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आरएसएसः ‘भावनात्मक एकता’ के बहाने यथास्थिति कायम रखने की कोशिश

राम पुनियानी|Opinion - Opinion|3 November 2023

राम पुनियानी

वर्तमान सत्ताधारी दल सहित हिन्दू राष्ट्र की कायमी के लक्ष्य को लेकर काम करने वाली कई अन्य संस्थाओं से मिलकर बने संघ परिवार के मुखिया हैं मोहन भागवत. ये संस्थाएं शिक्षा, राजनीति, सामाजिक गतिविधियों आदि में संलग्न हैं. भागवत संघ परिवार को विजयादशमी (दशहरा) के दिन मार्गदर्शन देते हैं. विजयादशमी का यह भाषण उस बहुसंख्यकवादी हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति की विचारधारा और राजनैतिक एजेंडा को प्रतिबिंबित करता है, जिसका नेतृत्व संघ परिवार के हाथों में है.

इस वर्ष (2023) के 24 अक्टूबर को उन्होंने अपने भाषण में केवल शब्दों के कुछ हेरफेर के साथ ऐसी कई बातें कहीं जिन्हें द्वितीय सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘बंच ऑफ थाट्स’ में निरूपित किया था. इस पुस्तक में गोलवलकर लिखते हैं, “मुस्लिम, ईसाई और कम्युनिस्ट हिन्दू राष्ट्र के लिए आंतरिक खतरा हैं”. छलपूर्ण भाषा में भागवत ने कहा कि “सांस्कृतिक मार्क्सवाद एक खुदगर्ज और धोखेबाज ताकत है जो मीडिया और शिक्षण के क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित कर देश को विभाजित करना चाहती है.”

उन्होंने आगे कहा, “ये शक्तियां कुछ उत्कृष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कार्य करने का दावा करती हैं लेकिन उनका वास्तविक लक्ष्य दुनिया की व्यवस्था एवं नैतिकता, परोपकार, संस्कृति, गरिमा और संयम को अस्त-व्यस्त करना है.” उन्होंने यह भी कहा कि, “ये विध्वंसक शक्तियां अपने आप को ‘वोक’ या मार्क्सवादी बताते हैं…विश्व की सभी सुव्यवस्था, मांगल्य, संस्कार, तथा संयम से उनका विरोध है….माध्यमों तथा अकादमियों को हाथ में लेकर देशों की शिक्षा, संस्कार, राजनीति और सामाजिक वातावरण को भ्रम एवं भ्रष्टता का शिकार बनाना उनकी कार्यशैली है.”

‘वोक’ शब्द मौजूदा दौर में सांस्कृतिक चर्चाओं के केन्द्र में रहा है. इसकी जड़ अफ्रीकी-अमेरिकियों की स्वयं को नस्लवाद के चंगुल से निकालकर समानता हासिल करने की ललक में है. यह शब्द लोकतंत्र के आगाज़ के पूर्व के तानाशाही के दौर की पितृसत्तात्मकता, नस्लवाद और वर्णों से संबंधित ऊंच-नीच द्वारा खड़ी की गई रुकावटों पर विजय हासिल करने का प्रतीक भी है.

यह कहा जा सकता है कि यह शब्द अब सारी दुनिया में प्रचलित हो गया है. यूरोप और आस्ट्रेलिया में रूढ़िवादी राजनीतिज्ञ ‘वोक’ के समावेशिता के विचार का उपहास करते हैं और इसके आधार पर लैंगिक समानता और पर्यावरण संरक्षण का विरोध करते हैं. बीबीसी की डाक्यूमेन्ट्री ‘इंडियाः द मोदी क्वेश्चन’ (मोदी के मुख्यमंत्रित्वकाल में गुजरात में हुई हिंसा पर बनी डाक्यूमेन्ट्री जिस पर भारत में पाबंदी लगा दी गई है) के बारे में टिप्पणी करते हुए आरएसएस नेता राम माधव ने ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में लिखा कि बीबीसी का यह ‘पतन’ ब्रिटेन के संभ्रात वर्ग में ‘वोक संस्कृति’ के उदय के कारण हुआ है. जो राम माधव यह मानते हैं कि ‘द मोदी क्वेश्चन’ का प्रसारण करने से बीबीसी का ‘पतन’ हुआ है वे ही राम माधव सरसंघचालक के ‘जड़ों’ की ओर लौटने (संक्षेप में मनुस्मृति के मूल्यों के इर्दगिर्द जाने) के आव्हान का समर्थन करते हैं और सांस्कृतिक मार्क्सवादियों पर हमारे शिक्षण संस्थानों और मीडिया पर कब्जा करने का आरोप लगाते हैं. उनके अनुसार सांस्कृतिक मार्क्सवादियों ने ऐसा आख्यान विकसित किया है जिसमें हिन्दू धर्म को उच्च जातियों की प्रभुता के रूप में परिभाषित कर हिंदुत्व और जाति या जाति प्रथा को दमनकारी और शोषक निरूपित किया गया है. माधव के अनुसार जातिगत जनगणना विभाजनकारी है.

सच यह है कि स्वाधीनता संग्राम के दिनों से ही मार्क्सवाद से प्रभावित लोग समानता के लिए सामाजिक परिवर्तन के हामी रहे हैं. भगतसिंह और उनके साथियों ने समानता की बात थी. औद्योगीकरण और शिक्षा के प्रसार के साथ प्रगतिशील ताकतों ने उस विचारधारा को उखाड़ फेंकने की वकालत की जो सामंती समाज से हमें विरासत में मिली थी और जो वर्गीय, जातिगत और लैंगिक उंचनीच पर आधारित थी. कम्युनिस्टों के अलावा, जोतीराव फुले और आंबेडकर के नेतृत्व वाली धारा ने भी उस दमनकारी व्यवस्था को चुनौती दी, जिसमें ऊंची जातियों के पुरुष दलितों और महिलाओं पर अपना प्रभुत्व जमाते थे और जिसमें पितृसत्तात्मक मूल्यों की प्रधानता थी. गांधीजी के नेतृत्व वाले स्वाधीनता आन्दोलन ने भी इन मुद्दों को उठाया और दमनकारी सामाजिक प्रथाओं के खिलाफ विद्रोह को व्यापक स्वरुप देने का प्रयास किया और उसे स्वाधीनता आन्दोलन का अभिन्न बनाया.

अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए संघर्ष भी स्वाधीनता आन्दोलन का अभिन्न अंग था और लोकमान्य तिलक से लेकर गाँधीजी और उनसे लेकर नेहरु तक सभी ने इसका समर्थन किया. प्रगतिशील वर्गों ने विश्वविद्यालयों में शिक्षण और लेखन व भाषणों के ज़रिए अपने विचारों को आम लोगों तक पहुँचाया.

इन लोगों ने अपनी बौद्धिक आज़ादी का उपयोग कर हमारी शिक्षा प्रणाली को प्रजातान्त्रिक नींव दी और वे जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय जैसे बौद्धिक उत्कृष्टता के केन्द्रों की स्थापना में सहायक बने. इस संस्थान ने जबरदस्त प्रतिष्ठा अर्जित की और देश को अनेक लेखक, नौकरशाह और पुलिस अधिकारी दिए. निश्चित रूप से भागवत और माधव का यह दावा सही नहीं है कि शिक्षा के केन्द्रों में घुसपैठ करने का कोई योजनाबद्ध प्रयास किया गया, जिसके चलते हम ‘अपनी जड़ों’ से दूर चले गए. उनके लिए तो पूरा स्वाधीनता संग्राम ही ‘हमारी जड़ों से दूर जाना था.”

हिन्दू राष्ट्रवादियों के इस दावे में भी कोई दम नहीं है कि मार्क्सवादियों की दृष्टि में हिन्दू धर्म का अर्थ था उच्च जातियों की प्रभुता. यह हिन्दू राष्ट्रवादियों की हमारे अतीत की सतही समझ को दर्शाता है. वे भूल जाते हैं कि आंबेडकर (चुनाव में लाभ प्राप्त करने के लिए जिनकी शान में हिन्दू राष्ट्रवादी कसीदे काढ रहे हैं) ने कहा था कि हिन्दू धर्म में ब्राह्मणवादी मूल्यों का बोलबाला है. दलितों को समानता का अधिकार न देने के प्रति कटिबद्ध कट्टरपंथी हिन्दू धर्म के सिद्धांतों से आंबेडकर इतने आहत थे कि उन्होंने न केवल सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति का दहन किया बल्कि यह घोषणा भी की कि, “मैं हिन्दू के रूप में पैदा हुआ था. वह मेरे हाथ में नहीं था. परन्तु मैं हिन्दू के रूप में मरूंगा नहीं.” इसी कारण आंबेडकर उन ‘जड़ों’ से दूर चले गए थे, जिनका गुणगान भागवत और माधव कर रहे हैं.

वोक, जो कि सामाजिक ऊंचनीच की बेड़ियों को तोड़ देना चाहता हैं, को भागवत एंड कंपनी नीची निगाहों से देखते हैं. उदारवादी भारतीय संविधान के मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध रहना चाहते हैं और वे संयुक्त राष्ट्रसंघ के मानवाधिकार घोषणापत्र के मूल्यों का सम्मान करते हैं. इसके विपरीत, आरएसएस ने अत्यंत योजनाबद्ध तरीके से सरस्वती शिशु मंदिरों की श्रृंखला की स्थापना की है, जिनका पाठ्यक्रम जातिगत और लैंगिक पदक्रम का समर्थन करता है. संघ के ‘शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास’ ने वेंडी डोनिगर के तार्किक और विद्वतापूर्ण लेखन का विरोध किया. एक अन्य संघी संगठन ने एके रामानुजन के लेख “थ्री हंड्रेड रामायाणास’ को पाठ्यक्रम से बाहर करवाया. यह लेख हमारी विविधवर्णी संस्कृति को समझने में हमारी मदद करता है. और ये तो केवल चंद उदाहरण हैं.

उदारवादी मूल्य देश को नहीं बाँट रहे थे. वे तो पितृसत्तात्मकता और जाति प्रथा से मुक्ति की बात करते हैं. देश को जो बाँट रहा है वह है आरएसएस शाखाओं, उसके लाखों स्वयंसेवकों और हजारों प्रचारकों द्वारा किया जा रहा अल्पसंख्यक-विरोधी दुष्प्रचार. जहाँ तक मीडिया पर नियंत्रण का सवाल है, उसके बारे में जितना कहा जाए, वह कम है. सन 1977 में जनता पार्टी की सरकार में लालकृष्ण अडवाणी के सूचना और प्रसारण मंत्री बनने के बाद से आरएसएस के स्वयंसेवकों का मीडिया संस्थानों में घुसपैठ करने का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह अब भी जारी है. मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद से कॉर्पोरेट घरानों ने मीडिया के एक बड़े हिस्से पर अपना नियंत्रण कायम कर लिया है और यह हिस्सा अब संघ और भाजपा का भौंपू बन गया है.

ये सभी संगठन और उनके नेता, जाति जनगणना को देश को बांटने वाला बता रहे हैं. सच यह है कि जाति जनगणना, सामाजिक न्याय की स्थापना के दिशा में कदम है. कहने की ज़रुरत नहीं कि आरएसएस, सामाजिक न्याय का घोर विरोधी है.

01/11/2023
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया; लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
https://www.navjivanindia.com/opinion/rss-is-a-staunch-opponent-of-social-justice-wants-to-maintain-discrimination-in-the-name-of-emotional-unity-article-by-ram-puniyani

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कितनी खोखली आवाजें 

कुमार प्रशांत|Opinion - Opinion|3 November 2023

कुमार प्रशांत

कैसे शोरों से भर गया है भारत !  जैसे सारे देश में कोई हांका पड़ा है. हर तरफ से आवाजें–ही–आवाजें आ रही हैं. कोई यह नहीं देख या सोच रहा है कि कौन, किसे सुन रहा है. इन आवाजवालों को इसका होश भी नहीं है कि वे कह क्या रहे हैं.

2014 में बनी भारत सरकार, 2018 में चुनावी बौंड की योजना ले कर आई थी. यह अंधेरे में काला कपड़ा पहन कर लूट करने की संवैधानिक योजना थी जिसे तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने प्रधानमंत्री मोदी की स्वीकृति से तैयार किया था. इसके गुण–दोष व इसी वैधानिकता पर विचार करने वाली य़ाचिका वर्षों से सर्वोच्च न्यायालय की जेब में पड़ी थी. कैसा गजब है कि ऐसे संवैधानिक मामले, जिनका देश के वर्तमान व भावी से निर्णायक संबंध है, न्यायालय पहुँच तो जाते हैं लेकिन सर्वोच्चन्यायालय प्राथमिकता के आधार पर उनकी सुनवाई नहीं करता है. कोई पूछे कि महाराष्ट्र विधान सभा का अध्यक्ष यदि अपने सदस्यों की वैधता का मामला राजनीतिक कारणों से वर्षों लटकाए रखता है तो चीफ जस्टिस उसे धमकाते हैं कि आप अनिश्चितकाल तक उसे रोके नहीं रख सकते; और आप ऐसा करेंगे तो हम आदेश जारी करेंगे; फिर सर्वोच्च न्यायालय ऐसे महत्वपूर्ण मामले को कब तक लटकाए रख सकता है, इसकी जवाबदेही नहीं होनी चाहिए ? किसी भी राजनीतिक व संवैधानिक संरचना कोयह नहीं भूलना चाहिए कि अंतत: सब इसी संविधान की संतान हैं और यह संविधान भारत की जनता की संतान है. सर्वभौम सिर्फ जनता है जिसके प्रति संविधान की रोशनी में हर कोई जवाबदेह है.

फिर भारत की सर्वोच्च अदालत में खड़े हो कर भारत के एटर्नी जेनरल आर. वेंकटमणी यह लिखित बयान कैसे दे रहे हैं हैं कि भारत की जनता को यह जानने का अधिकार ही नहीं है कि किस आदमी ने, किस पार्टी को कितना पैसा दिया है ? जोसरकार जनता के वोट से बनती और जनता के नोट से चलती है, उस सरकार का कानूनी नुमाइंदा जब यह कहता है कि जनता को यह जानने का अधिकार है ही नहीं कि उसके पैसे का कौन, कैसा इस्तेमाल कर रहा है तब वह कह यह रहा होता है कि जनताकी कोई हैसियत ही नहीं है. इन वेंकटरमणी महाशय को भी महीन की तनख्वाह जनता ही देती है और अदालतों की यह सारी व्यवस्था भी जनता के पैसों पर ही टिकी हुई है. फिर अदालत में खड़े हो कर ऐसा कहना महान मूढ़ता का या फिर महान अहमन्यताका प्रमाण है. यह देश की जनता की सार्वभौमिकता पर हमला है.

इस से भी हैरानी की  बात यह है कि देश की सर्वोच्च अदालत ऐसा सरकारी दंभ सुन भी लेती है और चुप भी रहती है. अदालतें वैसे तो लोगों को धमकाती ही रहती हैं, जज महाशयों को यह कहने की आदत है कि हम आपको बता देंगे कि हम कौन हैंलेकिन जब सामने सत्ता का प्रतिनिधि खड़ा हो तो अदालत भी ऊंचा सुनने लगती है और बोलते हुए हकलाने लगती है.

राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने के लिए धन कहां से मिले, यह यक्ष प्रश्न है. यह आर्थिक व राजनीतिक भ्रष्टाचार की गंगोत्री है. तब सवाल यह उठता है कि चुनावी बौंड योजना क्या चुनाव में धनपतियों के हस्तक्षेप पर रोक लगाती है ? इस हस्तक्षेपको काबू में करने की कोई कोशिश अब तक प्रभावी नहीं हुई है क्योंकि राजनीतिक दल ईमानदार नहीं हैं. जरूरत ऐसा रास्ता खोजने की थी; और है, कि जिससे इस गठबंधन शह दिया जा सके. तो सामने आई चुनावी बौंड योजना. यह वह अनैतिक योजनाहै जो बेईमानी को कानूनसम्मत बनाती है. दाता कौन है, यह पता नहीं है. आप पता करें, यह आपका अधिकार नहीं है. जिन्हें भीतरखाने पता है, वे इस खेल में शरीक हैं. इस तरह की गुमनामी किसी को धनबल से जनबल को परास्त करने का असंवैधानिकअधिकार देती है. इससे दाताओं को सत्ता का अभय मिलता है. इसलिए ही तो 2014 के बाद से भारतीय जनता पार्टी को अकूत धन मिलता रहा है. बाकी पार्टियां सुदामा से ज्यादा हैसियत नहीं रखती है. यह भारतीय जनता पार्टी का कमाल नहीं, सत्ता काकमाल है. कल को दूसरी कोई पार्टी सत्ता में होगी तो यह सारा धन उसकी तरफ बहने लगेगा. ऐसी व्यवस्था न नैतिक है, न लोकतांत्रिक और न संविधानसम्मत. चुनावी बॉंड वैसी सरकारी पहल थी जिसे लोकतांत्रिक संविधान की रक्षा की संवैधानिक शपथलेने वाली न्यायपालिका को आगे बढ़ कर निरस्त कर देना था. लेकिन ऐसा करना तो दूर, अदालत इसकी सुनवाई को ही तैयार नहीं हुई; और अब उसके सामने ही बगैर किसी रोक–टोक के सरकार कह रही है कि जनता को यह जानने का अधिकार ही नहीं हैकि सत्ता व धनपति मिल कर कैसा खेल रच रहे हैं. यूपीए कानून जिस तरह अदालत के संवैधानिक अधिकार की तौहीन करता है, चुनाव बौंड भी उसका वैसा ही माखौल उड़ाते हैं.      

मणिपुर का नाम आते ही सरकार को सांप सूंघ जाता है. कई शब्द प्रधानमंत्री के शब्द–ज्ञान के बाहर हैं. मणिपुर भी ऐसा ही एक शब्द है. गृह मंत्रालय ने अपने शब्दकोश से यह शब्द निकला ही दिया है. वहां हो क्या रहा है और हो क्यों रहा है जैसे सवाल आज कौन पूछे  और किससे ? छापे वाला और फोटोवाला, दोनों मीडिया अब देश में कहीं बचा नहीं है. मीडिया के नाम पर सत्ता की जुगाली करते व्यापारिक संस्थान हैं जो कागज भी गंदा करते  हैं और देश का मन भी. आज गजापट्टी में भी हमारेयहां से ज्यादा सार्थक मीडिया सांस लेता है. 

जब मणिपुर के बारे में कुछ न बोलने का निर्देश है तब मणिपुर के बारे में बोल रहे हैं असम राइ फल्स के डायरेक्टर जेनरल लेफ्टिनेंट जेनरल पी.सी. नायर ! कभी रवायत रही थी कि फौज–पुलिस राजनीतिक बयानबाजी नहीं करती थी; उन्हें इसकी अलिखित संवैधानिक–सी मुमानियत थी. लेकिन नया ढर्रा तो यह बना है कि फौज विदेशी मामलों पर नीतिगत बयान देती है; सरकार उससे ही अपने कारनामों पर पुताई करवाती है और हमें महावीर चक्र वाले चूहे दिखाई देने लगते हैं. आज पुलिस काअधिकारी मणिपुर के भूत–भविष्य व वर्तमान की तस्वीर खींचता है. जब लोकतंत्र में से ‘लोक’ खत्म हो जाता है तब ‘तंत्र’ अपनी ही प्रतिध्वनि से आसमान गुंजाता है. अपनी ही सुनता–सुनता है. 

नायर साहब कह रहे हैं कि मणिपुर धीमे–धीमे शांति की तरफ लौट रहा है. और वे बेहद चिंतित हैं कि मणिपुर में बड़े पैमाने पर जो हथियार लूटे गए हैं, वे कहीं गलत हाथों में न पड़ जाएं. राज्य सरकार कह रही है कि सरकारी हथियार गोदाम से जो हथियार लूटे गए हैं, उनका चौथाई भी लौटा नहीं है. नायर साहब कहते हैं कि यदि ये हथियार वापस नहीं लौटे तो इसका मतलब होगा कि ये गलत हाथों में चले गए हैं. उनमें से बहुत सारे आतिवादियों के हाथ में पहुंच गए होंगे. वे गहन विश्लेषण करते हैंऔर कहते हैं कि इन हथियारों की मदद से अतिवाद फिर सर उठा सकता है. उनसे पूछना यह चाहिए कि सरकारी गोदामों से यदि हथियार लूट लिए गए तो आपकी नौकरी अब तक सलामत कैसे है ? उनसे पूछना यह भी चाहिए कि यदि गोदामों से हथियारलूट लिए गए यह सच है, तो क्या इससे यह साबित नहीं होता है कि गोदाम की चाभियां गलत हाथों में थीं ? नायर साहब जैसे बड़ी कुर्सियों वाले अधिकारी होते ही इसलिए हैं कि वे सही व गलत का विवेक करें. आप रो रहे हैं कि हथियार कहींअतिवादियों के हाथ न पहुंच जाएं ? मतलब क्या हथियार दो तरह के लोगों के हाथ में गए हैं : अतिवादी व शांतिवादी ? यहीं समस्या की जड़ है. 

जनजातियों के बीच टकराव का इतिहास बहुत पुराना है. हमारे समाज में जातीय संगठनों के आपसी संघर्ष इसका ही आधुनिक संस्करण हैं. मणिपुर में भी मैतेई व कुकी लोगों के बीच यह पहला संघर्ष नहीं है. फिर क्या हुआ कि इस बार संघर्ष का स्वरूप इतना भयंकर व इतना लंबा हो गया है ? फिर क्या हुआ कि मणिपुर में सत्ता पेट्रोल ले कर आग बुझाने पहुंच गई ? मणिपुर की दो जनजातियों के बीच का संघर्ष देशी–विदेशी हथियारों की जंग में बदल गया तो नायर साहब जैसों की जरूरत क्या हैदेश को ? फौज–पुलिस का काम किसी एक पार्टी की तरफ से खेलना नहीं होता है बल्कि लड़ाई को दबाना होता है. उस रास्ते में कोई भी आए उसे भी उतनी ही सख्ती से रास्ते से हटाना होता है. नायर साहब जैसे इस सच्चाई को छुपा जाते हैं कि हथियारलूटे ही नहीं गए हैं, बांटे भी गए हैं, पहुंचाए भी गए हैं. किसी को सत्ता का सहारा है, तो किसी को बाहरी ताकतों का उकसावा है. हिंदुस्तान उनके बीच पिस रहा है.
(03.11.2023 )
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12TH ફેલ : નિષ્ફળતાઓ વચ્ચેથી ઊગતી સફળતાની સુંદર ફિલ્મ

રવીન્દ્ર પારેખ|Opinion - Opinion|3 November 2023

રવીન્દ્ર પારેખ

સાધારણ રીતે ફિલ્મનું ટાઇટલ આકર્ષક અને ઉત્સાહવર્ધક પસંદ થતું હોય છે, પણ વિધુ વિનોદ ચોપરાની ફિલ્મોનાં ટાઇટલ્સ સૂચક હોય છે. એમની ‘પરિન્દા’, ‘1942 લવસ્ટોરી’, ‘લગે રહો મુન્નાભાઈ’, ‘3 ઈડિયટ્સ’ જેવાં ટાઈટલ્સ એ વાતની સાક્ષી પૂરે એમ છે. ‘12TH ફેલ’ ફિલ્મનાં પોસ્ટરમાં લેટરિંગ પણ સૂચક છે. એમાં FAIL(ફેલ) શબ્દ, ઉપરથી નીચે પછડાયેલો બતાવ્યો છે – જે નિષ્ફળતાનો સૂચક છે. વિધુ વિનોદ ચોપરા બહુ શ્રમ અને કાળજી લઈને ફિલ્મો બનાવે છે. ‘12TH ફેલ’માં જે ઓછું જાણીતું છે એને જ જાણીતું કરવાની કોશિશો થઈ છે. કલાકારો બહુ જાણીતા નથી. વાત જાણીતી છે, પણ ફિલ્મી પડદે બહુ આવી નથી ને એની ફિલ્મ આવી છે. ફિલ્મ સત્યઘટના પર આધારિત છે. એના પરથી તો એ જ નામની અનુરાગ પાઠકે પહેલાં નોવેલ લખી છે ને એ પરથી ફિલ્મ થઈ છે.

ચંબલનાં ગામડાનો 12મી નાપાસ મનોજ શર્મા (વિક્રાંત મેસ્સી) કેવી રીતે જીવલેણ સંઘર્ષ કરીને ગરીબીમાંથી આઇ.પી.એસ. બને છે એની વાત છે. મનોજ શર્મા 12માંની પરીક્ષા આપે છે. પરીક્ષામાં સાહેબે જ પરીક્ષાર્થીઓને એક પછી એક જવાબો લખાવવાનું શરૂ કર્યું છે. એવામાં દુષ્યંત સિંગ (પ્રિયાંશુ ચેટરજી) નામનો ડી.એસ.પી. આવીને ચોરી અટકાવે છે. આચાર્ય ડી.એસ.પી.નું ધ્યાન દોરે છે કે આ વિધાયકની સ્કૂલ છે ને વર્ષોથી આખી સ્કૂલ આમ જ પાસ થાય છે, પણ દુષ્યંત ‘ચીટિંગ’ અટકાવે છે ને આખી સ્કૂલ નાપાસ થાય છે. પોલીસ અધિકારી તરીકે દુષ્યંત એક દિવસ મોડા આવ્યા હોત તો મનોજ પાસ થઈ ગયો હોત ને તેનાં પિતાની મદદથી ક્યાંક પટાવાળા તરીકે ગોઠવાઈ ગયો હોત, પણ એવું થતું નથી. એ સાથે જ દુષ્યંતનો રૂઆબ જોઈને મનોજ એના જેવો અધિકારી બનવાની ઈચ્છા કરે છે, તો દુષ્યંત કહે છે કે એને માટે ‘ચીટિંગ’ છોડવું પડશે. આ વાત મનોજના મનમાં ઘર કરી જાય છે ને આખી સ્કૂલ 12માંની પરીક્ષા ચોરી કરીને ફર્સ્ટ ક્લાસમાં પાસ કરે  છે, પણ મનોજ ચોરી નથી કરતો ને થર્ડ ક્લાસ મેળવે છે. આઇ.પી.એસ. થવા તે ગ્વાલિયર-દિલ્હી પહોંચે છે. અહીં તેને એક મિત્ર પ્રીતમ પાંડે (અનંત જોશી) મળે છે જેનો બાપ કરપ્ટ છે ને પોતાને તે એટલે આઇ.પી.એસ. બનાવવા માંગે છે કે તે પણ વધુને વધુ પૈસા બનાવી શકે, પણ તે નાપાસ થઈ થઈને બાપના પૈસા વેડફ્યા કરે છે.

મનોજને એક નિષ્ફળ કોચ ગૌરી ભૈયા (અંશુમન પુષ્કર) મળે છે. તેનો મંત્ર છે – RESTART ! નિષ્ફળ જવાય તો ફરીથી શરૂ કરો. તે કેન્ટીન શરૂ કરે છે ને મનોજને ચા-કોફીના ગ્લાસ ગ્રાહકોને પહોંચાડવાનું કામ સોંપે છે. એ કહે છે કે બે લાખ હિન્દી મીડિયમના વિદ્યાર્થીઓમાંથી 25-30 જ આઇ.પી.એસ. કે આઇ.સી.એસ. બને છે. આ ભીડ જોઈને કોઈ ટકોર પણ કરે છે કે બધાં આઇ.પી.એસ. બનવા ઘેટાંબકરાની જેમ બસોમાં, ટ્રેનોમાં ભરાઈ ભરાઈને અમસ્તા જ ઊતરી પડે છે. એ સંદર્ભે ગૌરી ભૈયા મનોજને કહે પણ છે કે આ એની એકલાની લડાઈ નથી. કોઈ એક પણ એ જીતશે તો એ પેલા કરોડો ઘેટાંબકરાઓની પણ જીત હશે. મનોજ જેમ જેમ પરીક્ષાઓ ક્લીયર કરતો જાય છે, તેમ તેમ ગૌરી ભૈયા તેને બધાં કામ છોડાવીને ફાઇનલ એક્ઝામ ને ઇન્ટરવ્યૂ માટે તૈયાર કરે છે.

દિલ્હીમાં મનોજને શ્રદ્ધા(મેધા શંકર)નો ભેટો વિકાસ દીવ્યકીર્તિના કોચિંગ ક્લાસમાં થાય છે ને તે તેના પ્રેમમાં પડે છે. શ્રદ્ધા તેને સાથ આપે છે, પણ આઇ.પી.એસ.નો ગોલ ન ચુકાય એટલે પ્રેમનો એકરાર નથી કરતી. એકવાર તો મનોજ ઉત્સાહમાં શ્રદ્ધાને ઘરે મસૂરી પહોંચી જાય છે ને ‘આઈ લવ યુ‘ કહીને કહે છે કે તે પણ જો પ્રેમનો એકરાર કરશે તો તે દુનિયા પલટી નાંખશે, પણ શ્રદ્ધા તેને નકારે છે ને દિલ્હી પાછા જવાનું કહે છે. મનોજ હતાશ થાય છે ને એટલી મહેનત કરે છે કે આઇ.પી.એસ.ની તૈયારી અને અનાજની ઘંટી સમાંતરે ચલાવીને નિર્વાહ કરે છે. એ પહેલાં તેણે ટોઇલેટ સાફ કર્યાં છે, લાઇબ્રેરીમાં પુસ્તકો ગોઠવવાની નોકરી કરી છે. અનેક નિષ્ફળતાઓ પછી તે ફાઇનલ એક્ઝામ ક્લીયર કરે છે ને ઇન્ટરવ્યૂ આપવા યુ.પી.એસ.સી.ની ઓફિસે પહોંચે છે. ઇન્ટરવ્યૂમાં તે 12મું નાપાસ છે એ વાત, બારમું પાસ કર્યાં પછી ને આઇ.પી.એસ.ની ઘણી પરીક્ષાઓ પસાર કર્યાં પછી પણ, તેનો પીછો નથી છોડતી. તે નાપાસ થવાનાં કારણમાં બીજું કોઈ બહાનું બતાવી શક્યો હોત, પણ ચોરી ન થઈ શકી એટલે નાપાસ થયો એવી સ્પષ્ટતા કરે છે. તેને ઇન્ટરવ્યૂમાં બૂટ-ટાઇ પહેરીને ઇમ્પ્રેશન પાડવાનું પણ નથી ફાવતું. તેણે ટાઇ પહેરી જ નથી. તે દેખાડો નથી કરી શકતો. આ બધું ઇન્ટરવ્યૂમાં તેની વિરુદ્ધ જાય એવું તેને લાગે છે. તેને પુછાય પણ છે કે આ છેલ્લો એટેમ્પટ છે ને આઇ.પી.એસ. ન થયા તો શું કરશો? મનોજ કહે છે કે ના થયો તો ગામમાં શિક્ષક થઈશ ને સ્કૂલોમાં ચાલતું ચીટિંગ બંધ કરાવીશ. એ જ વાત કોચ દિવ્યકીર્તિ પણ કહે છે કે આઇ.એ.એસ. બનવામાં કોઈ મોટી વાત નથી. ખુરશી પર તમે બેસો એનાથી તમારી આબરુ વધતી નથી, પણ તમારા બેસવાથી ખુરશીની આબરુ વધે એ મોટી વાત છે. બીજી તરફ ઇન્ટરવ્યૂ લેનાર સાહેબોમાં પણ મતભેદો છે. કોઈને મનોજ યોગ્ય નથી લાગતો, તો કોઈ માને છે કે આવું સાચું બોલનારને નહીં લઇએ તો કોને લઈશું?

મનોજને લાગે છે કે તેની પસંદગી નહીં જ થાય, એટલે તે રિઝલ્ટ જોવા તૈયાર નથી, પણ શ્રદ્ધા ભીની આંખે વધામણી ખાય છે કે તે આઇ.પી.એસ. થઈ ગયો છે ને મનોજ ઘૂંટણીયે પડીને વિખેરાય છે, ત્યારે દર્શકોની આંખો ભીની થઈ જાય છે. એ પછી એ એના પ્રેરણાસ્રોત ડી.એસ.પી.ને મળવા પહોંચે છે. મનોજને આઇ.પી.એસ. થયેલો જાણીને તેને સલામ ઠોકે છે ને ગળે વળગાડી લે છે.

ફિલ્મ પૂરી થાય છે ત્યારે છેલ્લે એક લાઇન મુકાઇ છે કે આ ફિલ્મ એ થોડા અધિકારીઓ માટે છે જે ભ્રષ્ટ થયા વગર ટકી રહ્યા છે.

કલાત્મકતાના કોઈ ધખારા વગરની આ કલાત્મક અને વાસ્તવદર્શી ફિલ્મ છે. એ સીધી હૃદયને સ્પર્શે છે. ફિલ્મનાં કેટલાં ય દૃશ્યો આંખો ભીની કરનારા છે. મનોજના પિતા ખોટું કરવામાં, કાળાબજારીમાં માનતા નથી, એને લીધે એમનો ઓફિસમાં સંઘર્ષ થતો જ રહે છે. એ પિતા થાકીને ભ્રષ્ટ થાય છે. પિતા જુએ છે કે દીકરો લોટ ઊડેલા ચહેરાવાળો, જેલ જેવી કોટડીમાં, એક બલ્બ નીચે, આઇ.પી.એસ.ની તૈયારીમાં ખપી રહ્યો છે, તેનું હૃદય દ્રવી જાય છે ને દીકરાને બધું છોડીને ઘરે આવવાનું કહે છે, ત્યારે દીકરો, પિતાને આશ્વસ્ત કરતાં, અટલબિહારી વાજપેયીની પંક્તિ કહે છે – હાર નહીં માનેંગે. એ પિતા જ્યારે જાણે છે કે દીકરો IPS થયો છે તો પોતાની ઓફિસે દોડે છે એના બોસને એ કહેવા કે એણે IPSના પિતા સાથે બાથ ભીડી છે.

ફિલ્મમાં દાદીનું પાત્ર જાણીતી નાટ્ય અભિનેત્રી સરિતા જોશીએ ભજવ્યું છે. આમ તો મનોજની મા જોડે સાસુપણું બજાવતી દાદી, મનોજ આઇ.પી.એસ. થવા જઇ રહ્યો છે એમ જાણે છે તો, તેનાં પલંગ નીચેની ટ્રંક ખોલાવીને પેન્શનની બધી બચત સોંપતા કહે છે કે હવે આઈ.પી.એસ.ની વર્દીમાં જ પાછો આવજે. દાદી તો એ જોવા પામતી નથી. વચમાં મનોજ ગામ આવે છે તો દાદી ક્યાં છે એવું બહેનને પૂછે છે. દાદીએ જ આગ્રહ રાખેલો કે એને જાણ ન કરવી ને એ આવ્યો છે તો દાદી દેખાતી નથી. એનો ખાલી પલંગ કેમેરા એવી રીતે બતાવે છે કે એમાં ન રહેલી દાદી પણ ક્યાંક દેખાઈ જાય.

દાદી વગરનાં ઘરમાં બધું વ્યવસ્થિત ચાલી રહ્યું છે એ બતાવવા દીકરાના માથામાં તેલ લગાવતી મા વ્હાલથી કહે છે કે હવે તો મોટી થયેલી દીકરી ઘરનું કામ જ કરવા નથી દેતી, ભાઈ બીજે ગામ દહાડી કરે છે એટલે પૈસાનો જુગાડ પણ થઈ ગયો છે, ત્યારે માથું ફેરવીને મનોજ સોંસરું પૂછે છે, ‘ઔર કિતના જૂઠ બોલોગી?’

એક દૃશ્ય છે જેમાં મનોજ અબ્દુલ કલામની આત્મકથાનું પુસ્તક સ્ટોલમાં જુએ છે, ઉપાડે છે ને ફરી હતું ત્યાં મૂકી દે છે. શ્રદ્ધા આ જુએ છે ને મનોજને પાણી લાવવાને બહાને દૂર મોકલે છે. એ પાછો ફરે છે તો શ્રદ્ધા દેખાતી નથી. પછી દેખાય છે તો એના હાથમાં કલામની આત્મકથાનું પુસ્તક ‘વિંગ્સ ઓફ ફાયર’ છે. મનોજ એ લેવાની ના પાડે છે, પણ શ્રદ્ધા તેને ભેટ આપીને જ રહે છે તો કહે છે કે આ પુસ્તક વાંચવાનું તેને ખૂબ મન હતું. કલામ લેમ્પ પોસ્ટની નીચે બેસીને વાંચતાં હતા એ વાતનો ફિલ્મમાં એમ ઉપયોગ થયો છે કે જ્યારે સૂરજ નથી હોતો ત્યારે દીવો જ સૂરજની ગરજ સારે છે.

ફિલ્મના સંવાદો તેનો પ્રાણ છે. મનોજ ફેલ થાય છે તો દાદી કહે છે, ‘ નાપાસ થયો તો ભલે, આવતે વર્ષે પાસ થશે. પરીક્ષા કૈં કુંભનો મેળો નથી કે બાર વર્ષે ભરાય.’ આવાં તો ઘણા સંવાદો છે જે ફિલ્મને ગતિ આપે છે. દિલ્હીમાં પ્રવેશતાં મનોજને ભીડનો, અવાજનો, રોશનીનો પહેલો અનુભવ થાય છે. ભીડ પર ભીડ ઓવર લેપ કરતાં જઈને રૂંધામણનો અનુભવ કેમેરા દ્વારા અપાયો છે. મલિકાગંજની ઘંટીનું લોકેશન, ચમ્બલ નદીનો રાતનો સમય, ગૌરી ભૈયાનો અંધારિયો ક્લાસ વગેરેને રંગરાજન રામભદ્રનની ફોટોગ્રાફીનો લાભ મળ્યો છે, તો શાંતનુ મોઇત્રાનું સંગીત છે. શાંતનુનું બેકગ્રાઉન્ડ મ્યુઝિક ખાસું પ્રભાવક છે, તો સ્વાનંદ કિરકિરેનાં ગીતો છે. ‘યે પતંગે અંબર સે કહેતી હૈ કયા સુન લો..’ શ્રેયા અને શાનના અવાજમાં ગીત સરસ બન્યું છે.

ફિલ્મમાં શૈક્ષણિક સ્તરે ચાલતો રાજકીય ભ્રષ્ટાચાર છે, તો કરપ્શન વધારનારી માનસિકતા પણ છે ને એની વચ્ચે મનોજ સ્વસ્થ આઇ.પી.એસ. તરીકે આટલી ભ્રષ્ટ દુનિયામાં સત્યનો મહિમા કરવા ઊભો થયો છે. એ પણ ખરું કે આટલી ભ્રષ્ટ દુનિયામાં લાંચિયું પોલીસ તંત્ર છે, તો ઓછામાંથી બધું આપીને સત્યને ટકાવનાર મિત્રો છે, પિતા છે, પી.એસ.આઇ. છે. ફિલ્મનું ઘટક તત્ત્વ પ્રેમ છે. પ્રેમ પાડે છે તો બેઠો પણ કરે છે. ગમતો પ્રેમ જતો ન કરાય, પણ તે ઇરાદાઓને મજબૂત કરતો પણ હોવો જોઈએ ને એ શ્રદ્ધાના પાત્ર દ્વારા સુપેરે બતાવાયું છે.

27 ઓક્ટોબરે આ ફિલ્મ રિલીઝ થઈ, પણ થિયેટર ખાલી છે. આમ તો બધાં માટે આ ફિલ્મ છે, પણ જે યુવાનો માટે આ ફિલ્મ બની છે એમને આ ફિલ્મ વિષે કૈં ખબર નથી અથવા તો એમને રસ નથી એ આઘાતજનક છે. કોઈ પણ ઉચ્ચતમ એવોર્ડ આ ફિલ્મને, એના કલાકાર વિક્રાંત મેસ્સીને અચૂક મળે એમ છે. આ ડિરેક્ટરની ફિલ્મ છે, ઉત્તમ સ્ક્રીનપ્લેની, અદ્ભુત અભિનયની ફિલ્મ છે. નેશનલ એવોર્ડ તમામ કેટેગરીમાં આપી શકાય એવી આ ફિલ્મ છે, પણ એને પ્રેક્ષકો જ ન મળે તો વિધુ વિનોદ ચોપરાનો આખો વ્યાયામ જ નિરર્થક ઠરે.

કમ સે કમ આ ફિલ્મને તમામ રાજ્યોમાં કરમુક્ત જાહેર કરવી જોઈએ…

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e.mail : ravindra21111946@gmail.com
પ્રગટ : ‘આજકાલ’ નામક લેખકની કટાર, “ધબકાર”, 03 નવેમ્બર 2023

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