Opinion Magazine
Opinion Magazine
Number of visits: 9379729
  •  Home
  • Opinion
    • Opinion
    • Literature
    • Short Stories
    • Photo Stories
    • Cartoon
    • Interview
    • User Feedback
  • English Bazaar Patrika
    • Features
    • OPED
    • Sketches
  • Diaspora
    • Culture
    • Language
    • Literature
    • History
    • Features
    • Reviews
  • Gandhiana
  • Poetry
  • Profile
  • Samantar
    • Samantar Gujarat
    • History
  • Ami Ek Jajabar
    • Mukaam London
  • Sankaliyu
    • Digital Opinion
    • Digital Nireekshak
    • Digital Milap
    • Digital Vishwamanav
    • એક દીવાદાંડી
    • काव्यानंद
  • About us
    • Launch
    • Opinion Online Team
    • Contact Us

नदव लापिद की ‘कश्मीर फाइल्स’

कुमार प्रशांत|Opinion - Opinion|5 December 2022

जिस तरह का सच यह है कि आईना झूठ नहीं बोलता, उसी तरह का सच यह भी है कि कैमरा झूठ नहीं बोलता. इसे हम इस तरह भी समझ सकते हैं कि सच प्राकृतिक है; झूठ गढ़ना पड़ता है- फिर वह झूठ सौंदर्य प्रसाधनों से बोला जाए या खुराफाती-स्वार्थी इंसानी दिमाग से ! गोवा में आयोजित भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के आखिरी दिन, महोत्सव की जूरी के अध्यक्ष इस्राइली फिल्मकार नदव लापिद ने यही बात कही – न इससे कम कुछ, न इससे अधिक कुछ ! इसके बाद गर्हित राजनीति का जो वितंडा हमारे यहां फूट पड़ा, वह भी इसी सच को मजबूत करता है कि सच घटे या बढ़े तो सच ना रहे / झूठ की कोई इंतहा ही नहीं.

इतिहास बनाना इंसानी साहस की चरम उपलब्धि है; इतिहास को विकृत करना मानवीय विकृति का चरम है. हम दोनों ताकतों को एक साथ काम करते देखते हैं. इंसानी व सामाजिक जीवन में कला की एक अहम भूमिका यह भी है कि वह इन दोनों के फर्क को समझे व समझाए ! जो कला ऐसा नहीं कर पाती है वह कला नहीं, कूड़ा मात्र होती है. इसलिए कोई पिकासो ‘गुएर्निका’ रचता है, कोई चार्ली चैपलिन ‘द ग्रेट डिक्टेटर’ बनाता है, कोई एटनबरो ‘गांधी’ ले कर सामने आता है. अनगिनत पेंटिंगों, फिल्मों के बीच ये अपना अलग व अमर स्थान क्यों बना लेती हैं? इसलिए कि युद्ध की कुसंस्कृति को, विकृत मन की बारीकियों को तथा इंसानी संभावनाओं की असीमता को समझने में ये फिल्में हमारी मदद करती हैं. तो कला की एक सीधी परिभाषा यह बनती है कि जो मन को उन्मुक्त न करे, उद्दात्त न बनाए वह कला नहीं है.

दूसरी तरफ वे ताकतें भी काम करती हैं जो कला का कूड़ा बनाती रहती हैं ताकि सत्य व असत्य के बीच का, शुभ व अशुभ के बीच का, उद्दात्तता व मलिनता के बीच का फर्क इस तरह उजागर न हो जाए कि  ये ताकतें बेपर्दा हो जाएं. विवेक की इसी नज़र से गोवा फिल्मोत्सव में बनी जूरी को 14 अंतरराष्ट्रीय फिल्मों को देखना-जांचना था. लापिद इसी जूरी के अध्यक्ष थे. जूरी में या उसके अध्यक्ष के रूप में उनका चयन सही था या गलत, इसका जवाब तो उन्हें देना चाहिए जिनका यह निर्णय था लेकिन 5 सदस्यों की जूरी अगर एक राय थी कि ‘कश्मीर फाइल्स’ किसी सम्मान की अधिकारी नहीं है, तो इस पर किसी भी स्तर पर, किसी भी तरह की आपत्ति उठना अनैतिक ही नहीं है, घटिया राजनीति है जिसका दौर अभी हमारे यहां चल रहा है.

लापिद ने जूरी के अध्यक्ष के रूप में महोत्सव के मंच से जब ‘कश्मीर फाइल्स’ को ‘अश्लील शोशेबाजी’ ( ‘वल्गर प्रोपगंडा’ का यह मेरा अनुवाद है) कहा तब वे कोई निजी टिप्पणी नहीं कर रहे थे, जूरी में बनी भावना को शब्द दे रहे थे. जूरी के बाकी तीनों विदेशी सदस्यों ने बयान दे कर लापिद का समर्थन किया है. भारतीय सदस्य सुदीप्तो सेन ने अब जो सफाई दी है वह बात को ज्यादा ही सही संदर्भ में रख देती है : “ यह सही बात है कि यह फिल्म हमने कला की कसौटी पर खारिज कर दी. लेकिन मेरी आपत्ति अध्यक्ष ने बयान पर है जो ‘कलात्मक’ नहीं था. ‘वल्गर’ व ‘प्रोपगंडा’ किसी भी तरह कलात्मक अभिव्यक्ति के शब्द नहीं हैं.”  मतलब साफ है कि ‘कश्मीर फाइल्स’ कहीं से भी कला से सरोकार नहीं रखती है, इस बारे में जूरी एकमत थी. ऐसा क्यों था, इसकी सबसे गैर-राजनीतिक सफाई जो कोई भी अध्यक्ष दे सकता था, लापिद ने दी. उन्हें यह बताना ही चाहिए था कि क्यों जूरी ने उन्हें सौंपी गई 14 फिल्मों में से मात्र 13 फिल्मों में से ही अपना चयन किया, और 14वीं फिल्म को फिल्म ही नहीं माना ? जूरी के अध्यक्ष लापिद का धर्म था कि वे यह बताते. जिन शब्दों में लापिद ने वह बताया, वह कहीं से भी राजनीतिक, गलत, अशोभनीय या कला की भूमिका को कलंकित करने वाला नहीं था.

हमारे यहां ही कला-साहित्य-पत्रकारिता का आसमान इन दिनों इतना कायर व कलुषित हो गया है कि वहां कला व सच की जगह बची नहीं है. जूरी के विदेशी सदस्यों ने अपने बयान में इसे पहचाना है : “ हम लापिद के बयान के साथ खड़े हैं और यह साफ करना चाहते हैं कि हम इस फिल्म की विषयवस्तु के बारे में अपना कोई राजनीतिक नजरिया बताना नहीं चाहते हैं. हम केवल कला के संदर्भ में ही बात कर रहे हैं और इसलिए महोत्सव के मंच का अपनी राजनीति के लिए व नविद पर निजी हमले के लिए जैसा इस्तेमाल किया जा रहा है, उससे हम दुखी हैं. हम जूरी का ऐसा कोई इरादा नहीं था.”

जब नविद से पूछा गया कि जिस फिल्म को जूरी ने किसी सम्मान के लायक नहीं माना, उस फिल्म पर आपको कोई टिप्पणी करनी ही क्यों चाहिए थी, नविद ने बड़ी ईमानदारी के साथ अपनी बात रखी. यह कहने की जरूरत नहीं है कि ईमानदारी से खूबसूरत कलात्मक अभिव्यक्ति दूसरी नहीं होती है. नविद ने कहा : “ हां, आप ठीक कहते हैं, जूरी सामान्यत: ऐसा नहीं करती है. उनसे अपेक्षा यह होती है कि वे फिल्में देखें, उनका जायका लें, उनकी विशेषताओं का आकलन करें तथा विजेताओं का चयन करें. लेकिन तब यह बुनियादी सावधानी रखनी चाहिए थी कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ जैसी फिल्में महोत्सव के प्रतियोगता खंड में रखी ही न जाएं. दर्जनों महोत्सवों में मैं जूरी का हिस्सा रहा हूं, बर्लिन में भी, केंस में भी, लोकार्नो और वेनिस में भी. इनमें से कहीं भी, कभी भी मैंने ‘द कश्मीर फाइल्स ’ जैसी फिल्म नहीं देखी. जब आप जूरी पर ऐसी फिल्म देखने का बोझ डालते हैं, तब आपको ऐसी अभिव्यक्ति के लिए तैयार भी रहना चाहिए.”

सारा खेल तो यही था. यह सरकारी आदेश था या आयोजकों की स्वामी भक्ति का खुला प्रदर्शन था, यह तो वे ही जानें लेकिन चाल यह थी कि झांसे में एक अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में सरकारी क्षद्म का यह चीथड़ा दिखा लिया जाए. जूरी मेजबानी के दवाब में आ कर अगर इसे सम्मानित कर दे, तो बटेर हाथ लगी; हाथ नहीं लगी तो दुनिया भर में हम अपना प्रचार दिखा गए, यह उपलब्धि तो हासिल होगी ही. नविद ने यह सारा खेल बिगाड़ दिया. इसलिए हमने देखा कि नविद को भारत स्थित इसराइल के राजदूत से गालियां दिलवाई गईं. जिन ‘अनुपम’ शब्दों में ‘ द कश्मीर फाइल्स’ गैंग ने नविद का शान-ए-मकदम किया, वह कला के चेहरे पर गर्हित राजनीति का कालिख मलना तो था ही, अंतरराष्ट्रीय कला बिरादरी में भारत को अपमानित करना भी था.

(05.12.2022)
मेरे ताजा लेखों के लिए मेरा ब्लॉग पढ़ें
https://kumarprashantg.blogspot.com

Loading

5 December 2022 कुमार प्रशांत
← સૌંદર્યશાસ્ત્રનો પ્રશ્ન ——
સીમા વર્તે સાવધાન : લડાઈ, અંદરની અને બહારની →

Search by

Opinion

  • મુઝકો તુમ જો મિલે યે જહાં મિલ ગયા
  • ગુરુદત્ત શતાબ્દીએ –
  • PMનો ગ્લાબલ સાઉથનો પ્રવાસ : દક્ષિણ દેશો સાથેની કૂટનીતિ પ્રભાવી રહેશે કે સાંકેતિક
  • સવાલ બે છે; એક તિબેટના ભવિષ્ય વિષે અને બીજો તિબેટને લઈને ભારત-ચીન વચ્ચેના સંબંધો વિષે
  • ચલ મન મુંબઈ નગરી—297

Diaspora

  • આપણને આપણા અસ્તિત્વ વિશે ઊંડા પ્રશ્નો પૂછતી ફિલ્મ ‘ધ બ્લેક એસેન્સ’
  • ભાષાના ભેખધારી
  • બ્રિટનમાં ગુજરાતી ભાષા-સાહિત્યની દશા અને દિશા
  • દીપક બારડોલીકર : ડાયસ્પોરી ગુજરાતી સર્જક
  • મુસાજી ઈસપજી હાફેસજી ‘દીપક બારડોલીકર’ લખ્યું એવું જીવ્યા

Gandhiana

  • ‘રાષ્ટ્રપિતાનો વારસો એમના વંશજો જ નથી’ — રાજમોહન ગાંધી
  • સરદારનો ગાંધી આદર્શ 
  • કર્મ સમોવડ
  • સ્વતંત્રતાનાં પગરણ સમયે
  • આપણે વેંતિયાઓ મહાત્માને માપવા નીકળ્યા છીએ!

Poetry

  • હાર
  • વરસાદમાં દરવાજો પલળ્યો
  • વચ્ચે એક તળાવ હતું
  • ઓલવાયેલો સિતારો
  • કારમો દુકાળ

Samantar Gujarat

  • ખાખરેચી સત્યાગ્રહ : 1-8
  • મુસ્લિમો કે આદિવાસીઓના અલગ ચોકા બંધ કરો : સૌને માટે એક જ UCC જરૂરી
  • ભદ્રકાળી માતા કી જય!
  • ગુજરાતી અને ગુજરાતીઓ … 
  • છીછરાપણાનો આપણને રાજરોગ વળગ્યો છે … 

English Bazaar Patrika

  • Economic Condition of Religious Minorities: Quota or Affirmative Action
  • To whom does this land belong?
  • Attempts to Undermine Gandhi’s Contribution to Freedom Movement: Musings on Gandhi’s Martyrdom Day
  • Destroying Secularism
  • Between Hope and Despair: 75 Years of Indian Republic

Profile

  • સાહિત્ય અને સંગીતનો ‘સ’ ઘૂંટાવનાર ગુરુ: પિનુભાઈ 
  • સમાજસેવા માટે સમર્પિત : કૃષ્ણવદન જોષી
  • નારાયણ દેસાઈ : ગાંધીવિચારના કર્મશીલ-કેળવણીકાર-કલમવીર-કથાકાર
  • મૃદુલા સારાભાઈ
  • મકરંદ મહેતા (૧૯૩૧-૨૦૨૪): ગુજરાતના ઇતિહાસલેખનના રણદ્વીપ

Archives

“Imitation is the sincerest form of flattery that mediocrity can pay to greatness.” – Oscar Wilde

Opinion Team would be indeed flattered and happy to know that you intend to use our content including images, audio and video assets.

Please feel free to use them, but kindly give credit to the Opinion Site or the original author as mentioned on the site.

  • Disclaimer
  • Contact Us
Copyright © Opinion Magazine. All Rights Reserved