
कुमार प्रशांत
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उस दिन टिकट नहीं गिने गए, लाशें गिनी गईं. मानो तो रेलवे स्टेशन पर एक नया कुंभ हुआ. कुंभ की तरह यहां भी सरकार ने सबसे पहले लाशें समेटीं, हादसे के सारे चिन्ह मिटाए, मृतकों की एक संख्या ऐसे घोषित कर दी मानो वहां नोट गिनने जैसी कोई मशीन लगी थी जिसने मृतकों की पक्की संख्या तक्षण बता दी ! इधर संख्या बता दी उधर मौत की कीमत बता दी आौर फिर अगलाकार्यक्रम शुरू ! ऐसा ही तो कुंभ में हुआ था. लाशें समेट कर कुंभ फिर चल निकला था. कितनों ने डुबकी लगाई– राष्ट्रपति ने भी, उप–राष्ट्रपति ने भी, प्रधानमंत्री ने भी, पक्ष–विपक्ष के आला लोगों ने भी, समाजसेवियों ने भी, खिलाड़ियों व अभिनेताआों ने भी आौर पता नहीं किन–किन ने; लेकिन कहीं न पढ़ा न सुना कि किसी ने कहा हो कि कुंभ में डुबकी लगा कर मैंने मृतकों की मुक्ति की याचना की आौर अपनीआपराधिक चूक की माफी मांगी !
दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भी ऐसा ही हुआ. लाशें समेट कर, मृतकों की एक संख्या घोषित कर, भगदड़ को हादसे का ज़िम्मेदार बता कर रेलवे ने जल्दी से प्लेटफॉर्म खोल दिए, टिकटों की बिक्री शुरू कर दी है. जो कुछ हुआ उसे उसी तरह मिटा दिया गया जिस तरह बच्चे स्लेट पर अपना लिखा मिटा देते हैं. बेचारे करते भी क्या ! क्या कुछ लोगों के मर जाने से रेलवे बंद कर देते ? कुंभ रोक देते ? इहलोक से परलोक कामहात्म कहीं अधिक होता है. व्यवस्था की अपनी एक मशीन है भाई, आप उसे मानवीय बनाने की कोशिश न करें. आखिर उसने मृतकों की कीमत तो चुका दी है न ! आप देख ही तो रहे हैं कि सारी दुनिया को ज्ञानबांटने की मुहिम से थके–हारे प्रधानमंत्री ने अभी दिल्ली पहुंच कर सांस भी नहीं ली थी कि उन्हें मृतकों से प्रति गहरी संवेदना का संदेश जारी करने की मशक्कत करनी पड़ी. जब उनका संदेश आ गया तो फिररेलमंत्री ने भी अपना संवेदना संदेश जारी किया. ऊपर से हरी झंडी मिली तो एक–एक कर मंत्रियों,मुख्यमंत्रियों सबकी संवेदना का तंत्र झंकृत हो रहा है, आौर हम लगातार होते हादसों में मारे गए अपने लोगों कीलाशें समेटते–समेटते, अगले हादसे का इंतज़ार कर रहे हैं. यह नया हिंदुस्तान है !
न,न, आप उबल मत पड़िए, न बांहें चढ़ा कर हमसे पूछिए कि क्या इससे पहले की सरकारों के दौर में हादसे नहीं होते थे ? हम मानते हैं कि हादसे पहले भी होते थे लेकिन हादसों का राज्य प्रायोजितआयोजन नहीं होता था.
दिल्ली में जो हादसा हुआ क्या वह लोगों की असावधानीवश हुआ ? नहीं, लोगों ने कोई असावधानी नहीं की थी. अगर की थी तो इतनी ही कि सरकारी प्रचार में बह कर वे सब कुंभ जाने को व्यग्र हो उठे थे. ऐसी व्यग्रता अज्ञान, कुशिक्षा आौर अंधविश्वास में से पैदा होती है जिसकी आंधी उठाने में सत्ता एक दशक से पूरा जोर लगा रही है. हाल ऐसा है कि हवाई जहाजों में धनवान आौर सत्ताधीश उमड़े हुए हैं. धनसंपन्नमध्यम वर्ग भी उचक–उचक कर इसी जमात में शामिल होने का सुख ले रहा है. हवाई कंपनियां मनमाना दाम वसूल कर, इन्हें कुंभ पहुंचा रही हैं. रेलवे ने विशेष गाड़ियां चला रखी हैं जो लाद–लाद कर लोगों कोकुंभ पहुंचा रही हैं. बसें, टैक्सियां सब इसी काम में जोत दी गई हैं. ऐसा कभी देखा था कि लोगों के धार्मिक विश्वास को सत्ता के हवन कुंड में इस तरह होम किया जा रहा हो ?
दिल्ली रेलवे स्टेशन के अधिकारियों से ले कर कुलियों तक को पता था कि भीड़ बेतहाशा बढ़ती चली जा रही है. प्लेटफॉर्म पर खड़े होने की जगह नहीं बची थी. न टिकटों की बिक्री रोकी गई, न लोगों कोप्लेटफॉर्मों पर पहुंचने से रोका गया. वहां कुंभ जाने वाली कई गाड़ियों का जमावड़ा था. इसलिए अफरा–तफरी चरम पर थी. कोई बताए कि यह योजना किसने बनाई थी? सामने ऐसी भीड़ को देखने के बाद भीअधिकारियों ने प्लेटफॉर्म बदलने की घोषणा कर दी. इससे बड़ी जाहिली की कल्पना नहीं की जा सकती है ! सामान्य अवसरों पर भी जब रेलवे अचानक प्लेटफॉर्म बदलने की घोषणा करती है तब भी हम देखतेहैं कि कैसी अफरा–तफरी मच जाती है. उस दिन जैसी भीड़ थी उसमें अचानक प्लेटफॉर्म बदलने की घोषणा आपराधिक कृत्य था. अंतिम समय में प्लेटफॉर्म बदलने की यह वृत्ति बढ़ती जा रही है जो रेलवेअधिकारियों के खराब आयोजन, अकुशलता तथा संवेदनहीनता का प्रमाण है. रेल अधिकारी कौन हैं ? सरकारी रवैये की प्रतिछाया ! किसी तरह नये प्लेटफॉर्म पर पहुंच कर, गाड़ी में अपनी जगह लेने कीबदहवास होड़ में वह सब हुआ जिसका स्यांपा अब किया जा रहा है. आौर हद तो यह कि हादसे की जांच के लिए रेलवे के ही अधिकारियों की समिति बना दी गई ! अपने अपराध की जांच भी अपराधी स्वयं करेंतथा अपनी सजा भी ख़ुद ही तय करें, यह तो ऐसी कीमिया न है जिससे महात्मा गांधी भी हतप्रभ रह जाएंगे.
लेकिन यहां एक दूसरा सवाल भी है. लोगों को भीड़ बनाने की इस वृत्ति के पीछे कौन है ? हमारे लोग अधिकांशत: अशिक्षित, कुशिक्षित तथा अंधविश्वासी हैं. इस सरकार ने अपना सारा छल–दल–बललगाकर, सारे देश में इसका जश्न मनाने का अभियान चला रखा है. यह कुंभ उसी अभियान का हिस्सा है. हमारी परंपरा में जिस कुंभ की महिमा ऐसी रही है कि उसकी सबसे बड़ी अध्यात्मिक शक्ति उसकीस्वस्फूर्ति में रही है न कि राज्य की धोखाधड़ी में. अनगिनत सालों से न कोई किसी को बुला या फुसला कर कुंभ में लाता था, न अकूत धन उड़ेल कर उनकी डुबकी की व्यवस्था होती थी. यह अप्रायोजित आयोजनमन:पूर्वक होता था. लोग अपनी–अपनी श्रद्धा, सुविधा व हैसियत के मुताबिक कुंभ या ऐसे आयोजनों में जाते थे. अब ऐसी हर सांस्कृतिक परंपरा का राजनीति इस्तेमाल किया जा रहा है. अंदरखाने की एक आवाज़यह भी कहती है कि यह मोदी व योगी के बीच की वर्चस्व की लड़ाई का मुद्दा बन गया जिसमें योगी ने ख़ुद के लिए वैसी राजनीतिक कमाई कर ली जैसी प्रधानमंत्री नहीं कर सके. लेकिन यह तो भाजपा काआंतरिक मामला है.
सरकार कुंभ का आयोजन क्यों करे भला ? भारतीय संविधान के मुताबिक़ चलने वाली किसी सरकार का यह काम हो सकता है क्या ? क्यों यह बात उछाली गई कि जो कुंभ नहीं जाएगा, उसकी देशभक्तिसंदेह के घेरे में होगी ? किस परंपरा के मुताबिक इसे महाकुंभ कहा गया ? ऐसा कोई शब्द कुंभ की परंपरा में तो है नहीं ! खबर यह भी है कि राज्यों को कोटा दिया गया कि कितने भक्त उसे कुंभ में भेजने हैं. धार्मिक उन्माद खड़ा कर जब आप करोड़ों की भीड़ जुटाते हैं तब आप दूसरा कुछ नहीं करते, हादसों का आयोजन करते हैं. अगर आपका दावा सही मान लें हम कि 50 करोड़ लोगों ने कुंभ में डुबकी लगाई तोकोई हमें बताए कि इतनी बड़ी उन्मादी भीड़ को कौन–सी व्यवस्था संभाल सकती है ? भीड़ की एक परिभाषा यह भी तो है न कि उसके पास सर होता है, समझ नहीं ! सत्ता के लिए यह सर ही अंतिम कसौटी है, समझ से उसका वास्ता रहा ही कब है ? इसलिए आदमी नहीं, उसे हर सर एक वोट दिखाई देता है जिसे उन्मादित कर अपने खाते तक पहुंचाना उसका चरम धार्मिक कर्तव्य होता है.
कोई हिसाब लगा कर बताए कि कुंभ आने में, कुंभ से जाने में आौर कुंभ–स्थल पर अब तक कितने हादसे हुए हैं आौर कितनी जानें गई हैं ? ऐसा हिसाब लगाएंगे आप तो हमेशा आपको दो आंकड़े मिलेंगे : सरकारी व सामाजिक ! दोनों के बीच इतनी गहरी विषमता होगी कि आप हैरान रह जाएंगे. जब कभी ऐसा हो तो मान लेना चाहिए कि लाशों के आंकड़े नहीं, मनोवृत्ति को आंकना जरूरी है. वह अगर हम पहचानसके तो आगे लाशें गिनने की नौबत नहीं आएगी.
(19.02.2025)
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એની પૂંઠે એક જે વિશ્વસંદર્ભ કામ કરી રહ્યો હતો તે પણ લક્ષમાં લેવા જોગ છે. પવારે સંભાર્યું છે કે એમણે વિશ્વવિશ્રુત અમેરિકી અઠવાડિક ‘ટાઈમ’માં બ્લેક પેન્થર વિશે વાંચ્યું ત્યારથી એમને એક નવો વિકલ્પ આવી મળ્યાનો તીવ્ર ધક્કો લાગ્યો હતો. અમેરિકાની બ્લેક પેન્થર પાર્ટી, વંશીય અને આર્થિક ભેદભાવો અને ત્યાંના આફ્રિકી-અમેરિકી સમુદાયનો જે ઉત્કટ અજંપો હતો એમાંથી આવી હતી. પવાર અને મિત્રોને સ્વાભાવિક જ એમાં આપણે ત્યાંના દલિતોને માર્ગદર્શક થઈ પડે એવો એક પેરેલલ વરતાયો હતો. આંબેડકરથી પ્રભાવિત પરિવર્તનવાંછુઓ માટે નાનામોટા ઝઘડા ને ગુટબંધીવાળી રિપબ્લિકન પાર્ટી કે પરંપરાગત કાઁગ્રેસ રાજનીતિ અગર હિંદુવાદી શિવસેના સિવાયનું એક દ્વાર એનાથી ખૂલતું હતું. વીસમી સદી અધવચ અમેરિકામાં ખીલી આવેલી સિવિલ રાઈટ્સ ચળવળ તેમ જ સાઠનાં વર્ષો ઊતરતે વિયેટનામ યુદ્ધના વ્યાપક સંદર્ભમાં અમેરિકી કેમ્પસો પર વરતાયેલો વ્યાપક છાત્ર ઉદ્રેક, આ બધું જેમ બીજે તેમ હિંદમાં પણ પહોંચું પહોંચું હતું અને એની છાલકે ભીંજ્યા પવાર વગેરે સારુ દલિત પેન્થર શી કોઈ રચના કદાચ દુર્નિવાર હતી.

મૂંગા પશુઓ-જીવજંતુ તરફનો દયાભાવ, તેમને મારવું એ પાપ છે એવી ધાર્મિક ભાવનામાંથી, વિશેષ કરીને જૈન ધર્મમાં જે અહિંસાની વાત છે ત્યાંથી આવેલો છે. પ્રાણી, પક્ષી, મૂંગાજીવ પ્રત્યે દયાભાવ રાખવો એ ખોટું તો હરગીઝ નથી જ પણ પ્રશ્ન ત્યારે થાય કે આવી જ કોઈ પાંજરાપોળ જે વિશાળ જમીનમાં પથરાયેલી હોય કે ગામના ઢોર પશુઓના ચરાણ માટે ગૌચરની મોટી જમીન હોય અને ત્યાં કોઈ ધનપતિ, રાજકીય નેતાઓ અને સંચાલકોના મેળાપીપણામાં તેને ખરીદી લઈ ત્યાં મોટ્ટો મોલ કે કોમર્શિયલ બહુમાળી બિલ્ડિંગો ઊભા કરી દેવા માંડે ત્યારે કેટલા લોકો તેનો ભારોભાર વિરોધ કરવા, સત્તાધારીઓની સામે લડવા મેદાને પડે છે? અને આ ‘સોદા’ને લઈ આંખમિચામણા કરતાં લોકોને, ચૂપ રહેતાં લોકોને કોઈ ‘પાપી’ કહેશે ખરું ? કદાચ એવું જરૂર કોઈ કહેનાર ધાર્મિક વ્યક્તિ નીકળે કે ‘મૂંગા પશુઓની જગા વેચી નાંખનાર, પાપમાં પડનાર મૂઆ નર્કે જશે ! ઉપરવાળો બધું જુએ છે !’ પણ આ બધો ખેલ જોનારા જે આ અગાઉ પાપ ન લાગે એમ માની ખોડાઢોર કે ઘવાયેલાં પંખી કે પ્રાણીઓ પાંજરાપોળમાં મૂકવા ગયા હશે કે જતાં હશે યા આ પાંજરાપોળનાં રખરખાવ માટે નાણાંકીય મદદ કે ઘાસપૂળા ખરીદીને આપ્યાં હશે. એવાં બધાંની ચૂપકીદીને આપણે ‘પાપ’ કેમ નથી કહેતાં ? આ પ્રકારના સવાલ એટલા માટે ઊભા થાય છે કે સમાજમાં આવી ઘણી બાબતો છે. મંદિર બહાર કે રસ્તા પર ભીખ માંગતા કે ભૂખ્યા અજાણ્યા વ્યક્તિને ક્યારે ય આપણે કે કોઈક વાર તહેવારે દાન આપી, ખાવાનું આપી, આપણે સંતોષ અનુભવીએ છીએ કે ગરીબોને દાન આપવું, ભૂખ્યાને અન્ન આપવું એ ‘પુણ્ય’નું કામ છે, માનવતાનું કામ છે અને ધર્મમાં તે લખાયું છે, કહેવાયું છે. આ પ્રકારની માન્યતા અને ખ્યાલો માત્ર આપણા દેશમાં જ છે એવું નથી. દુનિયાના દરેક ખૂણામાં, દરેક ધર્મ પાળતાં લોકોમાં જોવા મળે છે.