए जवाहरलाल से मनमोहन सिंह तक, किसी प्रधानमंत्री ने ऐसा नहीं कहा था. अपार बहुमत से सरकार बनाए प्रधानमंत्री को विपक्ष को ऐसा कहने की जरूरत क्यों पड़ी ? इसलिए कि वे भयग्रस्त मानसिकता से घिरे थे; घिरे हैं. उन्हें पता है कि यह जो सत्ता हाथ आई है, उसके पीछे आत्मबल नहीं, तिकड़में हैं. तिकड़म का चरित्र ही यह है कि वह कब छल कर जाए, आपको पता भी नहीं चले. इसलिए रणनीति यह बनती है कि हर विपक्ष व हर असहमति को इतना गिरा दो, पतित कर दो कि उसके उठने की संभावना ही न बचे. विपक्ष, संवैधानिक संस्थाओं, स्वतंत्र जनमत, मीडिया, राज्य सरकारों आदि का ऐसा श्रीहीन अस्तित्व पहले कभी नहीं था. विपक्ष, जिसने 60-65 सालों तक देश चलाया है, अगर देशद्रोही, भारत का दुश्मन, विभाजनकारी ताकतों का सफरमैना तथा भ्रष्टाचारियों का सरदार होता, तो क्या आपको वैसा देश मिलता जैसा मिला ? आप चुनाव जीत सके, प्रधानमंत्री बन सके, यही इस बात का प्रमाण है कि विपक्ष पर लगाए आपके आरोप बेबुनियाद हैं. विपक्ष दूध का धुला है, ऐसा कोई नहीं कहेगा लेकिन आपका दूध शुद्ध है, ऐसा भी तो कोई नहीं कहता है.
आप यह जरूर कह सकते हैं कि आजादी के बाद से अब तक विपक्ष ने जैसी सरकार चलाई, जैसा समाज बनाया उससे भिन्न व बेहतर सरकार व समाज हम बनाएंगे. आपको यह कहने का अधिकार भी है व उसका आधार भी है, क्योंकि आपने सारे देश में एकदम भिन्न एक विमर्श खड़ा कर अपने लिए चुनावी सफलता अर्जित की है. लेकिन देश आजाद ही 2014 में हुआ, ऐसा विमर्श बनाना व सत्ता की शक्ति से उसे व्यापक प्रचार दिलाना दूसरा कुछ भी हो, स्वस्थ्य लोकतंत्र की जड़ में मट्ठा डालने से कम नहीं है. अब यह राजनीतिक शैली दूसरे भी सीख चुके हैं. वे भी इतनी ही कटुता से स्तरहीन विमर्श को बढ़ावा दे रहे हैं. लोकतंत्र में सार्वजनिक विमर्श का सुर व स्तर सत्तापक्ष निर्धारित करता है, विपक्ष उसका अनुशरण करता है. संसद जिस स्तर तक गिरती है, देश का सार्वजनिक विमर्श भी उतना ही गिरता है.
संसद के दोनों सदनों में अध्यक्ष का पहला व अंतिम दायित्व एक ही है : सदस्यों का विश्वास हासिल करना तथा सदस्यों का संवैधानिक संरक्षण करना है. प्रत्यक्ष या परोक्ष पक्षपात आपकी नैतिक पकड़ कमजोर करता जाता है. 2014 से यह लगातार जारी है. यह सच छिप नहीं सकता है कि विपक्ष संख्याबल में कमजोर है जिसे आप बराबरी का अधिकार व अवसर न दे कर लगातार कमजोर करते जा रहे हैं. आपके ऐसे रवैये से विपक्ष का जो हो सो हो, सदन लगातार खोखला होता जा रहा है. वहां व्यक्तिपूजा, नारेबाजी, जुमलेबाजी तथा तथ्यहीनता का गुबार गहराता जा रहा है. ऐसी संसद न तो सदन के भीतर और न बाहर लोकतंत्र को मजबूत व समृद्ध कर सकती है. संविधान इस बारे में गूंगा नहीं है भले हम उसकी तरफ से मुंह फेर कर, निरक्षर व सूरदास बन गए हैं. संविधान के सामने सर झुकाना व संविधान का गला काटना इतिहास में कई बार हुआ है.
18 दिसंबर 2023 एक ऐतिहासिक दिन बन गया है. इस दिन से एक सिलसिला शुरू हुआ है जो अब तक कोई 150 सांसदों को दोनों सदन से बाहर निकाल चुका है. ये सारे निलंबन अनुशासन के नाम पर किए गए हैं. अचानक इतने सारे अनुशासनहीन सांसद कहां से आ गए ? पहले से सब ऐसे ही थे तो अब तक सदन चल कैसे रहा था ? पहले से नहीं थे तो इन्हें अनुशासनहीन बनाने की स्थिति किसने पैदा की ? हर निलंबित सदस्य दोनों अध्यक्षों की क्षमता पर भी और उनकी मंशा पर भी सवाल खड़े करता है. संसदीय लोकतंत्र के प्रति आपकी प्रतिबद्धता कैसी है, यह कैसे आंकेंगे हम ? आपके व्यवहार से ही न ! विपक्ष के इतने सारे सदस्यों को निलंबित कर देने के बाद संसद में लगातार संवेदनशील बिल पेश भी किए जाते रहे, पारित भी किए जाते रहे, तो यह मंजर ही घोषणा करता है कि संसदीय लोकतंत्र का कोई शील आपको छू तक नहीं गया है.
150 के करीब विपक्षी सांसदों को निलंबित करने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं था, सत्तापक्ष का ऐसा तर्क मान भी लें हम तो संसदीय लोकतंत्र की भावना के अनुरूप यह तो किया ही जा सकता था कि इतने निलंबन के बाद संसद की बैठक स्थगित कर दी जाती और विपक्ष के साथ नये सिरे से विमर्श किया जाता कि अब संसद का काम कैसे चलेगा ? संसदीय लोकतंत्र का एकमात्र संप्रभु मतदाता है, जिसने वह संविधान रचा है जिससे आप अस्तित्व में आए हैं. उसने जैसे आपको चुनकर संसद में भेजा है वैसे ही उसने विपक्ष को भी चुन कर संसद में भेजा है. दोनों की हैसियत व अधिकार बराबर हैं और दोनों के संरक्षण की संवैधानिक जिम्मेवारी अध्यक्षों की है. इसलिए अध्यक्षों को यह भूमिका लेनी चाहिए थी कि भले किसी भी कारणवश इनका निलंबन हुआ हो, इनको चुनने वाले मतदाता का अपमान हम नहीं कर सकते, सो संसद स्थगित की जाती है और हम सर जोड़ कर बैठते हैं कि इस उलझन का क्या रास्ता निकाला जाए. ऐसा होता तो अब्दुल हमीद अदम की तरह दोनों अध्यक्ष इस परिस्थिति को एक सुंदर मोड़ दे सकते थे कि “शायद मुझे निकाल के पछता रहे हों आप, महफिल में इस खयाल से फिर आ गया हूं मैं”. इसकी जगह ऐसा रवैया अपना गया कि जैसे बिल्ली के भाग से छींका टूटा. क्या अब संसद में कौन रहेगा, इसका फैसला मतदाता नहीं, संसद का बहुमत करेगा ? यह संविधान की लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन है. यह तो नई ही स्थापना हो गई कि विपक्षविहीन संसद वैध भी है और हर तरह का निर्णय करने की अधिकारी भी है. फिर संसद की कैसी तस्वीर बनती है और संविधान का क्या मतलब रह जाता है ? इसका जवाब इस संसद के पास तो नहीं है.
(22.12.2023)
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