
राम पुनियानी
हाल (31 दिसंबर 2024) में शिवगिरी तीर्थयात्रा के सिलसिले में आयोजित एक सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए केरल के मुख्यमंत्री पिनारई विजयन ने स्वामी सच्चितानंद के इस प्रस्ताव का समर्थन किया कि मंदिरों में प्रवेश करते समय पुरुषों द्वारा कमीज उतारने और शरीर के ऊपरी हिस्से पर कोई वस्त्र न पहनने की प्रथा को समाप्त किया जाए. यह माना जाता है कि यह परंपरा इसलिए स्थापित हुई ताकि उन लोगों की पहचान हो सके जो जनेऊ नहीं पहने हुए हैं. जनेऊ पहनने का अधिकार सिर्फ उच्च जातियों के लोगों को था. कुछ लोग इस व्याख्या पर शंका जाहिर करते हैं लेकिन धड़ को खुला करने की कोई और वजह रही होगी, इसकी संभावना बहुत कम है. जनेऊ न पहने हुए लोगों का मंदिर में प्रवेश प्रतिबंधित रहता था. विजयन ने यह भी कहा कि ऐसा प्रचार कि जा रहा है कि सुप्रसिद्ध समाज सुधारक नारायण गुरू, सनातन परंपरा का हिस्सा थे. यह दावा बिल्कुल गलत है क्योंकि नारायण गुरू “एक जाति, एक धर्म, एक ईश्वर” के नजरिए का प्रचार करते थे और जाति और धर्म के बंधनों से परे समानता का भाव, सनातन धर्म की मूलभूत मान्यताओं के एकदम विपरीत है.
विजयन ने यह भी कहा कि गुरू का जीवन एवं उनके कार्य आज भी अत्यंत प्रासंगिक हैं क्योंकि इन दिनों धार्मिक भावनाओं का उपयोग हिंसा भड़काने के लिए किया जा रहा है. नारायण गुरू मात्र एक धार्मिक नेता नहीं थे. वे एक महान मानवतावादी थे. विजयन के विरोधी यह कहकर उनकी आलोचना कर रहे हैं कि मुख्यमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान हिंदुओं को तंग किया जा रहा है. वे सबरीमाला का उदाहरण देते हैं जिसके मामले में सत्ताधारी दल ने सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले का समर्थन करने का फैसला किया था जिसमें न्यायालय ने रजस्वला स्त्रियों को भी पवित्र मंदिर में प्रवेश की इजाजत देने का आदेश दिया था. भाजपा के प्रवक्ता इस मामले में भी विजयन पर सनातन धर्म का अपमान करने का आरोप लगा रहे हैं.
यह दूसरी बार है जब सनातन बहस और विवादों के केन्द्र में आ गया है. ऐसा पहली बार तब हुआ था जब तमिलनाडु के उदयनिधि स्टालिन ने सनातन के खिलाफ बातें कहीं थीं. भाजपा-आरएसएस का कहना है कि सनातन को मात्र जाति और चतुर्यवर्ण तक सीमित नहीं रखा जा सकता. यहां यह उल्लेखनीय है कि केरल ने 2022 में गणतंत्र दिवस परेड हेतु जो झांकी प्रस्तावित की थी उसमें नारायण गुरू को दिखाया गया था. रक्षा मंत्रालय की चयन समिति का कहना था कि केरल की झांकी में नारायण गुरू के स्थान पर कालाड़ी के शंकराचार्य को प्रदर्शित किया जाए. यही झांकी को अस्वीकार करने का मुख्य कारण था.
वैसे सनातन का अर्थ होता है शाश्वत या प्राचीन. और इसका इस्तेमाल बौद्ध, जैन और हिंदू धर्म के लिए किया जाता है. हिंदू धर्म का न तो कोई एक पैगम्बर है और ना ही कोई एक पवित्र पुस्तक. हिंदू शब्द किसी भी पवित्र धर्मग्रंथ में नहीं मिलता. इसकी दो प्रमुख धाराएं हैं – ब्राम्हणवाद और श्रमणवाद. ब्राम्हणवाद स्तरीकृत असमानता और पितृसत्तात्मक मूल्यों पर आधारित है. अम्बेडकर ने इसी हिंदू धर्म को त्याग दिया था क्योंकि उनका मानना था कि इसमें ब्राम्हणवादी मूल्यों का बोलबाला है. श्रमणिक परंपराओं में नाथ, अजीविक, तंत्र, भक्ति आदि परंपराएं सम्मिलित हैं जिनमें असमानता के मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं है.
आजकल सामान्य वार्तालाप में सनातन धर्म और हिन्दू धर्म शब्दों का प्रयोग समानार्थी के रूप में किया जाता है. कई विचारक दावा करते हैं कि हिंदुत्व कोई धर्म नहीं है वरन् धर्म पर आधारित जीवनशैली है. उनके अनुसार धर्म और मजहब एक ही चीज नहीं हैं. सनातन धर्म की मुख्य पहचान हैं वर्ण व्यवस्था, जाति आधारित असमानता और इससे जुड़ी परंपराओं से चिपके रहना. इसमें धर्म को धार्मिक कर्तव्यों के पालन के रूप में देखा जाता है. समाजसुधारकों का विरोध उस धर्म के प्रति है जो असमानता पर आधारित है.
जैसे हम अम्बेडकर का उदाहरण लें. वे बुद्ध, कबीर और जोतिराव फुले को अपना गुरू मानते थे. उनकी दृष्टि में महत्वपूर्ण था जाति और लिंग आधारित असमानता का अस्वीकार. मध्यकालीन भारत में कबीर, तुकाराम, नामदेव, नरसी मेहता और उनके जैसे अन्य संतों ने जाति व्यवस्था की खिलाफत की और उनमें से कईयों को उच्च जातियों के प्रभु वर्ग के हमलों का सामना करना पड़ा. नारायण गुरू एक महान समाज सुधारक थे जो जाति व्यवस्था के खिलाफ थे और धार्मिक विभाजनों के ऊपर थे. इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि वर्तमान सरकार, जो ब्राहम्णवादी हिंदुत्व की पैरोकार है, केरल की उस झांकी को नामंजूर करती है जिसमें नारायण गुरू को दिखाया गया हो.
नारायण गुरू अत्यंत मानवीय व्यक्ति थे. वे जब बड़े हो रहे थे तब आध्यात्म और योगाभ्यास से उनका गहन साक्षात्कार हुआ. अपनी तत्वज्ञान-केन्द्रित यात्रा के दौरान सन् 1888 में वे अरूविपुरम पहुंचे जहां उन्होंने ध्यान किया. वहां रहने के दौरान ही उन्होंने नदी से एक पत्थर उठाया, उसमें प्राण प्रतिष्ठा की और उसे शिव की मूर्ति कहा. इसके बाद से उस स्थान को अरूविपुरम शिव मंदिर के नाम से जाना जाने लगा. इसे अरूविपुरम प्रतिष्ठा के नाम दिया गया. इससे समाज में काफी खलबली मची और खासतौर पर ऊंची जाति के ब्राम्हणों ने इसका बहुत विरोध किया.
उन्होंने गुरू के मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा करने के अधिकार को स्वीकार नहीं किया. इस पर गुरू का जवाब था “ये ब्राह्मणों के शिव नहीं हैं बल्कि इडिवा लोगों के शिव हैं”. उनका यह कथन आगे चलकर बहुत मशहूर हुआ और इसका उपयोग जाति प्रथा का विरोध करने के लिए किया जाता है. उन्होंने अपना पूरा जीवन जाति प्रथा के विरूद्ध संघर्ष के लिए समर्पित कर दिया. उनके क्रियाकलाप समाज में गहरे तक बैठी जाति प्रथा को चुनौती देने के अत्यंत व्यवाहारिक साधन बने. गुरू का क्रांतिकारी विचार था “एक जाति, एक धर्म एक ईश्वर”.
वे जाति और धर्म आधारित विभाजन के परे मानवमात्र की एकता की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं. आगे चलकर उन्होंने एक स्कूल खोला, जिसमें नीची जातियों के लोग भी प्रवेश ले सकते थे. यह बहुत हद तक वैसा ही था जैसा कि जोतिराव फुले ने महाराष्ट्र में किया था. अम्बेडकर के कालाराम मंदिर आंदोलन के पीछे जो विचार था, उसी के अनुरूप गुरू ने ऐसे मंदिर बनवाए जिनमें सभी जातियों के लोगों को प्रवेश की इजाजत थी.
स्वामी सच्चितानंद द्वारा हाल में दिए गए सुझाव, जिसका पिनाराई विजयन ने समर्थन किया है, के पीछे तर्क यह है कि धड़ पर कोई वस्त्र न होना इसलिए उचित नहीं होगा क्योंकि इससे संक्रामक रोग फैल सकते हैं. बहुत सी प्रथाओं में समय के साथ बदलाव जरूरी होता है. एक समय था जब महिलाओं को अपने स्तन ढकने की अनुमति नहीं थी और स्तन ढकने वाली महिलाओं को स्तन कर अदा करना पड़ता था. जब टीपू सुल्तान ने केरल पर जीत हासिल की तब उसने महिलाओं पर लगने वाले स्तन कर को समाप्त किया और महिलाओं को स्तन ढकने का अधिकार मिलने से गरिमा हासिल हुई.
मंदिर हमारे सामुदायिक जीवन का भाग हैं. सामाजिक प्रतिमानों में परिवर्तन के साथ मंदिरों में वस्त्र-संबंधी मर्यादाओं में भी बदलाव आवश्यक है. इनका विरोध करना घड़ी की सूईयों को विपरीत दिशा में घुमाने जैसा होगा. धर्म के नाम पर होने वाली राजनीति में प्रायः हमेशा सामाजिक बदलावों और राजनैतिक मूल्यों में परिवर्तन का विरोध होता है. केरल का उदाहरण यह भी दिखाता है कि विभिन्न क्षेत्रों में कितने विरोधाभास होते हैं. यहां एक ओर कलाडी के आचार्य शंकर थे जिन्होंने वाद-विवाद के दौरान बौद्धों को प्रतिउत्तर दिया. बौद्धों ने भौतिकतावादी आधारों पर सांसारिक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करने का तर्क दिया वहीं शंकर ने मोटे तौर पर दुनिया को एक भ्रम बताते हुए आदर्शवादी दर्शन का समर्थन किया.
केरल सहित आज के भारत में हमारे लिए नारायण गुरू और कबीर के बताए रास्ते पर चलना जरूरी है जिनके मानवीय मूल्यों ने समाज को बंधुत्व की ओर अग्रसर किया. कट्टरपंथी ‘यथास्थितिवाद’ज्यादातार मामलों में समाज के विकास को बाधित करता है.
बुधवार, 15 जनवरी 2025
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
![]()


ગાંધીજીના વ્યક્તિત્વનું ઘડતર એક અતિ રસપ્રદ વિષય છે. ચીવટ, ચોકસાઈ, આગ્રહ, બાહ્યાન્તર સ્વચ્છતા, પવિત્રતા, ભલાઈ એમને વારસામાં મળ્યાં હતાં. ગુજરાતની સંસ્કૃતિના લાક્ષણિક સદ્ગુણો-ઊંડી વ્યવહાર-બુદ્ધિ (Common-Sense), સમાધાનવૃત્તિ, અહિંસાવૃત્તિ, કર્મશીલતા – એમનામાં પરાકાષ્ઠાએ પહોંચ્યા હતા. જાણે ગુજરાતની હજાર વર્ષની સંસ્કૃતિએ ગાંધીરૂપે માનવદેહ ધારણ કર્યો હતો!
આમજનતાને દોરવાને માટે, એમની પ્રવૃત્તિઓમાં સળંગસૂત્રતા આણવા માટે સ્વદેશપ્રેમી ત્યાગવૃત્તિવાળા સમર્થ નેતાઓની જરૂર હતી. એ માટે ગાંધીજીએ જ્યાં જ્યાં સત્ત્વ જોયું ત્યાં ત્યાં, પોતાના વ્યક્તિત્વના પ્રભાવે, પોતાના પ્રેમના બળે તેને આકર્ષ્યું અને રાષ્ટ્રના સ્વાતંત્ર્યયજ્ઞમાં નિયોજ્યું. વ્યક્તિની શક્તિ અને મર્યાદાની એ અચૂક પરીક્ષા કરતા, અને સૌને બરાબર ઘટતું – સાહિત્યપ્રેમીને રાષ્ટ્રીય સાહિત્યનિર્માણનું, વ્યવસ્થાનિપુણને ભિન્ન ભિન્ન રાષ્ટ્રીયસંસ્થાઓના સંચાલનનું, સેવાપ્રેમીને અસ્પૃશ્યાદિ જાતિઓના સમુદ્ધારનું—કામ સોંપતા. જ્યાં ગૂંચવણ પડે, વિસંવાદ કે ઘર્ષણ થાય, ત્યાં એમની અમોઘ પ્રેમશકિત બધું બરાબર કરી દેતી. આથી જ ભારતનાં નરરત્નોના એ સૂત્રસ્થાને હતા.
ગાંધીજીએ ભારતનો આત્મા જાગ્રત કર્યો એનું એક શુભ પરિણામ એ થયું કે, ભારતીય સંસ્કૃતિ માટે સ્વાભિમાનની ભાવનાને વેગ મળ્યો. ઓગણીસમી સદીના અંતભાગથી ભારતીય સંસ્કૃતિના પુનર્જીવનનો પ્રારંભ તો થયો જ હતો. યુરોપીય સંસ્કૃતિના પ્રથમ આઘાતે જેમાં કેવળ હીન તત્ત્વો જ જણાતાં હતાં તે ભારતીય સંસ્કૃતિ ધીમે ધીમે મહાશાળા, શાળાઓમાં સંસ્કૃતનો વ્યાપક અભ્યાસ થવાથી, યુરોપીય વિદ્વાનોના સંસ્કૃત સાહિત્ય અને ભારતીય તત્ત્વજ્ઞાન માટેના આદરનું આપણને ભાન થવાથી, અને સંસ્કૃતિપ્રેમી વિદ્વાનોના ઉદ્બોધનોથી, તત્ત્વોથી સભર, ગૌરવવંત લાગવા માંડી હતી. ગાંધીજીએ રાજકીય પ્રવૃત્તિની સાથે ભારતીય સંસ્કૃતિનુ રક્ષણ અને પુનરુજ્જીવન જોડી દીધું, ભરતીય સંસ્કૃતિની ઉપાસનાને રાજકીય ઉત્થાનનું પ્રતીક બનાવી દીધી, એથી ભારતીય સંસ્કૃતિ સત્વર પુન: પ્રતિષ્ઠા પામી. ગાંધીજીએ આપણું રાષ્ટ્રીય સ્વમાન જાગ્રત કરીને આપણું પ્રાચીન સંસ્કારધન કેટલું મૂલ્યવાન છે એ બતાવી પશ્ચિમના અંધ સંસ્કારદાસત્વમાંથી દેશને મુક્ત કર્યો. એ રીતે ભારતીય ભાષાઓ, ભારતીય પોશાક, ભારતીય જીવનપ્રણાલી, એ સર્વ ફરી આદરણીય મનાયા. પણ સાથે સાથે જ હિંદુ ધર્મ અને ભારતીય જીવનના ઘણાં અંગોને ગાધીજીએ સંસ્કારી લીધા. હિંદુ ધર્મમાં રહેલાં સત્ય, માનવપ્રેમ, અહિંસા, સેવા, અપરિગ્રહ, સ્વાશ્રય વગેરે સનાતન તત્ત્વોને એમણે વિકસાવ્યા, અને સાંપ્રદાયિકતા, અસ્પૃશ્યતા આદિ અનિષ્ટોને એમણે દૂર કરવાના પ્રયત્નો કર્યાં. એમણે આપેલા સત્ય અને અહિંસાનાં નવાં મૂલ્યો ભારતે જેટલે અંશે પચાવ્યાં, તેટલે અંશે રાષ્ટ્રનું આધ્યાત્મિક સત્ત્વ વધ્યું.
એમના અનુયાયીગણે—સદ્દગત મહાદેવભાઈ, કાકાસાહેબ, નરહરિ પરીખ, કિશોરલાલ મશરૂવાળા અને અન્ય વિદ્વાનોએ, અને વિદ્યાપીઠની અસર તળે આવેલી આખી નવલોહિયા યુવાન લેખકોની પેઢીએ આ દિશામાં ગુજરાતી સાહિત્યને સમૃદ્ધ કરવામાં મણાં રાખી નથી. આ લેખકોના ગંભીર વાઙમય સર્જને લલિત સાહિત્યસર્જનની સમતુલા જાળવી છે. પરિણામે આજે હિંદની ભાષાઓમાં ગદ્ય પરત્વે ગુજરાતીનું સ્થાન જો મોખરે હોય તો તેનો યશ મહદંશે ગાંધીજીને છે.
ગોવર્ધનરામની કલાનું એમનું મૂલ્યાંકન મિતાક્ષરી છતાં કેવું સંગીન છે! “(સરસ્વતીચંદ્રના) પહેલા ભાગમાં એમણે પોતાની શક્તિ ઠાલવી. નવલકથાનો રસ પહેલામાં ભરેલો છે. ચરિત્રચિત્રણ એના જેવું ક્યાં ય નથી. બીજામાં હિંદુ સંસાર સરસ ચીતરાયો છે. ત્રીજામાં એમની કળા ઊડી ગઈ, અને ચોથામાં એમને થયું કે હવે મારે જગતને જેટલું આપવું છે તે આ પુસ્તક દ્વારા જ આપી દઉં તો કેવું સારું!”
આવો જ મંજુલ ધ્વનિ મિસ એસ્થર ફેરિંગને લખેલા નાના પત્રમાં શ્રવણે પડે છે :
સત્ય અને અહિંસા, પ્રેમ અને સેવા, સ્વાશ્રય અને અપરિગ્રહ—એ નવાં મૂલ્યો એમણે સ્વીકાર્યાં, જીવનમાં ઉતાર્યાં, અને રાષ્ટ્રની રાજકીય અને સામાજિક પ્રવૃત્તિઓમાં પ્રયોજ્યાં. એમની પ્રજ્ઞા ઘણી સતેજ હતી. જીવનની ઘણી બાબતોમાં એમનાં જ્ઞાનનું ઊંડાણ અને વ્યાપકતા આશ્ચર્ય પમાડે તેવાં હતાં. પણ એમના નૈતિક જીવનની ભવ્યતા અને મહત્તા તો વર્ણનાતીત હતી. એ નૈતિક બળે એમને સર્વત્ર વિજય અપાવ્યો, અને એમના આદર્શોને એમના જીવનકાળમાં સિદ્ધ કર્યા. રાષ્ટ્રને એમણે આપેલાં નવાં મૂલ્યોની પાછળ કેટલી બધી ક્રાન્તદૃષ્ટિ હતી, એમણે રાજકીય જીવનમાં સ્થાપેલી અહિંસાની મહત્તા કેટલી વાસ્તવિક હતી, એ આજે (1972) ચીન અને બ્રહ્મદેશના હાલ જોતાં સ્વયંસ્પષ્ટ જણાય છે. અહિંસા અને પ્રેમ જેવી સાત્ત્વિક વૃત્તિઓનાં ફળ મોડાં, પણ ચિરસ્થાયી અને કલ્યાણકર; ભય અને હિંસાનું પરિણામ તાત્કાલિક પણ ક્ષણજીવી અને અંતે વિનાશકર. એ આજે હવે પ્રતીત નથી થતું શું?