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एकरूपता या लैंगिक न्याय: यूसीसी का ड्राफ्ट कहाँ है

राम पुनियानी|Opinion - Opinion|7 July 2023

राम पुनियानी

विधि आयोग की अधिसूचना और प्रधानमंत्री मोदी की उसे लागू करने की जबरदस्त वकालत के चलते सामान नागरिक संहिता (यूसीसी) एक बार फिर चर्चा में है. चुनाव-दर-चुनाव, यूसीसी भाजपा के घोषणापत्रों का हिस्सा रही है. सन 1996 के घोषणापत्र में यूसीसी को ‘नारी शक्ति’ खंड में शामिल किया गया था. तब से लेकर आज तक भाजपा यूसीसी का मसविदा तैयार नहीं कर सकी है. हमें आज तक यह पता नहीं है कि यूसीसी के लागू होने के बाद, तलाक, गुज़ारा भत्ता, संपत्ति के उत्तराधिकार और बच्चों के संरक्षण के सम्बन्ध में क्या नियम और कानून होंगे. यूसीसी फिर चर्चा में है और अब तक आल मुस्लिम लॉ बोर्ड और कुछ मुस्लिम संगठन इसके खिलाफ आवाज़ उठा चुके हैं. इस बार, आदिवासियों और सिक्खों के संगठन भी इसका विरोध कर रहे हैं.

केंद्रीय सरना समिति के एक पदाधिकारी संतोष तिर्की ने कहा, “वह (यूसीसी) विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और भूमि के हस्तांतरण के सम्बन्ध में हमारे प्रथागत कानूनों पर अतिक्रमण करेगी….”. एक अन्य आदिवासी समूह के नेता, झारखण्ड के रतन तिर्की ने कहा, “अपना विरोध दर्ज करने के लिए हम विधि आयोग को ईमेल भेजेंगे. हम ज़मीनी स्तर पर भी विरोध करेंगे. हम अपनी रणनीति तैयार करने के लिए बैठकें कर रहे हैं. यूसीसी  से संविधान की पांचवीं और छठवीं अनुसूची के प्रावधान कमज़ोर हो जाएंगे.”

राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबंधन (एनडीए) के एक घटक दल और उत्तरपूर्व के एक भाजपा नेता ने कहा कि वे इसका विरोध करेंगे. भाजपा के सुशील मोदी, जो संसद की विधि एवं न्याय स्थायी समिति के अध्यक्ष हैं, ने उत्तरपूर्वी राज्यों सहित आदिवासी इलाकों में यूसीसी लागू करने की व्यवहार्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है (इंडियन एक्सप्रेस. 4 जुलाई 2023).

शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) ने भी यूसीसी का विरोध किया है. अकाली नेता गुरजीत सिंह तलवंडी ने शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (एसजीपीसी) से कहा कि वह यूसीसी को सिरे से ख़ारिज न करे बल्कि विधि आयोग के साथ परामर्श करे. “इंडियन मुस्लिम्स फॉर सेक्युलर डेमोक्रेसी” जैसे प्रगतिशील मुस्लिम संगठनों ने ऐसे व्यक्तिगत कानून (पर्सनल लॉ) बनाने की मांग की है, जिनका किसी धर्म से सरोकार नहीं हो.

व्यक्तिगत और पारिवारिक कानून, दीवानी और फौजदारी कानूनों से अलग होते हैं. दीवानी और फौजदारी कानून सभी धर्मों के लोगों पर समान रूप से लागू होते हैं. व्यक्तिगत कानूनों को ब्रिटिश सरकार ने सम्बंधित धर्मों के पुरोहित वर्गों के परामर्श से तैयार किया था. हिन्दुओं के व्यक्तिगत कानूनों में बहुत विभिन्नता थी. मुख्यतः मिताक्षरा और दायभाग कानून लागू थे. देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु, हिन्दू पर्सनल लॉ के लैंगिक दृष्टि से अन्यायपूर्ण होने से चिंतित थे और इसलिए उन्होंने अम्बेडकर से हिन्दू कोड में सुधार प्रस्तावित करने के लिए कहा था. उस समय मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार की बात सरकार की ओर से इसलिए नहीं की गयी क्योंकि विभाजन के दौर में हुए दंगों के जख्म ताज़ा थे और सरकार नहीं चाहती थी कि ऐसा लगे कि मुसलमानों पर कोई कानून उनकी मर्ज़ी के खिलाफ लादा जा रहा है. बाद में मुस्लिम लॉ को कुछ हद तक संहिताबद्ध किया गया और तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित किया गया. तीन तलाक को अपराध इसलिए घोषित किया गया ताकि समाज को ध्रुवीकृत किया जा सके और मुसलमानों को कानून तोड़ने वालों के रूप में प्रस्तुत किये जा सके.

अम्बेडकर न्याय और समानता के जबरदस्त पक्षधर थे और वे स्पष्ट देख सकते थे कि हिन्दू पर्सनल लॉ, महिलाओं को पराधीन रखने और उन पर ज़ुल्म करने का हथियार हैं. अम्बेडकर ने लैंगिक समानता पर आधारित हिन्दू कोड बिल तैयार किया परन्तु इसका इतना जबरदस्त विरोध हुआ कि सरकार को उसके कई प्रावधानों को हटाना पड़ा और उसे चरणों में लागू करने का निर्णय लेना पड़ा. हिन्दुओं के पुरातनपंथी तबके, जिसे हिन्दू राष्ट्रवादियों का पूरा समर्थन हासिल था, ने अम्बेडकर के त्यागपत्र की मांग की. अम्बेडकर स्वयं भी हिन्दू कोड बिल पर प्रतिक्रिया से मर्माहत थे और उन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया. हिन्दू कोड बिल के विरोध में गीता प्रेस की कल्याण पत्रिका सबसे आगे थी. गीता प्रेस को वर्तमान सरकार द्वारा गाँधी शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया है. कल्याण ने लिखा, “अब तक तो हिन्दू जनता उनकी बातों को गंभीरता से ले रही थी. परन्तु अब यह साफ़ है कि अम्बेडकर द्वारा प्रस्तावित हिन्दू  कोड बिल, हिन्दू धर्म को नष्ट करने के उनके षड़यंत्र का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है. अगर उनके जैसा  व्यक्ति देश का विधिमंत्री बना रहता है तो हिन्दुओं के लिए यह घोर अपमान और शर्म की बात होगी और यह हिंदू धर्म पर एक धब्बा होगा.”

यूसीसी की मांग उभरते हुए नारीवादी आन्दोलन के ओर से ज़रूर की गयी थी. सन 1970 के दशक की शुरुआत में, मथुरा बलात्कार काण्ड के बाद इस मांग ने जोर पकड़ा. उस समय यह मान्यता थी कि एकरूपता से महिलाओं को न्याय मिलेगा. आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर द्वारा के.आर. मलकानी को दिए गए एक साक्षात्कार में संघ प्रमुख ने यूसीसी का विरोध करते हुए कहा था कि भारत में विविधताओं के चलते यूसीसी लागू नहीं किया जा सकता (द आर्गेनाइजर, 23 अगस्त 1972). अतः इस तर्क में कोई दम नहीं है कि यूसीसी से राष्ट्रीय एकता मज़बूत होगी. हम अमरीका से सीख सकते हैं जहाँ के 50 राज्यों में अलग-अलग कानून लागू हैं. अब अधिकांश महिला संगठन भी यूसीसी की बजाय लैंगिक न्याय पर जोर देने लगे हैं. क्या तलाक, उत्तराधिकार और बच्चों के संरक्षण से सम्बंधित नियमों को लोगों पर लादने से लैंगिक न्याय स्थापित हो जायेगा?

क्या यूसीसी को ज़बरदस्ती लागू करना ठीक होगा? क्या यूसीसी लाद देने से, प्रथागत परम्पराएं और प्रथाएं ख़त्म हो जाएंगी? ये सवाल महत्वपूर्ण हैं. आज जरूरत इस बात की है कि विभिन्न धार्मिक समुदायों के अंदर से सुधार की प्रक्रिया शुरू हो और लैंगिक न्याय सुनिश्चित किया जा सके. यह सही है कि विभिन्न समुदायों का प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले व्यक्तियों के बारे में हम यह नहीं कह सकते कि वे अपने पूरे समुदाय और विशेषकर अपने समुदाय की महिलाओें की राय का पूर्णतः प्रतिनिधित्व करते हैं. कई मामलों में पुरूष स्वयं को अपने समुदाय का नेता घोषित कर देते हैं. उनके दावों पर निश्चित रूप से प्रश्नचिन्ह लगाए जाने चाहिए और अलग-अलग समुदायों की महिलाओं की राय को महत्व दिया जाना चाहिए और उनकी राय ही वर्तमान कानूनों में सुधार और परिवर्तन का आधार होनी चाहिए.

भाजपा का यह दावा खोखला है कि यूसीसी लागू करने मात्र से महिलाओं का सशक्तिकरण हो जाएगा. अपने नौ साल के कार्यकाल में सरकार बहुत आसानी से समुदायों के भीतर से सुधार की प्रक्रिया की शुरूआत सुनिश्चित कर सकती थी. अलग-अलग समुदायों की महिलाएं समय-समय पर अलग-अलग मुद्दे उठाती रही हैं परंतु उनपर कोई ध्यान नहीं दिया गया. इसके साथ ही अल्पसंख्यकों में बढ़ते असुरक्षा भाव के कारण उनके कट्टरपंथी तबके की समुदाय पर पकड़ और मजबूत हुई है.

भाजपा का एकमात्र लक्ष्य है धार्मिक आधार पर समाज को ध्रुवीकृत करना और यूसीसी भी इसी उद्धेश्य के लिए उठाया गया कदम है. समुदायों के अंदर से सुधार को प्रोत्साहित करना और यह सुनिश्चित करना कि यूसीसी पर किसी भी चर्चा के केन्द्र में लैंगिक न्याय हो सबसे जरूरी है. यूसीसी को हां या न कहने की बजाए जरूरी यह है कि यह मांग की जाए कि सरकार सबसे पहले यह साफ करे कि यूसीसी में आखिर होगा क्या? अर्थात यूसीसी का मसविदा बहस और चर्चा के लिए सार्वजनिक किया जाए. हम केवल यह उम्मीद कर सकते हैं कि सभी समुदायों और विशेषकर मुसलमानों के परिपक्व और समझदार प्रतिनिधि यूसीसी का विरोध करने की बजाए यह मांग करेंगे कि यूसीसी का मसविदा तैयार हो.

भाजपा की जो सरकार गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार प्रदान कर सकती है वह महिलाओं के सशक्तिकरण में गहरी रूचि रखती है यह मानना किसी के लिए भी बहुत मुश्किल होगा. भाजपा का खेल सिर्फ इतना है कि मुस्लिम कट्टरपंथी व्यक्ति और संगठन यूसीसी के विरोध में खड़े हो जाएं और इससे समाज का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और बढ़े और भाजपा की झोली में और वोट आएं. इस षड़यंत्र को असफल करने के लिए यह जरूरी है कि सभी राजनैतिक दल और सामाजिक संगठन यह मांग करें कि पहले यूसीसी का मसविदा तैयार किया जाए और उसके बाद ही वे यह तय करेंगे कि वे उसके खिलाफ हैं या समर्थन में. 

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
05/07/23
https://www.navjivanindia.com/opinion/bjps-game-on-uniform-civil-code-is-old-noise-before-every-election-but-no-draft-to-show-article-by-ram-puniyani

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હવે ‘ન બોલ્યામાં નવ ગુણ’ નથી, અવગુણ છે…

રવીન્દ્ર પારેખ|Opinion - Opinion|7 July 2023

રવીન્દ્ર પારેખ

આપણે ત્યાં બે કહેવત પ્રચલિત છે. ‘ન બોલ્યામાં નવ ગુણ’ ને ‘બોલે તેનાં બોર વેચાય’ ! બંને પોતપોતાની રીતે યોગ્ય છે, પણ આજના સમયમાં વિપરીત અસર કરનારી પણ છે. એક તરફ પ્રજા બોલતી જ નથી ને સહન કર્યે જાય છે, તો એક વર્ગ એવો છે જે નિરર્થક બોલ્યા કરે છે ને ગમે તેની ભાટાઇ પણ કરે છે. એક જમાનામાં દરબારમાં ભાટ-ચારણ રહેતાં જે ખરી ખોટી રાજભક્તિ કરીને પેટિયું રળી લેતા. એમને તો રાજ તરફથી સરપાવ મળતો હતો, પણ આજે એવા ઘણાં ઘેટાં છે, જે કૈં ન મળવાનું હોય તો પણ, એકની પાછળ એક ચાલ્યે રાખે છે. ઘણાંને તો એ પણ ખબર નથી કે પોતે ક્યાં જાય છે, પણ આગળ કોઈ ચાલે છે તો એ પણ ચાલે છે. કોઈ અંધને દેખતો કરવાનું શક્ય છે, પણ કોઈ દેખતાને દેખતો કરવાનું અઘરું છે, કારણ એણે અમુક જ જોવું છે ને અમુક તો જોવું જ નથી. એવો વર્ગ મોટો હોય છે, એટલે નુકસાન પણ વ્યાપક હોય છે. એમાંના ઘણાંને તો ખાસ કોઈ સ્વાર્થ પણ હોતો નથી, પણ એની સાથેવાળો ઢોલ વગાડે છે, તો એ પણ મંજીરાં ખખડાવવા લાગે છે. આવી ભક્તિથી પોતાને તો કોઈ નુકસાન નથીને તે જોવાનું રહે.

આજકાલ ચાલતી રાજરમતો પ્રજાહિતમાં ચાલે છે એવું લાગે છે? મહારાષ્ટ્રનો જ દાખલો લઇએ. ત્યાં છેલ્લી સરકારો અન્ય પક્ષના ટેકાથી જ ચાલી છે. શિવસેનાના ટુકડા થયા, એમ એન.સી.પી.ના પણ થયા. બાળ ઠાકરે એ પુત્ર મોહમાં બંધુ પ્રેમનો ભોગ લીધો ને રાજ ઠાકરેએ મ.ન.સે.ની સ્થાપના કરવી પડી. શિવસેનામાં પણ એકનાથ શિંદેએ મુખ્યમંત્રીપદું મેળવવા ભા.જ.પ.ની મદદ મેળવી ને ઉદ્ધવ ઠાકરેએ ઘર ભેગા થવું પડ્યું. હવે દેવેન્દ્ર ફડણવીસ મુખ્ય મંત્રી થાય કે તેનું કેન્દ્રીય મંત્રીમંડળમાં પાનું પડે એવી સ્થિતિમાં રાષ્ટ્રીય કાઁગ્રેસ પાર્ટી(એન.સી.પી.)માં ધડાકો થયો. પાર્ટી અધ્યક્ષ શરદ પવારને બાજુ પર મૂકીને ભત્રીજા અજિત પવારે પોત પ્રકાશ્યું અને પોતાનાં મળતિયાઓને લઈને નાયબ મુખ્યમંત્રીપદ મેળવી લીધું. એ કેટલું ટકશે તે તો સમય કહેશે, પણ અજિત પવારે તો મુખ્ય મંત્રી થવું છે, તેવી જાહેરાત બધી શરમ છોડીને કરી દીધી છે. ભા.જ.પે. તો વિપક્ષ જેવું કૈં રહેવા જ નથી દેવું એટલે એ પક્ષોને તોડે છે ને નથી તૂટતા તેમને માથે EDની તલવાર લટકતી રાખે છે. અજિત પવારને ભા.જ.પ.ની આભડછેટ નથી, એટલે અગાઉ પણ ભા.જ.પ.ને ખોળે બેસી આવ્યા છે. અત્યારે હાલત એ છે કે શરદ પવારને પક્ષ અને પ્રતીક બચાવવાનાં ફાંફાં છે. આ બન્યું એમાં શરદ પવારની સુપ્રિયા શૂલે પ્રત્યેની પુત્રીભક્તિ અને અજિત પવારની કાકા પ્રત્યેની બેવફાઇ કેન્દ્રમાં છે. બાળ ઠાકરેનો પુત્ર મોહ શિવસેનાને નડ્યો, એમ જ શરદ પવારનો પુત્રી મોહ એન.સી.પી.ને નડ્યો છે. શરદે ઉંમર થતાં પક્ષ પ્રમુખપદ છોડ્યું, પછી વળી પકડી પણ લીધું. એ વખતે અજિત પવારને પક્ષ પ્રમુખ થવાનું મળશે એવી ધારણા હતી, પણ તે ફળીભૂત થઈ નહીં, કારણ કાર્યકારી પ્રમુખપદ સુપ્રિયા શૂલે અને પ્રફુલ પટેલ પાસે ગયું, એટલે અજિત પાસે બળવો કરવા સિવાય કોઈ માર્ગ ન રહ્યો. એક વાત સ્પષ્ટ છે કે શરદ પવાર બહુ સ્વસ્થ અને પહોંચેલ માયા છે. એમણે જ એમના ગુરુ વસંતદાદા પાટિલની સરકાર ગબડાવેલી તે જાણનાર જાણે છે. કાકાનો દાવ કાકા પર જ અજમાવે એવો ભત્રીજો તો શરદને મળ્યો જ છે. એ દગો દે એનો આઘાત તો શરદ પવારને ય ન લાગે એટલા એ ઘડાયેલા છે. કાકા ચાલમાં ફસાયા છે કે ભત્રીજો ભોગ બન્યો છે એ પત્તાં તો સમય ખોલશે, પણ ચાલની ગંધ તો આવે જ છે. અજિત પવાર ભા.જ.પ.માં એકલા પડે અને તેમની સાથે ગયેલા સભ્યો પાછા ફરે એમ બને. એમ થાય તો અજિત પવાર ન ઘરનાં, ન ઘાટના રહે. ગયેલા સભ્યોને પવારે જ મોકલ્યા હોય તો નવાઈ નહીં. વહેમ તો એવો પણ પડે છે કે એન.સી.પી. જ ભા.જ.પ.માં ગોઠવાય તો આગામી ચૂંટણીમાં કેન્દ્રીય મંત્રીમંડળમાં પણ પાટલો પડે. એ સમય પર છોડીએ, પણ અજિત પવારનો ઘડો લાડવો આજે નહીં તો કાલે થાય એવી પૂરી શક્યતા છે. કાલ ઊઠીને અજિત પવાર મુખ્ય મંત્રી થાય તો પણ, તે ખાટી જાય એવું નથી. એમ તો એકનાથ શિંદે કેટલું ખાટ્યા છે તે ક્યાં કોઇથી અજાણ્યું છે? ભા.જ.પ. હોય ત્યાં સામેવાળો ખાટે એવું ઓછું જ બનવાનું.

ભા.જ.પ. તો મહારાષ્ટ્રવાળી બિહારમાં પણ કરવાની પેરવીમાં છે. બીજી તરફ મણિપુરની હિંસાએ કેન્દ્રની નિષ્કાળજીને પણ છતી કરી દીધી છે. વિપક્ષો એક તો થયા છે, પણ આ એકતા કેટલી ટકે તે પ્રશ્ન જ છે. ભા.જ.પ.ને મજબૂત કરવામાં વિપક્ષો વચ્ચેનો મનમુટાવ વધુ ભાગ ભજવે છે. 2024ની લોકસભાની ચૂંટણી પહેલાં, રાજકીય પક્ષોની સાઠમારી મહારાષ્ટ્રની જેમ વધતી જ રહેશે તો કેન્દ્રમાં ભા.જ.પ. સિવાય કોઇ વિકલ્પ જ નહીં રહે એમ બને.

આ બધાંમાં ક્યાં ય પ્રજાહિતની કોઈ વાત સંભળાય છે? કદાચ રાજકીય પક્ષોને એ યાદ પણ નથી આવતું કે તેઓ પ્રજાના મતથી સત્તા પર આવ્યા છે. પક્ષોને પ્રજા યાદ નથી આવતી તેમાં પ્રજા પણ વાંકમાં છે. રાજકારણ જવા દો, રોજ બ રોજની જિંદગીમાં તેની સાથે જે વ્યવહાર થાય છે તે અમાનવીય છે. એવે વખતે પણ પ્રજા ચૂપ રહે છે તે અક્ષમ્ય છે. મધ્ય પ્રદેશના ભા.જ.પ.નો એક કાર્યકર એક દલિત યુવક પર પેશાબ કરે છે. આ કોઈ પણ ખૂણેથી અધમ અને હીન કૃત્ય છે. તેનું પ્રાયશ્ચિત મધ્ય પ્રદેશના મુખ્ય મંત્રી દલિત યુવકના પગ ધોઈને કરે છે ને આરોપીની ધરપકડ કરી તેનાં ઘર પર બુલડોઝર ફેરવી દે છે. કમાલ તો એ છે કે બુલડોઝર આજકાલ ન્યાયતંત્રનું કામ કરે છે. ભા.જ.પ.ના એ આરોપીનાં ઘર પર બુલડોઝર ફરે તે પહેલાં તેની માતાએ વિનંતીઓ કરી કે આરોપીને સજા કરો, પણ ઘરને રહેવા દો, પણ બુલડોઝર ફરતાં, માતા તેનાં કોઈ વાંક વગર ઘર વગરની થઈ. અહીં પણ, જે વેઠે છે તે વેઠે જ છે.

‘ગબ્બર ઈઝ બેક’ નામની અક્ષયકુમારની એક ફિલ્મ આવેલી, જેમાં દર્દી મૃત્યુ પામે એ પછી પણ તેની સારવાર ચાલે છે ને તેનું અલગથી બિલ પણ આવે છે. ફિલ્મ જોયા પછી એવું થાય કે આ તો ફિલ્મ છે, પણ હિંમતનગરની એક હોસ્પિટલમાં એક બાળકી મૃત્યુ પામી તે પછી બાર કલાક તેની સારવાર ચાલી અને તેનું બિલ પણ આવ્યું. હવે એ નક્કી નથી થઈ શકતું કે ફિલ્મો જીવન પરથી બને છે કે જીવન ફિલ્મોથી દોરવાય છે. ઉત્તર પ્રદેશના રાયબરેલીમાં એક દર્દી પગના ઈલાજ માટે હોસ્પિટલમાં દાખલ થયો, તો ડોક્ટરોએ એનાં પેટનું ઓપરેશન કરીને ટાંકા લઈ લીધા. ડૉક્ટરોનું કહેવું છે કે દર્દીએ પોતે જ પેટમાં ચાકુ માર્યું હતું. એ દર્દી પાગલ જ કહેવાયને જે પોતાને જ ચાકુ મારી લે છે. કોરોનામાં એક બાજુ લોકો ભયભીત હતા ને સતત તાણ અને જોખમો વચ્ચે જીવતાં હતાં, ત્યારે પણ કેટલીક હોસ્પિટલોએ મૃતકોનાં અંગોનો વેપાર કરીને હોજરીઓ ભરી લીધી હતી. બને છે એવું કે સરકાર પૈસા તો ખર્ચે છે, પણ તેનો ગેરલાભ ઉઠાવવાનું ભાગ્યે જ કોઈ ચૂકે છે. આમ તો સરપ્રાઈઝ ચેકિંગ થાય છે, પણ તે રોજ થાય તો પણ ઘણાં છટકી જાય એમ બને. અહીં પણ લોકો સમાચાર જોઈ-વાંચીને ધંધે લાગે છે. એ તે રોટલા રળે કે લોકોનું રડવા બેસે? એવું નથી કે લોહી ઊકળતું નથી, પણ રોજ મરે તેનું કોણ રડે એ પણ છેને !

આ તો થઈ પારકાની વાત, પણ જે આપણને સીધી રીતે સ્પર્શે છે એ તરફ પણ નજર જવી જોઈએ. મોંઘવારી સાધારણ માણસને નથી નડતી? વર્ષમાં ટામેટાં કે લીંબુ કે કાંદા ભળતાં જ મોંઘા થાય છે. અત્યારે ટામેટાં કિલોના 160 સુધી ગયાં છે. તેલ, કઠોળ, અનાજ, કરિયાણું … આપણને જરૂરી નથી? એના ભાવ વધે ત્યારે પણ આપણે ‘ન બોલ્યામાં નવગુણ’ કરીએ છીએ તે બરાબર છે? એ પણ છે કે મોંઘવારી વધારવામાં આપણો ફાળો પણ ઓછો નથી. અગાઉ આટલો પીક પર ન હતો તે શોપિંગનો શોખ અત્યારે ઘણી રીતે વકર્યો છે. જરૂરી નહીં એનો ઢગલો કરીને વસ્તુનો ઉપાડ આપણે જ વધારીએ છીએ અને વસ્તુની અછત ઊભી થતાં વસ્તુ મોંઘી થાય તો કકળીએ છીએ. જ્યારે જી.એસ.ટી. લાગુ થયો, ત્યારે લોકોએ હોટેલમાં જવાનું ઓછું કરેલું. એની અસર થોડો વખત રહી, પછી લોકોએ પણ કમાણીની ખરીખોટી રીતો શોધી કાઢી ને હવે તો શનિ-રવિ લોકો ઘરમાં ભાગ્યે જ જમે છે. એક વર્ગ એવો છે જે સખત પરિશ્રમ કરીને રોટલા ભેગો થાય છે, બીજો એવો છે જે કરતો કૈં નથી, પણ ખર્ચવા માટે તેની પાસે પુષ્કળ પૈસા છે, એ પણ આડેધડ ખરીદી કરીને વસ્તુની અછત ઊભી કરે છે અને પરિણામ મોંઘવારી વધવામાં આવે છે.

જી.એસ.ટી.ને છ વર્ષ થયાં છે. તેનાં હરખમાં વડા પ્રધાન કહે છે કે તેણે સામાન્ય નાગરિકના સમગ્ર કરના બોજમાં ઘટાડો લાવી દીધો છે ને કર વસૂલાતમાં નોંધપાત્ર વધારો થયો છે. અહીં મૂંઝવણ એ છે કે કર બોજ ઘટ્યો હોય તો કર વસૂલાતમાં વધારો થાય કઇ રીતે? આટલી કર વસૂલાત છતાં 2023માં ભારત પર દેવું 155 લાખ કરોડ બોલે છે. દેશના 14 વડા પ્રધાનોએ 67 વર્ષમાં 55 લાખ કરોડનું દેવુ કર્યું ને છેલ્લાં 9 વર્ષમાં તે બીજું 100 કરોડ વધીને 155 લાખ કરોડ થયું છે. આવતાં માર્ચ સુધીમાં તે 172 લાખ કરોડ થઈ શકે છે. નવ વર્ષમાં દેવું 181 ટકા વધે એ વિકાસ નથી તો શું છે? આ બધું જ પ્રજા તરીકે આપણને સ્પર્શે છે, પણ રેઇનકોટ પરથી પાણી સરે એમ બધું સરી જવા દઇએ છીએ, કાળઝાળ ગરમી પડે ત્યારે રેઈનકોટ કામ નથી લાગતો ને શેકાવાનું તો થાય જ છે. પ્રજા તરીકે આપણી સ્થિતપ્રજ્ઞતાની કસોટીનો આ કાળ છે. જોઈએ, ન બોલ્યામાં નવ ગુણ ચાલે છે કે બોલીને ‘નવ’ ગુણનો મહિમા થાય છે …

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e.mail : ravindra21111946@gmail.com
પ્રગટ : ‘આજકાલ’ નામક લેખકની કટાર, “ધબકાર”, 07 જુલાઈ 2023

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किसी कृष्ण या किसी व्याघ्र के इंतजार में हम 

कुमार प्रशांत|Opinion - Opinion|6 July 2023

कुमार प्रशांत

शरद पवार के हाथ से तोते उड़ गए हैं; उनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भूलुंठित पड़ी है; कभी उनके पंख पर सवारी करने वाले उनके तोते पर कटे परिंदों से न उड़ पा रहे हैं, न रेंग पा रहे हैं; प्रधानमंत्री मोदी व उनकी पार्टी न अपना चेहरा छुपा पा रही है, न दिखा पा रही है; जिन्हें सांप सूंघ गया है वे हैं कांग्रेस व शिव सेना के नेतागण ! दिखाने को सभी अपनी-अपनी तलवारें भांजने का प्रहसन कर रहे हैं हालांकि सभी जानते हैं कि गत्तों की इन तलवारों में न धार है, न बल !

महाराष्ट्र की सरकार के पास सर तो है ही नहीं, कंधों पर धरा है खोखले उप-मुख्यमंत्रियों का बोझ ! उसका दम घुट रहा है. शिंदे-फड़णवीस-अजित आदि आज कार पर भले चल रहे हों, हम भी जानते हैं और वे भी कि हैं वे सब एकदम बे-कार ! ऐसा अर्थहीन हास्य-नाटक किसने लिखा ? यह इस कदर भद्दा व पतित प्रसंग है कि जिस पर न कोई किसी को बधाई दे रहा है,न संदेश, न टिप्पणी. सब आंखें बचा रहे हैं ताकि कोई किसी को कुछ कहता या करता देख न ले !

ऐसे में लोग मुझसे पूछ रहे हैं- सीधे भी और घुमा-फिरा कर भी कि महाराष्ट्र में जो कुछ, जिस तरह, जिनके द्वारा हुआ उस पर आपका क्या कहना है; याकि आप इसे कैसे देखते हैं ? मैं चुप रह जाता हूं, टाल देता हूं.  लेकिन ऐसा आप तभी तक कर पाते हैं जब तक सवाल पूछने वाला कोई दूसरा हो; जब सवाल अपने भीतर से उठ रहा हो तब न चुप्पी काम आती है, न टाल-मटोल !

इसलिए मैं यह लिख रहा हूं. और शुरू में ही, जयप्रकाश नारायण ने 1974 के जनांदोलन की तैयारी के दौरान, 1970-72 से जो सवाल देश से पूछना शुरू किया था, वही सवाल मैं आपसे पूछ ले रहा हूं : क्या नैतिक ताने-बाने के बिना कोई देश अपना अस्तित्व बचा सकता है ? आप महाराष्ट्र व राष्ट्र में, सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों का हर कहीं  जैसा पतनशील व्यवहार और बेशर्म तेवर देख रहे हैं, वह दूसरा कुछ नहीं, नैतिक ताने-बाने के बिखर जाने का परिणाम है. यह राजनीति नहीं है. राजनीति का एकदम शाब्दिक मतलब भी लें हम तो वह है राज चलाने की नीति ! यहां जो हो रहा है उसमें कोई नीति नहीं है; और इसलिए दूसरा कुछ भी चल रहा हो, राज नहीं चल रहा है.

यह क्या हुआ व कैसे हुआ ? यह कैसे हुआ कि कभी लंबे समय तक महाराष्ट्र के शक्तिशाली मुख्यमंत्री रह चुके युवा देवेंद्र फडणवीस खुले आम यह कह लेते हैं कि राजनीति में आदर्शवाद वगैरह ठीक है लेकिन असली सच तो यह है कि आप सत्ता से निकले तो कोई पूछने वाला भी नहीं होता है. मतलब, असली सच तो सत्ता है बाकी खोखली बातें हैं. कैसे होता है ऐसा कि प्रधानमंत्री जैसी खास कुर्सी पर बैठा कोई आदमी आज देश के भ्रष्टाचारियों की सूची की सार्वजनिक घोषणा करता है और कल उन सभी भ्रष्टाचारियों को अपनी सरकार में कुर्सी पर बिठा लेता है ? मतलब, वह दिखाना चाहता है कि सत्ता की कुर्सियां सच तो छोड़िए, मर्यादा से भी कोई सरोकार नहीं रखती हैं. जो कुछ है सब जुमलेबाजी है ! नरेंद्र, देवेंद्र,पवार,ममता, राहुल, केजरीवाल आदि सब एक ही खेल खेल रहे हैं जिसका कोई अंपायर नहीं है, कोई कायदा नहीं है.

रातोरात मुंबई की सड़कों पर उन सबको बधाई देने वाले बड़े-बड़े, सचित्र पोस्टर सार्वजनिक स्थानों पर लग गए जिन्होंने शरद पवार का दामन छोड़ कर मोदी का दामन थाम लिया है. इससे ही खुलासा हुआ कि यह सब रातोरात नहीं हुआ बल्कि कई रातों में हुआ; कि यह सब ‘खुद छपवाया- खुद चिपकाया’ वाली उसी शैली में हुआ जिसका किस्सा सलीम-जावेद के जावेद ने सुनाया था कि कैसे फिल्मी दुनिया में अपना सिक्का जमाने के लिए उन दोनों ने अपना नाम फिल्मी पोस्टरों पर ठेका दे कर चिपकवाया था. लेकिन अजीत पवार से यह पूछा ही जाना चाहिए कि सार्वजनिक स्थानों पर ऐसे पोस्टर लगाने की अनुमति आपने किससे ली, किसने दी और उसका किराया किसने भरा; भरा कि नहीं भरा कि यह सब आप सबकी काली करतूतों में ढक गया ?

लेकिन असली जवाब तो उन इंदिरा गांधियों- शरद पवारों-अडवाणियों-मोदियों-शाहों को देना चाहिेए जिन्होंने मूल्यविहीन राजनीति को चलाने-चमकाने में सबसे बड़ी भूमिका अदा की है. किसी भी रास्ते सत्ता तक पहुंचना और किसी भी छल-क्षद्म से वहां बने रहना, राजनीति के नये खिलाड़ियों को यह ककहरा इन सबने मिल कर सिखाया है. जब इसकी पाठशाला खोली जा रही थी तब इसे गहरी चाल या मास्टर स्ट्रोक कहने वाले राजनीतिक पंडितों व विश्लेषकों की कमी नहीं थी. इस पाठशाला में पढ़-पढ़ा कर राजनेताओं की जो नई खेप सामने आई है और आ रही है वह मूल्यों को गंदे कपड़ों की तरह देखती है, जुमलों से अधिक उसकी कोई कीमत नहीं करती है तो आश्चर्य कैसा या दुख क्या मनाना ! उन्हें तो खुश होना चाहिए कि ये सब आधुनिक अर्जुन तैयार हुए हैं जिन्हें कुर्सी चिड़िया की आंख दिखाई देती है.

सत्ता ही एकमात्र लक्ष्य है, कोई राजनेता ऐसा कहे तो मेरे जैसा आदमी उसे आसानी से समझ सकता है. खेल क्रिकेट का हो कि कबड्डी का कि सत्ता का, जीतना उसका लक्ष्य होता है. इसमें कोई दोष भी नहीं है. हार हमेशा मुंह में एक कसैला-सा स्वाद छोड़ जाती है. फिर भी हर खेल में कोई जीतता तो कोई हारता तो है ही. लेकिन खेल तभी तक खेल है जब तक वह नियम से खेला जाता है, जब तक वह अंपायर की ऊंगली या सिटी पर चलता है. खिलाड़ी कितना भी बड़ा हो- मैसी हो कि कोहली कि फेडरर कि धोनी- न वह खेल से बड़ा होता है, न अंपायर की ऊंगली से ऊंचा होता है.

महात्मा गांधी ने दूसरा कुछ किया या नहीं लेकिन इतना तो किया ही कि अपने अस्तित्व की पूरी ताकत लगा कर राजनीति में, मानवीय व्यवहार में ( उनके लिए ये दोनों एक ही थे ! ) कुछ ऐसे मूल्यों की जगह बनाई जिनके लिए जान भी दी जा सकती है. कई लक्ष्मण-रेखाएं ऐसी खींचीं कि जिसे कोई पार न करे. कोई अभद्र काम या व्यवहार करे तो अंग्रेजी में एक मुहावरा ही बन गया है : इट्स नॉट क्रिकेट ! भारतीय संदर्भ में गांधी वैसा ही मुहावरा बन गए हैं : कोई गर्हित करे या कहे तो कहते हैं : यह गांधी का तरीका नहीं है ! जब गांधी थे तब भी उन वर्जनाओं को तोड़ने की कोशिशें होती थीं लेकिन गांधी का होना ही उसकी सबसे बड़ी वर्जना बना रहता था.

गांधी के बाद  भी जवाहरलाल, सरदार,राजेन बाबू, नरेंद्र देव, लोहिया आदि ने राजनीति में तो विनोबा, काका कालेलकर, जयप्रकाश नारायण सरीखे लोगों ने सार्वजनिक जीवन में मूल्यों की जड़ें सींचने का काम किया. हमने जो संविधान बनाया व लागू किया वह भी ऐसे मूल्यों की बात करता है. इसलिए गांधी को राजघाट से निकलने न देने की सामूहिक योजना बनी, तो बिना पढ़े-समझे संविधान की शपथ लेने से अधिक संविधान नाम की किताब का कोई मतलब नहीं है, ऐसा हमने अपनी राजनीति की नई पौध को समझाया. अब वह आपको आपकी ही पढ़ाई-सिखाई भाषा में जवाब दे रही है तो आप हैरान क्यों होते हैं ? यह वह भस्मासुर है जो गुरू के सर पर ही विनाश का अपना हाथ धरने को उद्धत है.

मूल्य दोधारी तलवार होते हैं. उन पर चलो तो धार लगती है, नहीं चलो तो विनाश होता है. भगवान कृष्ण इन दोनों पीड़ाओं से गुजरे थे. व्याघ्र के वाण ने उन्हें उससे छुटकारा दिलाया था. भारतीय समाज व राजनीतिक व्यवस्था उसी दौर से गुजर रही है. उसे किसी कृष्ण या किसी व्याघ्र का इंतजार है.

(06.07.2023)    

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