Opinion Magazine
Number of visits: 9456803
  •  Home
  • Opinion
    • Opinion
    • Literature
    • Short Stories
    • Photo Stories
    • Cartoon
    • Interview
    • User Feedback
  • English Bazaar Patrika
    • Features
    • OPED
    • Sketches
  • Diaspora
    • Culture
    • Language
    • Literature
    • History
    • Features
    • Reviews
  • Gandhiana
  • Poetry
  • Profile
  • Samantar
    • Samantar Gujarat
    • History
  • Ami Ek Jajabar
    • Mukaam London
  • Sankaliyu
    • Digital Opinion
    • Digital Nireekshak
    • Digital Milap
    • Digital Vishwamanav
    • એક દીવાદાંડી
    • काव्यानंद
  • About us
    • Launch
    • Opinion Online Team
    • Contact Us

हिंदू राष्ट्र का राग फिर गाया आरएसएस प्रमुख ने, बताई भाजपा राजनैतिक दिशा

राम पुनियानी|Opinion - Opinion|25 October 2024

राम पुनियानी

गत 12 अक्टूबर को विजयादशमी (दशहरा) का त्यौहार था. इस दिन आरएसएस का स्थापना दिवस मनाया जाता है. परंपरा है कि इस दिन आरएसएस प्रमुख (सरसंघचालक) का संबोधन होता है. परंपरा के अनुरूप, डॉ मोहन भागवत ने भाषण दिया. यह भाषण उनके उस महत्वपूर्ण भाषण के कुछ दिन बाद हुआ जो उन्होंने 2024 के आमचुनाव में भाजपा के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद दिया था. उस भाषण में उन्होंने नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाया था. चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने यह दावा किया था कि वे ‘नॉन बायोलॉजिकल’ हैं और उन्हें लगता है कि उन्हें ईश्वर ने धरती पर भेजा है. चुनाव में भाजपा की सीटें 303 से घटकर 240 हो जाने की पृष्ठभूमि में भागवत ने कहा “एक आदमी पहले सुपरमैन बनना चाहता है, फिर देव, और फिर ईश्वर.”

शायद यह पहला चुनाव था जिसमें भाजपा ने यह दावा किया था कि पहले वह आरएसएस से मदद मांगती थी क्योंकि उसकी अपनी ताकत कम थी. लेकिन अब वह अब पहले से ज्यादा शक्तिशाली हो गई है.

इस भाषण में भागवत ने मोदी के बढ़ते दंभ पर चोट की और तत्पश्चात संघ परिवार ने हरियाणा के चुनाव में पूरी ताकत झोंक दी. चुनाव आयोग की मदद से की गई जोड़तोड़ से भाजपा ने चुनाव जीत लिया, जबकि आम धारणा यह थी कि राज्य में कांग्रेस की जीत निश्चित है.

दशहरे के अपने भाषण में भागवत ने भाजपा की अधिकांश नीतियों का एक बार फिर जिक्र किया, गैर-भाजपा शासित राज्यों की सरकारों की आलोचना की और आरएसएस के असली लक्ष्यों की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए हिंदुत्व की राजनीति के केन्द्रीय तत्वों की चर्चा की. मोहन भागवत ने कहा, “‘डीप स्टेट’, ‘वोकिज्म’, ‘कल्चरल मार्क्सिस्ट’ शब्द इस समय चर्चा में हैं और ये सभी सांस्कृतिक परंपराओं के घोषित दुश्मन हैं. समाज (का) मन बनाने वाले तंत्र व संस्थाओं – उदाहरण के लिए शिक्षा तंत्र व शिक्षा संस्थान, संवाद माध्यम, बौद्धिक संवाद आदि – को अपने प्रभाव में लाना, उनके द्वारा समाज के विचार, संस्कार, आस्था आदि को नष्ट करना, यह इस कार्यप्रणाली का प्रथम चरण होता है. एक साथ रहने वाले समाज में किसी घटक को उसकी कोई वास्तविक या कृत्रिम रीति से उत्पन्न की गई….समस्या के आधार पर अलगाव के लिए प्रेरित किया जाता है. असंतोष को हवा देकर उस घटक को शेष समाज से अलग, व्यवस्था के विरुद्ध उग्र बनाया जाता है…व्यवस्था, शासन, प्रशासन आदि के प्रति अश्रद्धा व द्वेष को उग्र बना कर अराजकता  व भय का वातावरण खड़ा किया जाता है. इससे (उनके लिए) उस देश पर अपना वर्चस्व स्थापित करना सरल हो जाता है.”

एक अपेक्षाकृत कम प्रचलित शब्द ‘वोकिज्म’ का इस्तेमाल अधिकांशतः दक्षिणपंथियों द्वारा “सामाजिक और राजनैतिक अन्यायों के प्रति संवेदनशील रवैया रखने वाले लोगों को अपमानित करने के लिए किया जाता है”. यह भागवत के भाषण का केन्द्रीय मुद्दा था. इस समय हिंदू दक्षिणपंथी देश के सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य पर हावी हैं और संघ परिवार ने शाखाओं, सरस्वती शिशु मंदिरों और एकल विद्यालयों जैसे स्कूलों के विशाल नेटवर्क और समाज में होने वाली चर्चाओं व बातचीत के जरिए समाज में जाति व लैंगिक भेदभाव के प्रति समर्थन का माहौल बना दिया है. हाल के वर्षों में संघ परिवार के प्रति सहानुभूति रखने वाले बड़े कारोबारी घरानों द्वारा नियंत्रित मीडिया और भाजपा के आईटी सेल के सहारे समाज के बड़े हिस्से का नजरिया हिंदू राष्ट्रवाद के पक्ष में कर दिया है.

आखिर वोकिज्म क्या करता है? वह एक न्यायपूर्ण समाज स्थापित करना चाहता है. वह जाति, धर्म, रंग, भाषा आदि के आधार पर भेदभाव के खिलाफ होता है और एलजीबीटी के अधिकारों का समर्थन करता है. सभी के एकसमान अधिकारों की यह बात ब्राम्हणवादी मूल्यों के समर्थकों को चुभती है क्योंकि ये मूल्य ही हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति के केन्द्र में हैं. मोटे तौर पर यह बात धर्म का चोला ओढ़े तालिबान, मुस्लिम ब्रदरहुड और बौद्ध धर्म के नाम पर श्रीलंका और म्यांमार में की जा रही राजनीति और ईसाई कट्टरपंथियों पर भी लागू होती है. स्थानीय परिस्थितियों के मुताबिक यह विभिन्न स्वरूपों में सामने आती है.

इसी सोच के चलते हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा के संस्थापक मनुस्मृति के प्रशंसक थे, क्योंकि उसमें दलितों और महिलाओं को निम्न दर्जा दिया गया है. आरएसएस मुसलमानों और ईसाईयों को विदेशी मानता है और उसने 1984 में हुए सिक्खों के नरसंहार का दबे-छुपे ढंग से समर्थन किया था. दक्षिणपंथी राजनीति वोकिज्म को इसलिए बुरा मानती है क्योंकि वह समानता के मूल्यों की पक्ष्धर है, जो किसी भी सामाजिक आंदोलन का अंतिम लक्ष्य माना जाता है. यही वजह है कि वंचितों के ज्यादातर आंदोलन लोकतंत्र का पूरे जोशोखरोश से समर्थन करते हैं. जहां एक ओर दलितों, महिलाओं औैर एलजीबीटी समुदाय के आंदोलनों को भारत के हिंदू राष्ट्रवादी हेय दृष्टि से देखते हैं, वहीं मुस्लिम-बहुल देशों में, जहां कट्टरपंथियों का राज है, महिलाएं निशाने पर होती हैं. संघ परिवार चाहता है कि समानता के मूल्यों का स्थान असमानता के पैरोकार ‘प्राचीन स्वर्णकाल के मूल्य’ ले लें और यही कारण है कि संघी विचारक बार-बार वोकिज्म जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं. उनके लिए यह वंचितों के अधिकारों का समर्थन करने वाले मूल्यों और आंदोलनों का पर्याय है.

आरएसएस और भाजपा के परस्पर संबंध संघ परिवार का आंतरिक मसला है, मगर दोनों के मूलभूत मूल्य एक समान हैं. यह इसके बावजूद कि दोनों के बीच अहं का टकराव होता रहता है. अन्य मसलों पर भाजपा उसी राह पर चल रही है जिन्हें भागवत ने अपने भाषण में दुहराया. उन्होंने गैर-भाजपा शासित राज्यों की सरकारों की आलोचना की. उन्होंने कहा, “इसके चलते आज देश की वायव्य सीमा से लगे पंजाब,जम्मू-कश्मीर, लद्दाख; समुद्री सीमा पर स्थित केरल, तमिलनाडु तथा बिहार  से मणिपुर तक का संपूर्ण पूर्वांचल अस्वस्थ है”. जब वे लद्दाख और मणिपुर को एक ही श्रेणी में रखते हैं, तब उनकी पोल खुल जाती है.

मणिपुर में कुकी समुदाय, विशेषकर उसकी महिलाओं के विरूद्ध भयानक हिंसा हुई है. इस पर भाजपा शासन का उदासीनतापूर्ण और निष्ठुर रवैया वाकई चिंताजनक है. जहां तक लद्दाख का सवाल है, हमने देखा है कि वहां पर्यावरण संरक्षण और समान नागरिकता अधिकारों की मांग जैसे मुद्दों पर आंदोलन हो रहे हैं और ये ऐसे मुद्दे हैं जिन पर केन्द्रित आंदोलन होना स्वागतयोग्य एवं प्रशंसनीय है. लद्दाख का आंदोलन पूर्णतः शांतिपूर्ण रहा है. इस आन्दोलन का सोनम वांगचुक का विलक्षण नेतृत्व इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखा जाएगा. आरएसएस की संतान भाजपा ने लद्दाख के आंदोलन को जिस तरह नजरअंदाज किया, वह समकालीन भारतीय इतिहास का एक काला पृष्ठ है.

आर. जी. कर मेडिकल कालेज में हुई त्रासदी का जिक्र कर और महिला पहलवानों और दलित लड़कियां पर अत्याचारों के मामलों पर चुप्पी साधकर संघ प्रमुख ने पक्षपातपूर्ण रवैया प्रदर्शित किया है. एक बार इन्हीं सज्जन ने दावा किया था कि दुष्कर्म इंडिया (शहरी क्षेत्रों) में होते हैं और ‘भारत’ में नहीं. सच्चाई यह है कि भाजपा शासित राज्यों में ऐसी ज्यादातर घटनाएं ग्रामीण इलाकों या छोटे शहरों में हुई हैं. सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय द्वारा जारी की गई एक रपट के अनुसार, “दलितों पर होने वाले अत्यचारों के मामले में स्थिति चिंताजनक है…उत्तरप्रदेश में ऐसे सर्वाधिक 12,287 प्रकरण दर्ज किए गए, उसके बाद 8,651 प्रकरणों के साथ राजस्थान एवं 7,732 प्रकरणों के साथ मध्यप्रदेश का स्थान रहा”.

उनके भाषण का सबसे मजेदार हिस्सा वह था जिसमें उन्होंने हिंदुओं से एकताबद्ध और सशक्त बनने का आव्हान किया क्योंकि कमजोर अपनी रक्षा स्वयं नहीं कर पाते. क्या हम भारतीय होने के नाते एक नहीं हैं? यदि हम संविधान के अनुसार भारतीयों के रूप में एकताबद्ध बनें तो इसमें क्या दिक्कत है? लेकिन भागवत से कुछ और अपेक्षा करना तर्कसंगत नहीं होगा क्योंकि भारतीय संविधान के प्रति उनकी आस्था भी मात्र चुनावी लाभ के लिए संघ परिवार द्वारा किये जा रहे नाटक के सिवाय कुछ नहीं है.

22 अक्टूबर  2024
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

Loading

એક હતી નદી 

રમણીક અગ્રાવત|Poetry|24 October 2024

મોં વકાસીને પડેલાં હોડકાં

ગૂંચવાઈ ગયેલી જાળ

તરડાયેલો ખળખળાટ

છે કે ક્યાં ય જતી રહી છે નદી સડસડાટ? 

ખાબોચિયાંઓને પાર કરાવતો પુલ

કોઈ દુ:સ્વપ્નની જેમ

ભીંસે છે નદીનાં મેલાઘેલા શરીરને. 

છાતી માથે હડી કાઢતી સડક

કાળી ટીલીની જેમ

ચોંટી છે ભમરાળી નદીનાં કપાળે. 

ગળચી ગયા

ભૂખ્યા કાંઠાઓ

નદી જેવી નદીને. 

ગમે તેટલાં એકઠાં થાય આંસુઓ

તો ય ન બની શકે એક નદી. 

[પ્રગટ : “એતદ્દ”; જુલાઈ – સપ્ટેમ્બર ૨૦૨૪]

Loading

આમુખમાં સુધારા સામે સર્વોચ્ચ અદાલતની લાલબત્તી

પ્રકાશ ન. શાહ|Opinion - Opinion|24 October 2024

બિનસાંપ્રદાયિકતા, સુપ્રીમ ટિપ્પણી 

આમુખ સિવાય બંધારણમાં ક્યાં ય બિનસાંપ્રદાયિકતા અને સમાજવાદનો નામજોગ ઉલ્લેખ નથી, પણ બેઉ જુદી જુદી કલમજોગવાઈઓમાંથી ફોર્યાં કરે છે

પ્રકાશ ન. શાહ

બંધારણના આમુખમાંથી બિનસાંપ્રદાયિકતા (સેક્યુલરિઝમ) અને સમાજવાદ (સોશલિઝમ) એ બે સંજ્ઞાઓ પડતી મૂકવાની સુબ્રમણ્યમ સ્વામી અને બીજાઓની યાચિકાઓ સર્વોચ્ચ અદાલતે નકારી કાઢી છે તે ખરું જોતાં આપણે સારુ એક અચ્છો સહવિચાર અવસર લઈને આવતી બીના છે. 

કંઈક વાજપેયીના શાસનકાળમાંથી, સવિશેષ અલબત્ત ન.મો. કાર્યકાળમાં બિનસાંપ્રદાયિકતા બાબતે ઊહાપોહનું વલણ, ઓછાવત્તા પ્રમાણમાં વિરોધસૂરની રીતે રહ્યું છે. હમણાં થોડા વખત પર રાજ્યપાલ રવિએ પણ તે એક ભારતીય નહીં પરંતુ પશ્ચિમી વિભાવના હોવાની તરજ પર બહસ છેડવાની કોશિશ કરી જ હતી. 

રાજ્યપાલ રવિ અને સુબ્રમણ્યમ સ્વામીની એક દલીલ જો કે એ રહી છે કે આમુખમાં બેતાલીસમાં સુધારા થકી બિનસાંપ્રદાયિકતા ને સમાજવાદ સંજ્ઞાઓ દાખલ કરાઈ હતી. 1976ના કટોકટી-રાજના વારામાં આ બન્યું હતું. એ સંદર્ભ પણ લક્ષમાં રાખવો જોઈએ એવું પણ એમનું કહેવું હતું અને છે. વાત સાચી કે આમુખમાં તે જે કાળે દાખલ કરાયાં એને  ઇતિહાસની રીતે એક વણછો જરૂર લાગ્યો છે. પણ બંધારણ ઘડતરની ચર્ચાઓ અને તેના એકંદર અમલનો સહેજે સાત-આઠ દાયકાનો આખો ગાળો લક્ષમાં લઈએ તો બિનસાંપ્રદાયિકતા બધો વખત એક સ્વીકાર્ય મૂલ્ય રહેલ છે, અને જનતા પક્ષમાંથી છૂટા થયા પછી ભા.જ.પે. પણ પોતાની મૂળભૂત નિષ્ઠાઓમાં હકારાત્મક (પોઝિટિવ) એ વિશેષણ ઉમેરીને બિનસાંપ્રદાયિકતાવાદનો સ્વીકાર નથી કર્યો એવું નહીં કહી શકાય. 

એક રસપ્રદ ને વિચારણીય મુદ્દો કદાચ એ છે કે બંધારણમાં ક્યાં ય બિનસાંપ્રદાયિકતા ને સમાજવાદનો નામ જોગ કલમી ઉલ્લેખ નથી. પણ જે નાનાવિધ બંધારણીય જોગવાઈઓ છે, ગૃહમાંથી ઘડતરકાળની ચર્ચાઓ છે, તે બધાં વાટે નેહરુ-આંબેડકર પર્વના વારાથી બંને સંજ્ઞાઓ વણલખી પણ સતત ફોરતી રહી છે. બોમ્માઈ ચુકાદામાં હમણેની ટિપ્પણી હો, બધો વખત જ્યારે પણ બિનસાંપ્રદાયિકતાનો પ્રશ્ન ઊઠ્યો એને બંધારણના મૂળભૂત માળખાના અંગભૂત તરીકે નિર્વિવાદ સ્વીકૃતિ મળી રહી છે. 

બંધારણ સભાએ આંબેડકરથી માંડી નેહરુ ને બીજાઓ સહિતની સક્રિય-સતર્ક સામેલગીરીપૂર્વક નામજોગ ઉલ્લેખ ટાળ્યો એમાં એ બુનિયાદી સમજ કામ કરી ગઈ છે કે જે અર્થમાં ને જે સંદર્ભમાં પશ્ચિમે બિનસાંપ્રદાયિકતાની વાત કરી – એમાં ય ખાસ તો ફ્રેન્ચ બંધારણના ઉજાસમાં – તે આપણી પ્રણાલિકામાં બેસતું નથી. સોવિયેત બંધારણે જેમ ધર્મવિરોધી ભૂમિકા લીધી હતી કે બ્રિટન આદિ અન્ય યુરોપીય મુલકોમાં રાજ્ય અને ધર્મતંત્ર (ચર્ચ) વચ્ચેના સંબંધનો સવાલ છે તે પ્રશ્ન આપણે ત્યાં નથી.

આપણે સ્વરાજ સુધી પહોંચતાં વિભાજનની હદે જે યંત્રણાનો ભોગ બન્યા એને કારણે ધરમમજહબ આધારિત રાષ્ટ્રની વ્યાખ્યા એક સતત ચિંતા ને નિસબતની બાબત રહી છે. બંધારણના ઘડવૈયાઓએ, કહો કે, સ્થાપક પિતાઓએ એની ખાસ કાળજી લીધી છે. હિંદુરાષ્ટ્રનો ખયાલ, આપણા આ બંધારણીય અભિગમ સાથે છત્રીસનો સંબંધ ધરાવતો અનુભવાતો રહ્યો છે. આ ખયાલને ચોક્કસ જ એક અસુખ છે જે તેને અને દેશને પજવ્યા કરે છે. 

એક કાળે જેમ હિંદુ ધર્મ, અમારામાં સરકારી દખલ નહીં તે ધોરણે રૂઢિદાસ્યનું વલણ દાખવતો હતો તેમ આજે કેટલાંક ઇસ્લામી વર્તુળોમાંથીયે અનુભવાતો રહે છે. આનો ઉગાર હિંદુત્વની જોહાકીના રાજકારણમાં નથી પણ બંધારણીય ભૂમિકાને ધોરણે કામ લેવામાં છે. જોહાકી જે વમળો ને પ્રત્યાઘાત જગવે છે તે સ્વસ્થ રાષ્ટ્રવાદના હિતમાં મુદ્દલ નથી. તેમ, મજહબને નામે રૂઢિદાસ્યનો પુરસ્કાર ન તો, સ્વસ્થ ધર્મભાવનાની તરફેણમાં છે, ન તો નવયુગી નાગરિક ભાવનાની તરફેણમાં.

સર્વોચ્ચ અદાલતની ખંડપીઠે એની તાજી ટિપ્પણીમાં કહ્યું છે તેમ નવા સમાજની દિશામાં જવા સારુ બંધુત્વ અને સમાનતાલક્ષી જે જોગવાઈઓ બંધારણની કલમોમાં છે એમાંથી બિનસાંપ્રદાયિકતા અને સમાજવાદનાં મૂલ્યો સર્વે છે. વાત સાચી કે સમાજવાદની વ્યાખ્યા પરિવર્તન પામતી રહી છે. પણ સમાન અવસરો અને વિષમતા નિર્મૂલન એ બે પાયાનાં મૂલ્યો હતાં, છે અને રહેશે. લઘુમતીવાદ અને બહુમતીવાદ બેઉની આરપાર જતો આ મુદ્દો છે.

Editor: nireekshak@gmail.com
પ્રગટ : ‘પરિપ્રેક્ષ્ય’, “દિવ્ય ભાસ્કર”; 23 ઑક્ટોબર 2024

Loading

...102030...377378379380...390400410...

Search by

Opinion

  • ‘ફૂલ નહીં તો ફૂલની પાંખડી’ પણ હવે લાખોની થઈ ગઈ છે…..
  • લશ્કર એ કોઈ પવિત્ર ગાય નથી
  • ગરબા-રાસનો સૌથી મોટો સંગ્રહ
  • સાઇમન ગો બૅકથી ઇન્ડિયન્સ ગો બૅક : પશ્ચિમનું નવું વલણ અને ભારતીય ડાયસ્પોરા
  • ગુજરાતી ભાષાની સર્જકતા (૫)

Diaspora

  • ઉત્તમ શાળાઓ જ દેશને મહાન બનાવી શકે !
  • ૧લી મે કામદાર દિન નિમિત્તે બ્રિટનની મજૂર ચળવળનું એક અવિસ્મરણીય નામ – જયા દેસાઈ
  • પ્રવાસમાં શું અનુભવ્યું?
  • એક બાળકની સંવેદના કેવું પરિણામ લાવે છે તેનું આ ઉદાહરણ છે !
  • ઓમાહા શહેર અનોખું છે અને તેના લોકો પણ !

Gandhiana

  • અમારાં કાલિન્દીતાઈ
  • સ્વરાજ પછી ગાંધીજીએ ઉપવાસ કેમ કરવા પડ્યા?
  • કચ્છમાં ગાંધીનું પુનરાગમન !
  • સ્વતંત્ર ભારતના સેનાની કોકિલાબહેન વ્યાસ
  • અગ્નિકુંડ અને તેમાં ઊગેલું ગુલાબ

Poetry

  • બણગાં ફૂંકો ..
  • ગણપતિ બોલે છે …
  • એણે લખ્યું અને મેં બોલ્યું
  • આઝાદીનું ગીત 
  • પુસ્તકની મનોવ્યથા—

Samantar Gujarat

  • ખાખરેચી સત્યાગ્રહ : 1-8
  • મુસ્લિમો કે આદિવાસીઓના અલગ ચોકા બંધ કરો : સૌને માટે એક જ UCC જરૂરી
  • ભદ્રકાળી માતા કી જય!
  • ગુજરાતી અને ગુજરાતીઓ … 
  • છીછરાપણાનો આપણને રાજરોગ વળગ્યો છે … 

English Bazaar Patrika

  • Letters by Manubhai Pancholi (‘Darshak’)
  • Vimala Thakar : My memories of her grace and glory
  • Economic Condition of Religious Minorities: Quota or Affirmative Action
  • To whom does this land belong?
  • Attempts to Undermine Gandhi’s Contribution to Freedom Movement: Musings on Gandhi’s Martyrdom Day

Profile

  • અમારાં કાલિન્દીતાઈ
  • સ્વતંત્ર ભારતના સેનાની કોકિલાબહેન વ્યાસ
  • જયંત વિષ્ણુ નારળીકરઃ­ એક શ્રદ્ધાંજલિ
  • સાહિત્ય અને સંગીતનો ‘સ’ ઘૂંટાવનાર ગુરુ: પિનુભાઈ 
  • સમાજસેવા માટે સમર્પિત : કૃષ્ણવદન જોષી

Archives

“Imitation is the sincerest form of flattery that mediocrity can pay to greatness.” – Oscar Wilde

Opinion Team would be indeed flattered and happy to know that you intend to use our content including images, audio and video assets.

Please feel free to use them, but kindly give credit to the Opinion Site or the original author as mentioned on the site.

  • Disclaimer
  • Contact Us
Copyright © Opinion Magazine. All Rights Reserved