कोई 50 लाख की आबादी वाला छोटा–सा देश न्यूजीलैंड आज कुछ बड़ा दिखाई दे रहा है, तो इसलिए कि किसी ने उसे बड़ा होने का मतलब सिखलाया है. कितना बड़ा होने का ? … आदमकद ! वहां एक लड़की रहती है– जसिंडा केट लॉरेल आर्डर्न. कल तक वह न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री हुआ करती थी, आज नहीं है. 37 साल की उम्र में वह न्यूजीलैंड की और संसार की सबसेयुवा प्रधानमंत्री बनी थीं और कोई साढ़े 5 साल तक प्रधानमंत्री बनी रहीं. फिर किसने उनको हराया ? किसने उन्हें हटाया ? संसद ने ? विपक्ष ने ? उसके अपने दल ने ? क्या उन पर भ्रष्टाचार काआरोप लगा ? क्या अदालत ने उन्हें हटाया ? फौजी बगावत हुई ? आप ऐसे कितने ही सवाल पूछेंगे, लेकिन उन सबका जवाब होगा – नहीं !
जसिंडा अब प्रधानमंत्री नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने खुद ही प्रधानमंत्री नहीं रहने का फैसला किया. उन्होंने अपने देश को बताया : “ मैं एकदम खाली हो गई हूं. भीतर ऐसा कुछ बचा ही नहीं हैकि जो मैं न्यूजीलैंड को दे सकूं. यदि मैं अब भी प्रधानमंत्री बनी रहती हूं तो यह न्यूजीलैंड की कुसेवा होगी. मैं यह पद छोड़ रही हूं… मैं आशा करती हूं कि मैं न्यूजीलैंड को बता सकी हूं कि आपमजबूत हो कर भी दयालु हो सकते हैं, सहानुभूतिपूर्ण रहते भी निर्णायक हो सकते हैं, आशावान रहते हुए, प्रतिकूलताओं से अविचलित रह सकते हैं. और यह भी कि आप अपनी तरह का नेतृत्वदे सकते हैं – ऐसा नेतृत्व कि जो जानता हो कि कब उसे पीछे हट जाना चाहिए.”
यहनईबातहै. हम तो देश–दुनिया में ऐसे नेतृत्व की हुंकार सुनने के आदी हो गए हैं जो कहता है कि हम तो अगली सदी तक राज करेंगे; कई नेता तो ऐसे हैं जिन्होंने कहना–सुनना छोड़ करऐसी संवैधानिक व्यवस्थाएं बना ली हैं कि वे जब तक रहेंगे, कुर्सी पर ही रहेंगे. कई हैं कि जो हर उस सर को कलम कर देने की सावधानी बरतते हैं जो कभी उनके कद का हो सकता है. जेसिंडाके लिए भी ऐसा करना मुश्किल नहीं था. उन्होंने वैसा कुछ नहीं किया बल्कि अपनी लेबर पार्टी से कह दिया कि अब अपना नया नेता चुनिए. पार्टी ने क्रिस हिपकिंस को अपना नया नेता चुना तोजरूर लेकिन चाहा कि जेसिंडा उनके लिए एजेंडा तय कर दें. जेसिंडा ने इससे भी इंकार कर दिया, “ उन्हें अपनी समझ और अपने अनुभव से चलना है. मैं उनके लिए रास्ता बंद कैसे कर सकती हूं.”
जेसिंडा की यही खास बात है. 1917 में जब लेबर पार्टी ने उनको अपना नेता व देश का प्रधानमंत्री चुना, तब से ले कर आज तक, जब वे न अपनी पार्टी की नेता हैं, न प्रधानमंत्री, जेसिंडाहमेशा नई जमीन तोड़ती रही हैं. 1918 में वे संयुक्त राष्ट्रसंघ की आमसभा को संबोधित करने पहुंचीं थीं तब उनकी गोद में उनकी बेटी थी. गोद में बेटी को ले कर वैश्विक मंच पर कौन खड़ा होताहै ? सभी हैरान थे ! ऐसा नहीं था कि जेसिंडा से पहले कोई महिला राष्ट्रप्रमुख संयुक्त राष्ट्रसंघ को संबोधित करने आई नहीं थी लेकिन मातृत्व को ऐसी सहजता से दुनिया के मंच पर किसी नेस्थापित नहीं किया था. वे न्यूजीलैंड का वर्तमान ही नहीं, भविष्य भी संभालती हैं, इसकी ऐसी सहज घोषणा कर जेसिंडा ने संसार भर की महिलाओं को आत्मविश्वास दिया था. संयुक्त राष्ट्रसंघको भी नई नजर से जेसिंडा को देखना पड़ा था. मानव–मन में नई सभ्यता ऐसे ही पांव धरती है.
2019 में न्यूजीलैंड को जैसे किसी ने तलवार की धार पर चढ़ा दिया ! आतंकवाद ने वहां पहली गंभीर दस्तक दी. एक श्वेत आतंकवादी ने दो मस्जिदों में अंधाधुंध गोलियां चला कर 50 सेअधिक मुसलमान नागरिकों की हत्या कर दी और गोरे न्यूजीलैंड को अपने साथ खड़ा होने के लिए ललकारा भी. हर मुल्क में ऐसे आतंकवादी हमलों का जवाब पुलिस–फौज ही देती है. जेसिंडाने इसका राजनीतिक जवाब दिया. वे बुरका पहन कर मस्जिद में पहुंच गईं, मृतकों के आंसू पोंछे, उनके परिजनों की सरकारी व्यवस्था की, घायलों के इलाज का इंतजाम किया और यह स्पष्टघोषणा की कि न्यूजीलैंड अपने सभी नागरिकों का है. आतंकवादियों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा : “ तुमने हमें अपने साथ बुलाया है तो तुम सुन लो कि मैं तुम्हें और तुम्हारे आमंत्रण कोअभी, यहीं से खारिज करती हूं.” इतना ही नहीं, सारे विपक्ष को साथ ले कर उन्होंने हथियारों की सार्वजनिक उपलब्धता के खिलाफ कानून भी पारित करवाया. न्यूजीलैंड आतंकवाद की कगार सेउस दिन वापस लौटा तो अब तक वहीं खड़ा है.
फिर सारी दुनिया कोरोना की सुनामी से घिरी. न्यूजीलैंड भी उसकी चपेट में आया. जेसिंडा के नेतृत्व की परीक्षा थी. जेसिंडा ने सरकार की पूरी ताकत और मातृत्व का पूरा खजाना ही खोल दिया. मानवीय स्पर्श के साथ आवश्यक सख्ती भी हुई. न नागरिकों को मौत के भरोसे छोड़ने जैसी अमानवीयता हुई वहां, न मौत के घबराए लोगों का बेजा इस्तेमाल किया गया. पश्चिमी दुनियामें यह लड़ाई सबने लड़ी लेकिन न्यूजीलैंड में मौत की दर सबसे कम रही. उसके चेहरे पर कोरोना के जहरीले पंजों के निशान भी सबसे कम दिखाई दिए. कहते हैं कि उन दिनों न्यूजीलैंड में करोनाज्यादा फैला था कि जेसिंडा, कहना कठिन था. नये प्रधानमंत्री क्रिस हैपकिंस उसी कोरोना–युद्ध की पैदावार हैं. इसी दौर में न्यूजीलैंड पर प्राकृतिक आपदा भी आई लेकिन जेसिंडा ने देश काहाथ कभी नहीं छोड़ा.
ऐसा नहीं है कि जेसिंडा को हर मामले में सफलता ही मिली. कई विफलताएं भी उनके खाते में लिखी हुई हैं. न्यूजीलैंड संसार का सबसे महंगा मुल्क है. महंगाई सबको दबोचे हुई है. लोगोंको घरों की बड़ी किल्लत है, और घर बनाने का सरकारी दावा पूरी तरह विफल रहा है. बच्चों की दुरावस्था न्यूजीलैंड की बहुत बड़ी व करुण समस्या है. सामाजिक–आर्थिक विषमता से वहां कासमाज बुरी तरह जकड़ा है. ऊपर के 10%लोगों की मुट्ठी में देश के 50% से अधिक संसाधन हैं. राजनेता ऐसा मानते हैं कि सत्ता व सरकार के पास जादू की छड़ी है. इसलिए सभी सत्ता पाने कोबेचैन रहते हैं. वे देश से वादा भी करते हैं कि सत्ता में आए तो जादू कर देंगे. लेकिन सत्ता में आने के बाद उन्हें पता चलता है कि सत्ता के पास कितनी सीमित सत्ता है. अपने लिए सुविधाएं–संपत्तिजोड़ने की बात अलग है लेकिन समाज के लिए बहुत कुछ कर सकने की क्षमता व संभावना इस व्यवस्था में है नहीं. महात्मा गांधी ने इसे ही समझाते हुए स्वतंत्र भारत के शासकों से कहा था : “कुर्सी पर मजबूती से बैठो लेकिन कुर्सी को जकड़ कर मत रखो (सिट ऑन इट टाइटली बट होल्ड इट लाइटली !” ). हमारे शासक करते इससे एकदम उल्टा हैं. जसिंडा ने ऐसा नहीं किया. जबतक कुर्सी पर रहीं, मजबूती से, मूल्यों को पकड़ कर रहीं; जब लगा कि अब कुछ नया करने जैसा अपने पास है नहीं तो कुर्सी खाली कर दी.
इस लिए वे दूसरों से एक दम अलग नजर आ रही हैं. युवकों का नेतृत्व उम्र से ही नहीं, नजरिए से भी नया हो सकता है. शर्त है तो यही कि युवा कंधे पर बूढ़ा सर न हो ! जेसिंडा इसका उदाहरण हैं.
(25.01.2023)
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