Opinion Magazine
Number of visits: 9449627
  •  Home
  • Opinion
    • Opinion
    • Literature
    • Short Stories
    • Photo Stories
    • Cartoon
    • Interview
    • User Feedback
  • English Bazaar Patrika
    • Features
    • OPED
    • Sketches
  • Diaspora
    • Culture
    • Language
    • Literature
    • History
    • Features
    • Reviews
  • Gandhiana
  • Poetry
  • Profile
  • Samantar
    • Samantar Gujarat
    • History
  • Ami Ek Jajabar
    • Mukaam London
  • Sankaliyu
    • Digital Opinion
    • Digital Nireekshak
    • Digital Milap
    • Digital Vishwamanav
    • એક દીવાદાંડી
    • काव्यानंद
  • About us
    • Launch
    • Opinion Online Team
    • Contact Us

मेरी आवाज सुनो ! 

कुमार प्रशांत|Opinion - Opinion|18 March 2023

कुमार प्रशांत

सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आ गया कि अब चुनाव आयोग का चयन तीन सदस्यों की एक समिति करेगी, न कि प्रधानमंत्री के इशारे पर नौकरशाही के चापलूसों का पत्ता फेंटकर इसका चयन किया जाएगा. यह फैसला तब तक लागू रहेगा जब तक संसद इसके लिए कोई नया कानून बना कर देश के सामने नहीं रखती है. स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि न्यायपालिका ने विधायिका को उसकी भूमिका भी और उसकी मर्यादा भी इस तरह आदेश दे कर समझाई है.

सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद से सत्तापक्ष में एकदम सन्नाटा है. विपक्ष ने भी थोड़ी-बहुत प्रतिक्रिया से ज्यादा कुछ नहीं कहा है. ऐसा सन्नाटा क्यों है भाई ? इसलिए है कि सभी जान रहे हैं कि सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला सत्ता पक्ष व विपक्ष दोनों के पर कतर रहा है.  जिस हम्माम में सब नंगे हों उसमें तौलिये की बात करना सबकी नंग खोल देता है.

सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला सत्तापक्ष की नीयत पर कठोर टिप्पणी करता है. यह टिप्पणी इतनी कठोर व मर्म पर चोट करने वाली है कि यदि हमारी व्यवस्था में थोड़ी भी लोकतांत्रिक आत्मा बची होती तो चुनाव आयोग के वर्तमान अध्यक्ष का इस्तीफा कब का हो गया होता. सरकार का यदि कोई लोकतांत्रिक चरित्र होता तो उसने इस फैसले के तुरंत बाद वर्तमान चुनाव आयोग को भंग कर दिया होता तथा प्रधानमंत्री-नेता विपक्ष-प्रधान न्यायाधीश की समिति ने रातोरात बैठ कर नया चुनाव आयोग गठित कर दिया होता. ऐसा हुआ होता तो सत्ता पक्ष को अपनी विकृत लोकतांत्रिक छवि सुधारने का तथा चुनाव आयोग को अपनी हास्यास्पद स्थिति से बचने का मौका मिल जाता.  लेकिन जो लोकतांत्रिक आत्मा कहीं बची नहीं है, उसकी कोई लहर उठे भी तो कैसे ? हमारी संसद में भी इतनी नैतिक शक्ति बची नहीं है कि वह खुद को सुधार सके, बे-पटरी हुई अपनी गाड़ी को पटरी पर लौटा सके.

लोकतंत्र का पेंच यह है कि वहां संसद बनती भले है बहुमत के बल पर, चलती है परस्पर विश्वास व सहयोग के बल पर. ऐसा नहीं होता तो भारतीय संसद के इतिहास में अब तक सबसे बड़े बहुमत से जो दो सरकारें बनी हैं – इंदिरा गांधी व राजीव गांधी की- वे ताश के पत्तों-सी बिखर नहीं जातीं. इसलिए लोकतांत्रिक नैतिकता का तकाजा है कि संवैधानिक संस्थाएं एक-दूसरे की सुनें, एक-दूसरे का सम्मान करें.

जिस संसदीय लोकतंत्र की रजत जयंती मानने की हम तैयारी कर रहे हैं, वह इतने वर्षों में हमें यह भी नहीं सिखा सकी है कि हमारी सारी लोकतांत्रिक संस्थाएं संविधान के गर्भ से ही पैदा हुई हैं. इसलिए इनमें कोई संप्रभु नहीं है. संप्रभु है इस देश की जनता जिसने अपना संविधान बना कर, अपने ऊपर लागू किया है. तो वह संविधान सबका पिता है. पिता के संरक्षण का दायित्व सबका है लेकिन न्यायपालिका उसकी खास प्रहरी है.

संविधान ने जितनी संस्थाएं बनाई हैं उनमें से किसी को उसने संप्रभु नहीं बनाया है बल्कि इन सबका परस्परावलंबन निर्धारित किया है. सबकी दुम एक-दूसरे से बांध दी है. विधायिका कानून बनाने की सर्वोच्च संस्था है; न्यायपालिका उन कानूनों की वैधता जांचने वाली सर्वोच्च संस्था है; न्यायपालिका का कोई भी निर्णय संसद पलट सकती है लेकिन संसद कोई भी ऐसा निर्णय नहीं ले सकती है जिससे हमारे संविधान का बुनियादी ढांचा प्रभावित होता हो; और यह फैसला सिर्फ, और सिर्फ न्यायपालिका कर सकती है कि कब, कहां और किसने यह लक्ष्मण-रेखा पार की है.

कार्यपालिका विधायिका के निर्देश पर काम करती है लेकिन वह पे-प्रमोशन-पेंशन के पीछे भागती चापलूसों की जमात नहीं है. असंवैधानिक निर्देश मानने के लिए वह लाचार नहीं है. उसमें अनैतिक व असंवैधानिक निर्देश मानने से इंकार करने का नैतिक बल होना चाहिए. वह न्यायपालिका की मदद लेने को भी स्वतंत्र है.

लोकतंत्र के विकास-क्रम में एक चौथा खंभा भी विकसित हुआ है जिसे आज मीडिया कहते हैं. स्वतंत्रता, साहस व विवेक के तीन खंभों पर यह मीडिया टिका हुआ है जो स्वायत्त व स्वतंत्र तो है लेकिन अपने लिखे-बोले-दिखाए हर शब्द के लिए वह समाज, न्यायपालिका व संसद के प्रति जवाबदेह भी है. इन चारों के बीच यह गजब की स्वायत्ता व गजब का परस्परावलंबन है जो संविधान ने रचा है. इसके आलोक में सारी संवैधानिक संस्थाओं को अपना आकलन करना चाहिए.

इस आलोक में हमें अपनी न्यायपालिका को देखना चाहिए तथा न्यायपालिका को इस आईने में अपनी सूरत देखनी चाहिए. हम जब इस आलोक में अपनी न्यायपालिका को देखते हैं तो हमें अफसोस होता है; न्यायपालिका जब इस आईने में खुद को देखेगी तो डर जाएगी. मनुष्य बहुत सारी कमजोरियों का पुतला है- इस हद तक कि यह कहावत ही बन गई है कि गलती करना मनुष्य होने की पहचान है – टू इर इज ह्यूमन ! यह जानने व मानने के बाद हमने ही कुछ ऐसी संस्थाएं बनाईं, कुछ ऐसे पद बनाए जिनकी नैतिक जिम्मेवारी है कि वे सामान्य मनुष्यों की सामान्य कमजोरियों से ऊपर उठ कर सोचें व व्यवहार करें. जेबकतरा लोभ व बेईमानी की मानवीय कमजोरी का एक उदाहरण है. वह भीड़ का फायदा उठा कर जेब काटता है. उससे नागरिक व पुलिस निबटते ही रहते हैं. लेकिन पुलिस ही जेबकतरा बन जाए तो हम क्या करेंगे ? इसलिए जरूरी है कि पुलिस का ऐसा प्रशिक्षण किया जाए, उसमें ऐसा दायित्व-बोध भरा जाए कि वह सामान्य मानवीय कमजोरियों से ऊपर उठ कर काम करे. जब पुलिस ऐसी कल्पना पर खरी नहीं उतरती है तो हम उसके  प्रशिक्षण की नई योजना पर काम करते हैं. सारे पुलिस आयोग इसी कोशिश में बने हैं.

ऐसा ही विधायिका के साथ भी है, न्यायपालिका के साथ भी है और कार्यपालिका के साथ भी है. इनकी निरंतर पहरेदारी होनी चाहिए – आंतरिक भी और वाह्य भी ! हमारी न्यायपालिका खुद की पहरेदारी कैसे करती है ? उसने चुनाव आयोग के गठन के बारे में जो फैसला आज दिया है क्या वह बीमारी उसे आज दिखाई दी है? यह तो पहले दिन से ही हमें दिखाई दे रहा था कि चुनाव यदि संसदीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा अवलंबन है तो उसकी निगरानी करने वाली संस्था को मजबूत, आत्मनिर्भर तथा सत्तानिरपेक्ष बनाना जरूरी है. जो हमें दिखाई दे रहा था वह न्यायपालिका को क्यों नहीं दिखाई दिया ? उसका यह अपराध बहुत संगीन हो जाता है क्योंकि संविधान ने उसे यही जिम्मेवारी दी है कि वह संवैधानिक संस्थाओं की ऐसी हर कमजोरी पर नजर रखे, उसे जांचे-परखे और उसे ठीक करने की ठोस पहल करे. अपने वक्त में शेषन साहब ने यह दिखलाया भी था कि चुनाव आयोग यदि साहसपूर्ण स्वतंत्रता से काम करता है तो संसदीय लोकतंत्र को संभालने में कितनी मदद मिलती है. न्यायपालिका ने वह संकेत क्यों नहीं समझा ? उसने उस दिशा में क्यों काम नहीं किया ? बीमारी इतनी बिगड़ जाए कि मरीज मरणासन्न हो जाए, यह डॉक्टर की विफलता है. मरणासन्न मरीज को बचा कर वाहवाही लूटने से यह बात छिपाई नहीं जा सकती है कि आप अपनी प्राथमिक जिम्मेवारी में विफल हुए हैं. ऐसा ही न्यापालिका के साथ भी हो रहा है.

हमारी न्यायपालिका सामान्य मानवीय कमजोरियों की गिरफ्त में इस कदर है कि वह सामान्यत: मनुष्य जितना संयम, समझदारी व साहस दिखा पाता है, उतना भी नहीं दिखा पाती है. वह सत्ता से डरती है, वह सत्ता की कृपाकांक्षी होती है, वह केरियररिस्ट है, वह पार्टीबाजी की घटिया मानसिकता की शिकार है. वह मुकदमा जीतने के लिए शील व विवेक की कीमत नहीं करती है. संक्षेप में कहूं तो वह मानवीय कमजोरियों से ऊपर उठने का कोई तरीका विकसित नहीं कर सकी है.

राहुल गांधी लंदन में क्या कहते हैं इस पर चिल्ल-पों करने वाले इस पर क्यों चुप्पी साध लेते हैं कि हमारा लोकतंत्र क्या कहता है ? वह संवैधानिक ऑक्सीजन की मांग कर रहा है.  वह कह रहा है कि मेरी आवाज सुनो!

(18.03.2023)
मेरे ताजा लेखों के लिए मेरा ब्लॉग पढ़ें
https://kumarprashantg.blogspot.com

Loading

18 March 2023 Vipool Kalyani
← સાઈકલના ઉત્પાદનમાં અગ્રેસર ભારત વપરાશમાં પાછળ છે
ચલ મન મુંબઈ નગરી—188 →

Search by

Opinion

  • શૂન્યનું મૂલ્ય
  • વીર નર્મદ યુનિવર્સિટીએ એક્સ્ટર્નલ અભ્યાસક્રમો ચાલુ રાખવા જોઈએ …..
  • નેપાળમાં અરાજકતાઃ હિમાલયમાં ચીન-અમેરિકાની ખેંચતાણ અને ભારતને ચિંતા
  • શા માટે નેપાળીઓને શાસકો, વિરોધ પક્ષો, જજો, પત્રકારો એમ કોઈ પર પણ ભરોસો નથી ?
  • ધર્મને આધારે ધિક્કારનું ગુજરાત મોડલ

Diaspora

  • ૧લી મે કામદાર દિન નિમિત્તે બ્રિટનની મજૂર ચળવળનું એક અવિસ્મરણીય નામ – જયા દેસાઈ
  • પ્રવાસમાં શું અનુભવ્યું?
  • એક બાળકની સંવેદના કેવું પરિણામ લાવે છે તેનું આ ઉદાહરણ છે !
  • ઓમાહા શહેર અનોખું છે અને તેના લોકો પણ !
  • ‘તીર પર કૈસે રુકૂં મૈં, આજ લહરોં મેં નિમંત્રણ !’

Gandhiana

  • સ્વરાજ પછી ગાંધીજીએ ઉપવાસ કેમ કરવા પડ્યા?
  • કચ્છમાં ગાંધીનું પુનરાગમન !
  • સ્વતંત્ર ભારતના સેનાની કોકિલાબહેન વ્યાસ
  • અગ્નિકુંડ અને તેમાં ઊગેલું ગુલાબ
  • ડૉ. સંઘમિત્રા ગાડેકર ઉર્ફે ઉમાદીદી – જ્વલંત કર્મશીલ અને હેતાળ મા

Poetry

  • બણગાં ફૂંકો ..
  • ગણપતિ બોલે છે …
  • એણે લખ્યું અને મેં બોલ્યું
  • આઝાદીનું ગીત 
  • પુસ્તકની મનોવ્યથા—

Samantar Gujarat

  • ખાખરેચી સત્યાગ્રહ : 1-8
  • મુસ્લિમો કે આદિવાસીઓના અલગ ચોકા બંધ કરો : સૌને માટે એક જ UCC જરૂરી
  • ભદ્રકાળી માતા કી જય!
  • ગુજરાતી અને ગુજરાતીઓ … 
  • છીછરાપણાનો આપણને રાજરોગ વળગ્યો છે … 

English Bazaar Patrika

  • Letters by Manubhai Pancholi (‘Darshak’)
  • Vimala Thakar : My memories of her grace and glory
  • Economic Condition of Religious Minorities: Quota or Affirmative Action
  • To whom does this land belong?
  • Attempts to Undermine Gandhi’s Contribution to Freedom Movement: Musings on Gandhi’s Martyrdom Day

Profile

  • સ્વતંત્ર ભારતના સેનાની કોકિલાબહેન વ્યાસ
  • જયંત વિષ્ણુ નારળીકરઃ­ એક શ્રદ્ધાંજલિ
  • સાહિત્ય અને સંગીતનો ‘સ’ ઘૂંટાવનાર ગુરુ: પિનુભાઈ 
  • સમાજસેવા માટે સમર્પિત : કૃષ્ણવદન જોષી
  • નારાયણ દેસાઈ : ગાંધીવિચારના કર્મશીલ-કેળવણીકાર-કલમવીર-કથાકાર

Archives

“Imitation is the sincerest form of flattery that mediocrity can pay to greatness.” – Oscar Wilde

Opinion Team would be indeed flattered and happy to know that you intend to use our content including images, audio and video assets.

Please feel free to use them, but kindly give credit to the Opinion Site or the original author as mentioned on the site.

  • Disclaimer
  • Contact Us
Copyright © Opinion Magazine. All Rights Reserved