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यह जो हमारी संसद है !

कुमार प्रशांत|Opinion - Cartoon, Opinion - Opinion|1 July 2024

कुमार प्रशांत

हमारी नई लोकसभा अभी बनी ही है लेकिन चल नहीं पा रही है. चल पाएगी, इसमें शक है. चल कर भी क्या कर पाएगी, कह नहीं सकते. कहावत बहुत पुरानी है जो हर अनुभव के साथ नई होती रहती है कि “पूत के पांव पालने में ही दीख जाते हैं.” जो पांव दीख रहा है, वह शुभ नहीं है. यदि मैं भूलता नहीं हूं तो कवि विजयदेव नारायण साही ने इस कहावत में एक दूसरी मार्मिक पंक्ति जोड़ दी थी : “पूत के पांव पालने में मत देखो/ वह पिता के फटे जूते पहनने आया है.” इस लोकसभा के बारे में यही पंक्ति बार-बार मन में गूंज रही है. 

जिस पार्टी ने, जिन पार्टियों के साथ जोड़ बिठा कर सरकार बनाई है, उन सबको मालूम है कि यह वक्ती व्यवस्था है. कौन, पहले, किसे और कब लंगड़ी मारता है, इसी पर इस लोकसभा का भविष्य टिका है; और यह तो सारे संविधानतज्ञ जानते हैं कि लोकसभा के भविष्य पर ही सांसद नाम के निरीह प्राणियों का भविष्य टिका होता है. निरीह इसलिए कह रहा हूं कि पिछले कम-से-कम 10 सालों से हमारे सांसदों का एक ही काम रहा है, जिसे वे बड़ी शिद्दत से निभाते हैं : सरकार ही दी हुई सामने की मेज बजाना या भगवान की दी हुई हथेलियों से तालियां बजाना. प्रधानमंत्री जब, जहां कहें, वे अपना काम ईमानदारी से करते हैं. विपक्ष भी ऐसा ही करता है. फर्क है तो बस इतना कि उसके पास कोई प्रधानमंत्री नहीं होता है. इस बार उसके पास एक ‘छाया प्रधानमंत्री’ जरूर है जिसकी छाया कब तक, कहां तक रहती है, देखना बाकी है. हम दुआ करते हैं कि अंग्रेजी के ‘शैडो प्राइमिनिस्टर’ का मक्खीमार अनुवाद भले उसे ‘छाया प्रधानमंत्री’ कहे, नेता प्रतिपक्ष कभी इस प्रधानमंत्री की छाया न बनें. न उनकी छाया में रहें, न उनको छाया दें. 

लोकसभा के अध्यक्ष का चुनाव हुआ ही नहीं, संख्या बल से उसे लोकसभा पर थोप दिया गया. विपक्ष ने अपनी तरफ से भी एक उम्मीदवार का नाम आगे बढ़ाया जरूर था जिसे ऐन वक्त पर पीछे  खींच लिया गया. जब ऐसा ही करना था तब उसकी घोषणा करने की जरूरत ही क्या थी ? कांग्रेस ने बाद में तर्क दिया कि हम सहयोग व सद्भावना का माहौल बनाना चाहते थे, इसलिए चुनाव टाल गए. भाई, जो आपके बीच कहीं है ही नहीं, वह आप बनाना ही क्यों चाहते थे; और जो है ही नहीं, वही बनाना था तो अपना उम्मीदवार आगे ही क्यों करना था ? प्रतिबद्धताविहीन ऐसे निर्णय दूसरों को मजबूत बनाते हैं और आपकी किरकिरी करवाते हैं. 

ओम बिरला को दोबारा लोकसभा का अध्यक्ष बनाने के पीछे प्रधानमंत्री का एक ही मकसद था, व है : विपक्ष को अंतिम हद तक अपमानित करना ! बिरला कभी इस पद के योग्य नहीं थे; आज भी नहीं हैं. विद्वता, कार्यकुशलता, व्यवहार कुशलता, वाकपटुता तथा सदन में गरिमामय माहौल बनाए रखने जैसे किसी भी गुण से उनका नाता नहीं रहा है, यह हमने पिछले पांच सालों में देखा है. पता नहीं विपक्ष ने उनका इतना स्वागत व गुणगान क्यों किया ! वह सब जो किया गया वह बहुत खोखला था और जो खोखला होता है वह जल्दी ही टूट व बिखर जाता है. वही अब हो रहा है. 

बिरलाजी का यह गुण जरूर हम जानते हैं कि वे प्रधानमंत्री की धुन पर सतत नाचते रह सकते हैं. लेकिन यह गुण तो सारे सरकारी सांसदों में है. आप ‘प्रसाद’ से ‘त्रिवेदी’ तक किसी की भी परीक्षा ले कर देख सकते हैं. लेकिन अोम बिरला ने पिछली संसद में जिस तरह विपक्ष को तिरस्कृत व अपमानित किया था, उसे ही दोहराने के लिए इस बार भी उन्हें ही प्रधानमंत्री ने आगे किया है ताकि विपक्ष व देश समझे कि कहीं, कुछ भी बदला नहीं है. इसलिए नई लोकसभा के पहले ही दिन वे अपने पुराने अवतार में दिखाई दिए. जिस असभ्यता से उन्होंने दीपेंद्र हुड्डा को अपमानित किया; शशि थरूर के ‘जय संविधान’ कहने से तिलमिलाए, विपक्ष के सांसदों को कब उठना-कब बैठना सिखाने की फब्ती कसी वह सब यह समझने के लिए पर्याप्त है कि उन्हें क्या करने का निर्देश हुआ है. 

राहुल गांधी ने जब यह कहा कि उनका माइक बंद क्यों किया गया है, तो अध्यक्ष का जवाब आया कि मैंने पहले भी यह व्यवस्था दी है, और आपको फिर से कहता हूं कि मेरे पास माइक का कोई बटन नहीं है. अध्यक्ष का बटन कहां है, यह तो सभी जानते हैं  लेकिन अभी जवाब तो यह आना था न कि माइक बंद कैसे हुआ और किसने किया ?  क्या अध्यक्ष की जानकारी व अनुमति के बगैर ही कोई, कहीं से बैठ कर लोकसभा की काररवाई में दखल दे रहा है ? लोकसभा न हुई, ईवीएम मशीन हो गई ! अगर ऐसा है तो अध्यक्ष चाहिए ही क्यों ? जो अनदेखा- अनजाना आदमी बटन बंद कर सकता है, वही लोकसभा चला भी सकता है. इंडिया गठबंधन को तब तक न लोकसभा जाना चाहिए, न राज्यसभा जब तक कि यह बता न दिया जाए कि माइक बंद किसने किया था, किसकी अनुमति या निर्देश से किया था ? और यह भी व्यवस्था बना दी जाए कि सांसदों को बोलने से रोका तो जा सकता है, माइक बंद नहीं किया जा सकता है. यह सांसदों का अपमान व तिरस्कार है जिसे किसी भी हाल में परंपरा में बदलने नहीं देना चाहिए. 

परंपरा की बात है तो यह समझना जरूरी है कि विपक्ष के नेता की भी परंपराएं हैं.  इस अध्यक्ष को न वे परंपराएं पता हैं, न विपक्ष के नेता का मतलब इसे मालूम है. जिस सांसदों का जन्म ही 10 साल पहले हुआ है, उनकी यह त्रासदी स्वाभाविक है. उनकी तो आंखें जब से खुली हैं तब से उन्होंने यही देखा-जाना है कि लोकसभा का मतलब एक ही आदमी होता है. भाई, यह एकदम सच नहीं है. जैसे यह परंपरा है कि अध्यक्ष जब खड़ा हो जाए तो सभी सांसदों को बैठ जाना चाहिए; प्रधानमंत्री जब बोल रहा हो तब सांसदों को शांति से उसे सुनना चाहिए; वैसी ही परंपरा यह भी है कि विपक्ष का नेता जब बोल रहा हो तब उसे अध्यक्ष द्वारा बार-बार टोकना, बार-बार समय का भान कराना, क्या बोलें, क्या न बोलें आदि का निर्देश देना गलत है, अशिष्टता है, लोकतांत्रिक परंपरा का उल्लंघन है. आखिर परंपराएं बनती कैसे हैं और उन्हें ताकत कहां से मिलती है ? परंपराएं कानूनी प्रावधानों से भी अधिक मान्य क्यों होती हैं ? सिर्फ इसलिए कि कोई भी उन्हें तोड़ता नहीं है. संविधान प्रदत्त शक्तिवान भी उनका शालीनता से पालन कर, उसे और अधिक मजबूत व काम्य बनाते हैं. राष्ट्रगान चल रहा हो तब राष्ट्रपति के सामने से धड़फड़ाते हुए निकल कर अपनी कुर्सी पकड़ने वाला लोकसभा अध्यक्ष हो कि राष्ट्रपति प्रवेश करें तब भी अपनी कुर्सी पर बैठा रहने वाला प्रधानमंत्री हो, ये सब परंपराओं को ठेस पहुंचाती हैं. निश्चित अवधि में समय निकाल कर प्रधानमंत्री का राष्ट्रपति से मिलना व उन्हें देश-दुनिया के बारे में सरकारी रवैये की जानकारी देना भी एक स्वस्थ परंपरा है जिसका पालन सिरे से बंद है. वैसे यह बात भी अपनी जगह है ही कि राष्ट्रपति जब व्यक्तित्वहीन कठपुतली की भूमिका से संतुष्ट कुर्सी पर बैठा हो तब ऐसी परंपरा कोई निभाए भी क्यों ?   

यह लंगड़ी व पतनशील गठबंधनों की संसद है जो जब तक रहेगी, राष्ट्र व लोकतंत्र को शर्मसार करती रहेगी. विपक्ष के नेता व संपूर्ण विपक्ष को लगातार यह दबाव बनाए रखना चाहिए कि यह संसद सुधरे या टूटे !  

अंधभक्त अपनी फिक्र आप करें लेकिन हम-आप तो सोचें कि ऐसा क्यों है कि सत्तापक्ष के सारे शब्द इतने खोखले लगते हैं ? शिक्षामंत्री ठीक ही तो कह रहे थे कि ‘नीट’ के बारे में हम विपक्ष के सारे सवालों का जवाब देने को तैयार हैं. वे कह तो रहे थे लेकिन उनके हाव-भाव व तेवर यह कहते सुनाई यह दे रहे थे कि कर लो जो करना हो, हम कोई चर्चा नहीं करेंगे. ऐसा इसलिए था कि इसी मंत्री ने, इसी ‘नीट’ के बारे में लगातार यही कहा था कि न कोई लीक हुआ है, न कोई घोटाला हुआ है, सब विपक्ष का कराया हुआ है. “न कोई घुसा था, न कोई घुसा है”, वाला प्रधानमंत्री का बयान इसी तरह चीन में कुछ दूसरा ही सुनाई दिया, और वे हमारी सीमा के भीतर ज्यादा खुल कर अपना काम करने लगे. यह वह संसद है जिसके शब्दों का कोई मोल ही नहीं रह गया है. शेरो-शायरी भी हो रही है, कहावतें भी दोहराई जा रही हैं, प्रधानमंत्री बड़े-बड़े विचारकों-दार्शनिकों के उद्धरण भी ला-ला कर पढ़ते हैं लेकिन सब-के-सब इतने प्रभावहीन क्यों हो जाते हैं ? इसलिए कि उनके पीछे विश्वसनीयता का बल नहीं है. आस्थाहीन प्रवचन आत्माहीन कंकाल की तरह होता है. 

राहुल गांधी चाहें न चाहें, वे कसौटी पर हैं. कभी रहा होगा लेकिन आज नेता विपक्ष शोभा का पद नहीं है. अाज यह पद विकल्प खड़ा करने की चुनौती का पद है. विपक्ष को वक्त की सीधी चुनौती यह है कि क्या पंडित जवाहरलाल के दौर वाली संसद वापस लाने की कूवत उसमें है ? नेहरू वाली संसद इसलिए कह रहा हूं कि हमने वहीं से अपना सफर शुरू किया था और लगातार फिसलते हुए यहां आ पहुंचे हैं. तो कैसे कहूं कि उस दौर से भी बेहतर संसद बनानी चाहिए ! पहले  वहां तक तो पहुंचो, जहां से गिरे थे; फिर उससे ऊपर उठने की बात करेंगे.  

राहुल गांधी व इंडिया गठबंधन ने संविधान की किताब दिखा-दिखा कर प्रधानमंत्री को जिस तरह चुनाव में पीटा, उसकी काट उन्होंने यह निकाली कि लोकसभा अध्यक्ष को मोहरा बना कर आपातकाल की निंदा का प्रस्ताव पारित करवाया. यह उस घटिया विज्ञापन की तरह था कि “ उसकी कमीज मुझसे सफेद कैसे ?” लेकिन मैं समझ नहीं पाया कि कांग्रेस को इससे बौखलाने की क्या जरूरत थी ? कोई 50 साल पहले हुई चूक, जिसे इंदिरा गांधी ने, कांग्रेस अध्यक्ष ने कई बार सार्वजनिक रूप स्वीकार किया है, उसे ले कर कांग्रेस अब क्यों बिलबिलाती है ? वह इतिहास की बात हो गई. उसके बाद से कांग्रेस ने संविधान से वैसा कोई खेल खेलने की कोशिश तो की नहीं है. यह भी याद रखना चाहिए कि जनता पार्टी की अल्पजीवी सरकार ने 1977 में ऐसी संवैधानिक व्यवस्था खड़ी भी कर दी है कि किसी सरकार के लिए आपातकाल लगाना असंभव-सा है. फिर आपातकाल का जिक्र आने पर इतना मुंह छिपाने की जरूरत नहीं है. एक गलती हुई जिससे हम दूर निकल आए हैं, कांग्रेस यह क्यों नहीं कहती है ? 

इतिहास का जवाब देना हो तो संघ परिवार को देना है कि जिस संविधान में इसकी कभी आस्था नहीं रही, जिस तिरंगे को इसने कभी स्वीकार नहीं किया, जिस राष्ट्रगान को इसने कभी माना नहीं, जिस राष्ट्रपिता को इसने कभी मान नहीं दिया, जिस भारतीय समाज की संरचना को यह हमेशा तोड़ने में लगी रही, उसी की आड़ में यह सत्ता में आ कर बैठी है, तो इसमें कैसी नैतिकता व ईमानदारी है ? कांग्रेस की तरह यह सरकार नहीं कह सकती है कि 50 साल पहले हमारे तब के नेतृत्व से एक चूक हुई थी. यह तो आज भी उसी सावरकरी एजेंडा को मानती है, और उसी को लागू करने का मौका ढूंढ़ती रहती है. इस कठघरे में विपक्ष सरकार को खड़ा कर सकेगा तभी अपनी भूमिका निभा सकेगा. 

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બે કવિતા 

અનિલ દવે ("અનુ")|Opinion - Opinion|1 July 2024

.1.

માણસનો પક્ષી પ્રેમ પક્ષપાત ભર્યો છે!

કાગડો અને કાબરને જોઈને,

મોઢું બગાડીને ..,

હાટ્! બોલીને ઉડાડી મુકશે!

એ બેઉને તો, 

બાપે માર્યા વેર છે,

લે, આજે બપોરે,

બેઉ બહાર ગેલેરીમાં,

એંઠવાડ ખાવા,

પડાપડી કરતાં,

ભુરાંટા થઈને,

આવીને લડ્યા,

એમાં કાબરબે’ન,

રોટલીનો,

મોટો ટુકડો લઈને,

છુમંતર થવામાં,

સફળ થયા અને,

પછી તો,

ભાઈ કાગડાભાઈએ,

.કા..કા..કરીને,

ગેલેરી ગજવી મુકી..!!!

.2.

રસ્તા પર ભીડ,

જ્યાં જુઓ,

ત્યાં,

માણસો જોઈને

એમ થાય,

ઓહો..હો..,

માણસોનું,

કિડિયારું,

ઉભરાયું છે ને કંઈ..!

કિડિયારામાં,

જાણીતો ચહેરો,

ક્યારેક તો મળશે,

એવી આશા,

નઠારી સાબિત, 

થાય ત્યારે,

ભીડભાડમાંથી, 

ભાગી છૂટવાનું,

મન થાય છે,

કારણ કે,

આખા જગતમાં,

આપણું,

પોતીકું કોઈ નથી..!!!

e.mail : addave68@gmail.com

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કમાતી દીકરી છૂટતી નથી ને બેકાર દીકરો છોડતો નથી … 

રવીન્દ્ર પારેખ|Opinion - Opinion|1 July 2024

રવીન્દ્ર પારેખ

જેને આપણે ઘર કહીએ છીએ તે ઘણાં રહસ્યો સાચવીને બેઠું હોય છે. અંદર બધું વિખરાઈને પડ્યું હોય, પણ બહારથી તે રૂપકડું લાગતું હોય એમ બને. એ જ રીતે ઘર વેરવિખેર દેખાતું હોય ને અંદરથી સ્વસ્થ હોય એવું પણ બને. ઘર માબાપ બનાવે છે, પોતાને માટે ને સંતાનો માટે. દીકરા માટે વધુ વહાલ ને દીકરી માટે ઓછું, એવું એક તબક્કે હતું, તે સકારણ પણ હતું. તે સમયમાં દીકરી પારકી થાપણ કે સાપનો ભારો ગણાતી હતી ને તેને તેનાં ભાવિ પતિને માટે ઉછેરવામાં માબાપનું મન કચવાતું હતું, પણ આજે તો ભાગ્યે જ કોઈ માબાપને તે વધારાની હશે, જ્યારે દીકરો તો પહેલેથી જ સાત ખોટનો રહ્યો છે. તેનું મહત્ત્વ આજે ય એટલું જ છે. દીકરી એટલે વિદાય અને દીકરો એટલે સહાય – એ આજે પણ ઠીક ઠીક હદે ઘણાં કુટુંબોમાં સ્વીકારાતું આવ્યું છે. આમ તો દીકરો અને દીકરી બંને કુટુંબના વિસ્તાર માટે જરૂરી મનાયાં છે, પણ એક તબક્કો એવો ગયો જેમાં દીકરો વધુ મહત્ત્વ પામ્યો, આજે એ પરિસ્થિતિમાં ઘણો સુધારો આવ્યો છે. દીકરો પ્રથમ નંબરે હોય તો દીકરી પણ હવે પાછળ નથી. દીકરી જન્મ આજે આનંદનો અવસર બન્યો છે. ઘણાં કુટુંબમાં તેનાં શિક્ષણની, ઉછેરની જવાબદારી હવે સહજ રીતે ઉપાડાય છે. દીકરા-દીકરીનાં ઉછેરમાં હવે ભેદ લગભગ નથી. બંનેને સમાન તકો હવે અપાય છે.

આમ થવાનું પણ કારણ છે. મોટે ભાગે દીકરાઓ વધુ કમાવા માટે દેશ-વિદેશ ખેડતા થયા છે. કદાચ વધુ કમાણીની લાલચે, માબાપે જ દીકરાને વિદેશ ધકેલ્યો છે ને તે પછી વિદેશ જ વસી ગયો છે અને માબાપ છેવટ સુધી તેની વાટ જોવામાં આયખું ખુટાડતાં રહે છે. એવે વખતે પરણીને બહાર વસી હોય તો પણ, માબાપની અંતિમ અવસ્થાને દીકરી જ સાચવવા મથતી હોય છે. માબાપને પણ મોડું મોડું ભાન થાય છે કે જે દીકરીને બહુ ગણકારી ન હતી એ જ તેમને ગણકારતી થઈ છે. પોતાનાં માબાપની અવદશા જોઈ ચૂકેલાં આજનાં માબાપ એ સમજી ચૂક્યા છે કે દીકરી સાપ નથી ને ભારો તો નથી જ ! સમય બદલાતા માબાપ પણ બદલાયાં છે ને દીકરીને ભણાવી-ગણાવીને તૈયાર કરતાં થયાં છે. આજે તો ઘણી દીકરીઓ ઉચ્ચ હોદ્દા સંભાળતી, સી.ઇ.ઓ. કે વડા પ્રધાન કે રાષ્ટ્રપતિપદ પણ શોભાવતી થઈ છે ને બીજી તરફ દીકરા, ઠીકરા થયાના ઉદાહરણો શોધવા દૂર જવું પડે એમ નથી. દીકરો વિદેશ ગયો હોય ને માબાપનું ધ્યાન ન રાખી શકે એ તો સમજાય, પણ તે એક જ શહેરમાં હોય ને માબાપની અવગણના કરતો હોય એવા કિસ્સાઓ પણ ઓછા નથી. ઘણી વાર તો દીકરાના જન્મ પછી દીકરીને જન્મવા જ ન દીધી હોય એવું બન્યું છે ને એવાં માબાપને ન તો દીકરો કે કોઈ સંબંધી જોઈ શક્યા હોય ને છેલ્લે કરુણ રીતે ગુજરી ગયાં હોય એવું પણ બન્યું છે.

હવેના માબાપ કુટુંબનો વિસ્તાર નથી ઇચ્છતા. પહેલું સંતાન દીકરી હોય તો દીકરાની ઈચ્છા નથી પણ કરતાં. દીકરીને જ એવી રીતે ઉછેરે છે કે દીકરો ન હોવાની ખોટ ન લાગે, પણ એવી દીકરીઓ બે પ્રકારે કુટુંબમાં વર્ચસ્વ ભોગવે છે. દીકરી એટલી સક્ષમ હોય છે કે તેને લગ્નની જરૂર જ નથી લાગતી. એવી દીકરીને માબાપ પરણાવવા ઉત્સુક હોય છે, પણ દીકરી લગ્ન માટે તૈયાર જ નથી થતી. તેનાં મનમાં એવી ચિંતા પણ હોય છે કે લગ્ન પછી સાસરે ગઈ તો માબાપ એકલાં પડશે ને તેમને જોવાવાળું કોઈ નહીં હોય. કદાચને દીકરી લગ્ન માટે રાજી થઈ તો તે ભાવિ પતિ પાસે એવી શરત મૂકે છે કે લગ્ન પછી પોતાનાં માબાપ પણ સાથે જ રહેશે. જો કુટુંબમાં દીકરો હોય તો દીકરી એવો આગ્રહ નથી રાખતી, પણ કુટુંબનું તે એકલું જ સંતાન હોય તો લગ્ન પછી માબાપ સાથે જ રહેશે એવી શરત દીકરી મૂકે છે ને કોઈ એ શરત મંજૂર ન રાખે તો તે મુરતિયો જતો પણ કરે છે. દીકરી માબાપ માટે આટલું કરતી હોય, તો માબાપ માટે તે પણ પછી સર્વસ્વ બની રહે એમાં નવાઈ નથી.

આ તો થઈ એકની એક જ દીકરી કુટુંબમાં હોય તેની વાત, પણ કુટુંબમાં દીકરો મોટો હોય ને તે પછી એક કે બે દીકરીઓ હોય તો કુટુંબ કથા જુદી પણ હોય છે. દીકરો પરણીને જુદો રહેવા ચાલી ગયો હોય ને તે પછીની મોટી દીકરી સારી નોકરી કરતી હોય તો માબાપ નાની દીકરી કે દીકરીઓને પરણાવી દે છે, પણ મોટી દીકરીને પરણાવતાં નથી. એવું નથી કે મોટી માટે માંગા આવતાં નથી કે એવું પણ નથી કે દીકરી લગ્ન કરવા માંગતી નથી, પણ ગરીબ માબાપ ઊંડે ઊંડે એવું ઈચ્છતાં હોય છે કે મોટી ન પરણે તો સારું. ઘણીવાર તો માંગું બહારથી જ માબાપ નકારી દે એવું પણ બને છે. ક્યાંક તો એવું ય બને છે કે મોટો ભાઈ ઘરમાં જ હોય, પણ સાવ ફટોર કે બેકાર હોય ને માબાપનાં જ રોટલા તોડતો આવારાગર્દી કરીને બોજ વધારતો હોય ને દીકરીને પૈસે ઘર ચાલતું હોય, ત્યારે પણ માબાપ એવું ઇચ્છતાં હોય છે કે દીકરી લગ્ન માટે ઉત્સુક ન હોય અથવા લગ્ન માટે દીકરી એકાએક રાજી ન થઈ જાય એવું ઊંડે ઊંડે ઈચ્છતાં હોય છે. ક્યારેક દીકરી ઓચિંતો જ ધડાકો કરી દે છે કે પોતે અમુકના પ્રેમમાં છે અને લગ્ન કરવા જઈ રહી છે, ત્યારે માબાપને ગરીબ ભવિષ્ય એવું ઘેરે છે કે અંધકાર સિવાય બીજું કશું કળાતું જ નથી. બને છે એવું કે માબાપથી કમાતી દીકરી છૂટતી નથી ને બેકાર દીકરો માબાપને છોડતો નથી. આ સારું નથી, પણ હકીકત જ એવી હોય છે કે સ્વાર્થ માબાપને લાચાર બનાવી મૂકે છે.

ક્યાંક એવું પણ બને છે કે દીકરીને માબાપ સ્વાર્થી લાગે છે, જ્યારે હકીકતે માબાપનો કોઈ સ્વાર્થ હોતો નથી. એક ઘરમાં નોકરિયાત દીકરી 30ની ઉંમર વટાવી ચૂકી છે. તેની બહેનપણીઓ પરણી ચૂકી છે ને કોઈ કોઈ તો એક બે સંતાનની માતા પણ બની ચૂકી છે, પણ દીકરીને લાગે છે કે માબાપ તેનાં લગ્ન અંગે વિચારતાં નથી. શરમની મારી તે કૈં બોલી શકતી નથી, પણ મનમાં એ વાતે સોરાય છે કે તેનાં લગ્ન થતાં નથી. તેને એવું જ લાગે છે કે પોતે કમાય છે એટલે માબાપ લગ્ન કરાવીને દીકરીની આવક જતી કરવા નથી માંગતાં. દીકરીને એવું લાગે તે સમજી શકાય એવું છે, કારણ તેની ઉંમર વધી રહી છે ને તેની બહેનપણીઓ પરણી ચૂકી છે. કેટલાંક માબાપો દીકરીની કમાણી પર લાચારીથી જીવતાં ય હશે, પણ મોટે ભાગે માબાપ દીકરીની કમાણીની લાલચે, દીકરીને પરણાવવા રાજી ન હોય એવું અપવાદ રૂપે જ હશે. જે માબાપે દીકરીને નાનેથી મોટી કરી હોય, ભણાવી-ગણાવી એટલી સક્ષમ કરી હોય કે તેની કમાણીનું ગૌરવ થાય. તે પરણી જશે તો ઘરની આવક જશે એટલે તેનાં લગ્નનો વિચાર માબાપ ન કરે એટલી હદે તો તેમનું પતન ન થયું હોય. બીજું, દીકરીએ એ ન ભૂલવું જોઈએ કે દીકરીની કમાણી માબાપે ના છૂટકે વાપરી હોય તો પણ, તેને ભણાવવા ગણાવવાનું માબાપને મફત તો નહીં જ થયું હોય, તેમને ય ખર્ચ થયો જ હશે. એ વખતે દીકરી માટે ખર્ચવાનો વાંધો ન પડ્યો હોય, તો દીકરીએ પણ એવું ન વિચારવું જોઈએ કે માબાપ તેની કમાણી ખાવા દીકરીને પરણાવવા નથી માંગતાં. એવું માબાપ વિચારતાં હોય તો તે ખોટું છે ને દીકરી વિચારતી હોય તો તે પણ ખોટું છે, કદાચ વધારે ખોટું છે …

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e.mail : ravindra21111946@gmail.com
પ્રગટ : ‘સ્ત્રી સશક્તિકરણ’ નામક લેખકની કટાર, ‘મેઘધનુષ’ પૂર્તિ, “ગુજરાત ટુડે”, 30 જૂન 2024

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Opinion

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Diaspora

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Gandhiana

  • અમારાં કાલિન્દીતાઈ
  • સ્વરાજ પછી ગાંધીજીએ ઉપવાસ કેમ કરવા પડ્યા?
  • કચ્છમાં ગાંધીનું પુનરાગમન !
  • સ્વતંત્ર ભારતના સેનાની કોકિલાબહેન વ્યાસ
  • અગ્નિકુંડ અને તેમાં ઊગેલું ગુલાબ

Poetry

  • બણગાં ફૂંકો ..
  • ગણપતિ બોલે છે …
  • એણે લખ્યું અને મેં બોલ્યું
  • આઝાદીનું ગીત 
  • પુસ્તકની મનોવ્યથા—

Samantar Gujarat

  • ખાખરેચી સત્યાગ્રહ : 1-8
  • મુસ્લિમો કે આદિવાસીઓના અલગ ચોકા બંધ કરો : સૌને માટે એક જ UCC જરૂરી
  • ભદ્રકાળી માતા કી જય!
  • ગુજરાતી અને ગુજરાતીઓ … 
  • છીછરાપણાનો આપણને રાજરોગ વળગ્યો છે … 

English Bazaar Patrika

  • Letters by Manubhai Pancholi (‘Darshak’)
  • Vimala Thakar : My memories of her grace and glory
  • Economic Condition of Religious Minorities: Quota or Affirmative Action
  • To whom does this land belong?
  • Attempts to Undermine Gandhi’s Contribution to Freedom Movement: Musings on Gandhi’s Martyrdom Day

Profile

  • અમારાં કાલિન્દીતાઈ
  • સ્વતંત્ર ભારતના સેનાની કોકિલાબહેન વ્યાસ
  • જયંત વિષ્ણુ નારળીકરઃ­ એક શ્રદ્ધાંજલિ
  • સાહિત્ય અને સંગીતનો ‘સ’ ઘૂંટાવનાર ગુરુ: પિનુભાઈ 
  • સમાજસેવા માટે સમર્પિત : કૃષ્ણવદન જોષી

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“Imitation is the sincerest form of flattery that mediocrity can pay to greatness.” – Oscar Wilde

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