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ज्ञान का व्याप और अज्ञान का डबरा

कुमार प्रशांत|Opinion - Opinion|27 May 2022

बात बहुत पुरानी है लेकिन बार-बार हम उसे नया बनाते रहते हैं : “ जो ज्ञान के सागर में उतरते हैं वे तैरते ही रहते हैं, जो अज्ञान के कुएं में डुबकी लगाते हैं, वे उसी के चक्कर काटते रह जाते हैं.” कोई पूछे कि ज्ञान व अज्ञान की पहचान कैसे करेंगे, तो मैं कहूंगा कि जिससे निजी व सामूहिक विवेक का रास्ता खुलता हो वह ज्ञान; जिससे विवेक की हर खुली खिड़की बंद होती हो वह अज्ञान ! लेकिन मैं तो कुओं की भी नहीं, डबरे की बात कर रहा हूं. टूटी सड़कों, खेतों-मेढ़ों में बन गया वह गड्ढा डबरा कहलाता है जिसके पास अपना कुछ भी नहीं होता है – उसमें जमा पानी भी उसका अपना नहीं होता है, बारिश की कृपा का होता है लेकिन डबरा इसी गुमान में आने-जाने वालों के पांव-कपड़े खराब करता रहता है कि वह सागर भले न हो, पोखर तो है ही ! ‘मनुष्य डबरा’ भी होता है जो व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी या खोखले चैनलों से, ‘पीली किताबों’ से इतिहास पढ़ता-सीखता व दोहराता है और समाज के पांव-कपड़े खराब करता रहता है.

अपनी इस कसौटी पर ज्ञानव्यापी मस्जिद का विवाद कसता हूं तो अज्ञान का अपशकुन भारतीय समाज को वैसे ही घेरता दिखाई देता है जैसे उसने श्रीलंका को घेर कर,घुटनों पर ला दिया है. ऐसा ही हमारे साथ भी हुआ था जब हम आजादी के दरवाजे पर खड़े थे. गांधी जैसा विराट व्यक्तित्व भी अज्ञान के इस विस्फोट से हतप्रभ-असहाय रह गया था और उसके देखते-देखते हम मर-मार कर टूट गए थे. हम चाहें या न चाहें, इतिहास अपनी उपेक्षा की सजा इसी तरह देता है.

यह सवाल और यह सर्वे ही बेमानी है कि ज्ञानव्यापी मस्जिद किसी मंदिर को तोड़ कर बनाई गई थी या नहीं? वीडियो की इलेक्ट्रोनिक आंखों की बात तो छोड़िए, ज्ञान की अपनी इंसानी आंखों से भी देखिए तो पता चलता है कि वह किसी अवशेष पर खड़ी मस्जिद है. इसे झुठलाने की कोई भी कोशिश न सफल होगी, न सच्ची होगी. लेकिन मानवीय इतिहास की कोई भी ज्ञानव्यापी समझ हमको बताएगी कि वैश्विक मनुष्य-सभ्यता अपने विकास-क्रम में कितने ही अभागे दौरों से गुजरी है जिसमें हम मानवभक्षी भी रहे हैं, कच्चे मांसाहारी भी. कितनी ही ऐसी कुप्रथाएं हमारे जीवन-क्रम का हिस्सा रही हैं जिन्हें आज हम सभ्य जीवन में स्थान देने की सोच भी नहीं सकते.  इन सारे दौरों को पार कर हम यहां तक पहुंचे हैं.

इसमें ही एक दौर वह भी रहा है जब आक्रांता अपनी जीत इसी तरह दर्ज करते थे कि पराजित जाति या मुल्क के उपासना-स्थल जमींदोज कर, वहां अपने धर्म की स्थली बना डालते थे. यह विजय का प्रतीक माना जाता था. विजयी राजा पराजित राज्य की औरतों को अपनी जागीर समझता था. उनका शील लूटता था, मनमाना बर्ताव करता था और फिर उन्हें अपने भूखे सिपाहियों में बांट देता था कि वे उनसे मनमाना बर्ताव करें. तब उपासना-स्थलों को तोड़ना, औरतें उठा ले जाना पराजितों के जातीय-गौरव और मर्दानगी को पांवों तले कुचल कर नेस्तानाबूद करने का प्रतीक माना जाता था. हम इसे पढ़ते हैं तो शर्मिंदा होते हैं और इससे आगे निकलने का संकल्प करते हैं. लेकिन कितने ही अज्ञानी है जो आज भी इसे गौरव-गान की तरह दर्ज करते हैं. यह लिखते हुए मैं शर्मिंदा तो होता हूं लेकिन लिखना ही पड़ता है कि हम आज भी इससे कुछ ज्यादा आगे नहीं निकले हैं. दंगों में आज भी दूसरे धर्म की महिलाओं को अपमानित करना गर्व का स्वाभाविक विषय माना जाता है; युद्ध में फौज को बलात्कार का लाइसेंस ही मिला होता है. यह आज 21वीं सदी में भी यूक्रेन की महिलाओं के साथ हुआ है, हो रहा है. दलितों की बस्तियों को जलाने, उनको सामाजिक रीति-रिवाजों में अपमानित करने, उनकी जमीन-झोंपड़ी पर जबरन कब्जा करने, उनकी लड़कियों को बलात्कार के लायक मानने के पीछे कौन-सी मानसिकता काम करती है ?

हमारे फौजियों ने नगालैंड, असम, कश्मीर और तथाकथित आदिवासी आतंकवादियों से निबटने के नाम यह सब किया ही है, कर ही रहे हैं. लोकतांत्रिक समाज की फौज व किसी चंगेज खान की लूट में ज्यादा फर्क नहीं पाएंगे आप! तो फिर सबको अपना-अपना फैसला यही करना होता है कि इतिहास को दोहराने में आपको गर्व होगा कि इतिहास को बदलने में ? इतिहास बदलना कठिन काम है जैसे आदमी तो हम सब पैदा होते हैं लेकिन इंसान बनना कठिन पड़ता है. (‘हाली’ ने काफी पहले चेताया था : “ फरिश्ते से बढ़ कर है इंसा बनना / मगर इसमें लगती है मेहनत ज्यादा !”)

हम इसी मेहनत से तो घबराते हैं. नहीं घबराते तो बार-बार अभद्र तीखेपन से यह सवाल पूछते ही क्यों कि ऐसा क्यों है कि हर मस्जिद के नीचे मंदिर ही निकलता है ? यह पूरा सच नहीं है लेकिन यह सच जरूर है कि भारत में हिंदू सदा से बहुमत में रहे हैं, मंदिर भी बहुमत में रहे हैं. अब अगर भारत पर कोई लुटेरा या आक्रांता हमला करेगा तो उस वक्त के चलन के हिसाब से अपनी विजय के क्या प्रमाण छोड़ेगा ? मंदिर तोड़ेगा और मस्जिद बनाएगा. दूसरे मुल्कों में कुछ दूसरा हुआ है. तो क्या करें हम आज ? हिंदुओं ने कितने ही बौद्ध विहारों को मंदिरों में बदल डाला, इसका हिसाब करें ? बद्रीनाथ मंदिर के बारे में भी एक धारा कहती है कि वह 8वीं शताब्दी तक एक बौद्ध मंदिर था जिसे औदि शंकराचार्य ने हिंदू मंदिर में बदल दिया. नेपाल में एक बौद्ध मंदिर है जिसे जगन्नाथ मंदिर कहा जाता है. हमारा ओडिशा का जगन्नाथ मंदिर भी इसकी आड़ में लपेटे में लिया जाता है. ताजा उदाहरण लें तो वैष्णोंदेवी मंदिर के व्यवस्थापकों ने वहां मुसलमानों के ठहरने की व्यवस्था ही नहीं बनाई है बल्कि रमजान के दिनों में मुसलमान यात्रियों के सहरी व इफ्तारी की व्यवस्था भी रखी है. तो कल को कोई मुसलमान उसका दावा करे ?

कोई मुझसे पूछे तो मैं पल भर भी देर किए बिना कहूंगा कि बद्रीनाथ मंदिर के बारे में न कोई सर्वे होना चाहिए, न उसके बौद्ध विहार होने के इतिहास को टटोला जाना चाहिए. उसके या ऐसे हर इतिहास से ज्यादा संरक्षणीय है हमारे समाज का वर्तमान है; और वह वर्तमान कहता है कि बद्रीनाथ हमारे पवित्रतम पीठों में एक है. उसका यही स्वरूप बना रहना चाहिए. मैं नेपाल के जगन्नाथ मंदिर को बौद्ध मंदिर मानूंगा और ओडिशा के जगन्नाथ मंदिर को हिंदुओं का तीर्थ मानूंगा; और चाहूंगा, प्रयत्न करूंगा और इसके प्रति समाज को सजग करूंगा कि ओडिशा का जगन्नाथ मंदिर, झारखंड का वैद्यनाथधाम मंदिर आदि इतने तेजोमय व प्राणवान बनें कि आगे कभी किसी विनोबा को वहां प्रवेश की मनाही न हो, उसकी पिटाई न हो, किसी गांधी पर हमला न हो.

इतिहास के काले पन्ने उलटना शुरू करेंगे हम तो अपना चेहरा छिपाना मुश्किल हो जाएगा. कहीं काले और गुलाम लोग मिलेंगे जो गोरों से वैसी ही बर्बरता करने की छूट मांगेंगे;  अमरीका का श्वेत समाज रेड इंडियनों से क्या कहेगा जब वे अपने अस्तित्व के हर कण की वापसी मांगेंगे ? औरतें मांगेंगी कि पुरुषों को एक दिन तो उनके हवाले कर दिया जाए; पिछड़े-दलित-आदिवासी मांगेंगे कि हमें बाकी समाज को ‘सभ्य’ बनाने का एक मौका तो दीजिए; और अंग्रेज तो किसी वीडियाग्राफी के बिना ही यह साबित कर देंगे कि भारत दो सौ साल से ज्यादा ही हमारा उपनिवेश रहा है जहां हमारा बहुत निवेश रहा है तो हमें अपना उपनिवेश वापस कर दीजिए. लगता होगा कि यह कल्पना को ज्यादा खींचने जैसा हुआ जा रहा है तो अपने भीतर बैठे पुतिन को सुनिए जो यूक्रेन को बार-बार यही याद दिला रहा है कि कभी तुम्हारा अस्तित्व हमने ही गढ़ा था इसलिए आज उसे मिटाने का हमारा अधिकार है – और संसार आंखें खोले हमारा यह रौरव नाच देखता रहे. ये भी और ऐसे अनगिनत काले पन्ने हैं इतिहास के जो कई चमकीले-सुनहरे पन्नों के साथ हमारी विरासत हैं.  हम मनुष्य इसलिए हैं कि हम इन्हें जानते-समझते हैं, इन्हें पढ़ते-पढ़ाते हैं लेकिन इन्हें दोहराते नहीं हैं. जो इतिहास को दोहराने की अंधी दौड़ लगाते हैं, वे कैसे इतिहास द्वारा ही मारे जाते हैं, इसकी कहानी भी इतिहास में ही मिल जाएगी. इसलिए हर इतिहास का ‘कटाऑफ डेट’ इसी क्षण से –  वर्तमान से  –  शुरू होता है.

कोई मूढ़ है जो चिल्लाता है कि हम 1947 को नहीं, 1192 को हिंदू इतिहास का प्रारंभ मानते हैं क्योंकि इसी वर्ष गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को हराया था; दूसरी तरफ से कोई महामूढ़ चिल्ला सकता है कि हम भारत के इतिहास का प्रारंभ 7वीं शताब्दी से गिनेंगे जब भारत में इस्लाम के आने का पहला प्रमाण मिलता है. जब यहां से कोई चिल्लाता है कि भारत को 1947 में नहीं, 2014 में आजादी मिली और 1947 में मिली आजादी तो भीख में मिली थी और यह भीखमंगी समझ सुन कर ‘वे सब’ मुस्कुराते हैं, तो वहां से कोई चिल्लाएगा कि हम अपना इतिहास 623 इसी (कैलेंडर की गणना से भी पहले का कॉमन एरा) से मानते हैं जब केरल में हमारी पहली मस्जिद बनी थी. फिर कोई बताएगा कि हमारा पहला गिरजाघर जब बना तभी से हम भारत का अस्तित्व मानते हैं, तो कोई दावा करेगा कि हमारा पहला आतशबहेराम जब बना तब का भारत ही हमें कबूल है. फिर पहले गुरुद्वारे के बनने से भारत के अस्तित्व का हिसाब लगाने वाले उन्मादी भी सामने आएंगे.

यह सब होगा तो फिर कैसा भारत बचेगा ? और कैसे बचेगा ? इसलिए बाबरी मस्जिद की आड़ में जब आजाद भारत की परिकल्पना पर पहला हमला हुआ तब हमारी संसद ने धार्मिक स्थल कानून 1991 बनाया और 1947 की औजादी को हमारे वर्तमान का ‘कटऑफ डेट’ माना. यह किसी भी जीवित लोकतांत्रिक समाज का पहला लक्षण है कि वह अपने भीतर से उठने वाली किसी भी समस्या का हल अपने भीतर ढूंढता है कुछ उसी तरह जैसे सागर अपने भीतर उठती अविराम लहरों को अपने भीतर ही समो लेने का अविराम अभिक्रम करता रहता है. जो समाज ऐसा करना छोड़ देता है वह अपनी ही प्रतिगामी लहरों में डूब जाता है. हम उस कगार पर खड़े हैं. यहां से संभलते हुए हम लौट सकेंगे या डूब मरेंगे, यही देखना है.

(26.05.2022)

मेरे ताजा लेखों के लिए मेरा ब्लॉग पढ़ें : https://kumarprashantg.blogspot.com

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