उपराष्ट्रपति

कुमार प्रशांत
लापता उपराष्ट्रपति को खोजने की मुहिम चलाने की जगह नरेंद्र मोदी सरकार दूसरा उपराष्ट्रपति खोजने निकल पड़ी है. यह हमारे वक्त की त्रासदी भी है और संकट भी. राजनीति ने आज संविधान को एक ऐसा दस्तावेज बना दिया है जिसके सामने आप सर झुकाएं और फिर उसके पन्ने फाड़ते रहें. हमें इस बात की गांठ बांध लेनी चाहिए कि हमारा संविधान व हमारी संवैधानिक व्यवस्थाएं टेक्नॉलजी नहीं हैं, मूल्य हैं. संविधान ने लोकतंत्र को पटरी पर रखने के लिए जितने कल-पुर्जे जोड़े हैं, वे नाहक या निरर्थक नहीं हैं. उन सबकी एक सुनिश्चित भूमिका है ताकि लोकतंत्र की चौतरफा पहरेदारी की जाती रहे. लेकिन जब संसदीय लोकतंत्र की अपनी ही भूमिका अर्थ खो रही है, तब संवैधानिक पदों की नाप-तौल कौन करे ?
संवैधानिक पदों का ऐसा अवमूल्यन लोकतंत्र के खोखलेपन का ही नहीं, उसके अत्यंत खतरनाक मोड़ पर पहुंचने की गवाही भी देता है. यहां पहुंचने के बाद लोकतंत्र वैसा बन जाता है जैसा रूस में पुतिन या चीन में जिन पिंग बना कर बैठे हैं. पाकिस्तान हो कि म्यांमार, वहां भी ऐसी ही विकृति दिखाई देती है. व्यक्तित्वहीन चुनाव आयोग, एक देश : एक चुनाव, प्रांतीय विधेयकों को अनिश्चित काल के लिए लटका कर रखने का प्रचलन जैसे अनेक संविधानविरोधी प्रवाह हमें भी उसी दिशा में ले जा रहे हैं.
उपराष्ट्रपति का आसन्न चुनाव बताता है कि इस सरकार की नजर में यह पद कितना अर्थहीन है. वैसे यह ठीक भी है, क्योंकि इस सरकार में एक ही पद है जिसका कोई अर्थ है और एक ही व्यक्ति है जिसकी कोई हैसियत है. बाकी सब अर्थहीन भीड़ है. राज्यपाल या उपराष्ट्रपति की कुर्सी पर पहुंच कर जिनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया था, उन जगदीप धनखड़ साहब को अब अंदाजा हुआ हो शायद कि इस्तेमाल कर फेंक देने का अनुभव कैसा होता है ! उन्होंने राज्यसभा को इस तरह इस्तेमाल किया था मानो वह कोई संवैधानिक संरचना नहीं, उनके गंदे कपड़े टांगने की जगह हो. ऐसा प्रगल्भ, आत्ममुग्ध व चारणवृत्ति का दूसरा कोई व्यक्ति उस कुर्सी पर कभी बैठा हो, ऐसा याद नहीं आता है. राष्ट्रीय कद की कुर्सियों पर जब कुर्सी से भी बौने लोग आ बैठते हैं (या ला बिठाए जाते हैं !) तो उसकी बू हवा में देर तक बनी रहती है. इतिहास के कूड़ाघर में न मालूम ऐसी कितनी मूरतें फेंकी हुई हैं जो जब तक कुर्सीनशीं रहीं, लकड़ी की तलवार भांजती रहीं.
नये उपराष्ट्रपति के सवाल पर अब सरकार व विपक्ष आमने-सामने है. सरकार सामने आई है, यह कोई खबर नहीं है; विपक्ष सामने आया है, यह लोकतंत्र की दृष्टि से बहुत बड़ी खबर है. यह खबर बहुत बड़ी इसलिए है कि भारतीय लोकतंत्र में फिलहाल विपक्ष जैसा कुछ बचा नहीं है. एक ही टूटी-फूटी-सी पार्टी है कांग्रेस; दूसरी अपनी छाया से भी बौनी पार्टी वामपंथियों की है; बाकी जो हैं वे कुछ लोग हैं जो जाति-धर्म-प्रांत-भाषा आदि-आदि का साइनबोर्ड लगा कर खड़े हो गए हैं; और हमारे यहां चलन यह है कि जो खड़ा होता है वही राजनेता मान लिया जाता है; जो दो-चार को जोड़ लेता है वही राजनीतिक दल बन जाता है. ऐसी स्थिति में विपक्ष के नाम से कोई संरचना सामने आए तो मैं उसे बड़ी खबर मानता हूं, क्योंकि विपक्ष न हो तो संसदीय लोकतंत्र कभी पटरी पर रह नहीं सकता है. विपक्षविहीन लोकतंत्र (कांग्रेसमुक्त !) की बात वे ही करते हैं जो लोकतंत्र का न तो ककहरा जानते हैं, न उसका सम्मान करते हैं, न उसमें आस्था रखते हैं.
ऐसे परिदृश्य में हमें उपराष्ट्रपति के चुनाव को देखना चाहिए. सरकार ने महाराष्ट्र के अभी के राज्यपाल सी.पी.राधाकृष्णन को अपना उम्मीदवार बनाया है, तो विपक्ष ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश सुदर्शन बी.रेड्डी को. इस तरह हमारे सामने दो व्यक्ति हैं जिनमें से एक भारत का अगला उपराष्ट्रपति बनेगा. कैसे चुनेंगे आप इनमें से एक ? यह सवाल उन सबसे है जो संसदीय प्रणाली का सहारा ले कर, भारत की लोकसभा में बैठे हैं तथा उपराष्ट्रपति चुनने के अधिकारी हैं. भारतीय जनता पार्टी व उसके गठबंधन के सभी घटकों से मैं खास तौर पर यह कहना चाहता हूं कि भारत का अगला उपराष्ट्रपति चुनते वक्त आप यह जरूर सोचिएगा कि जिस लोकतंत्र ने आपको यह विशिष्ट हैसियत दी है, उसके प्रति आपका कर्तव्य क्या है !
सी.पी. राधाकृष्णन की सबसे बड़ी व एकमात्र योग्यता यह है कि वे संघ-परिवार से आते हैं – 16 साल की उम्र से वे संघ, और एकमात्र संघ का काम करते रहे हैं. महाराष्ट्र के राज्यपाल के रूप में भी वे यही कर रहे हैं. मोदी-सरकार पर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का इन दिनों ऐसा दवाब है कि वह कई सालों से अपनी पार्टी का अध्यक्ष भी नहीं चुन पा रही है.
अब तक पार्टी के भीतर मोदीजी के हर चयन को ही अंतिम माना जाता था. धनखड़ साहब को भी मोदी ने ही चुना था. लेकिन उस चयन का जैसा अनुभव आया, उससे पार्टी को लगा कि दांव बहुत उल्टा पड़ा. संघ ने भी इसे पसंद नहीं किया. इसलिए उपराष्ट्रपति का चुनाव संघ के लिए एक नया मौका बना कि जिससे मोदी पर दवाब बनाया जा सकता है. इसलिए पार्टी ने भी व संघ ने भी लगातार कहा कि हमें शीर्ष के पदों पर संघ-परिवार से बाहर के किसी भी व्यक्ति को नहीं बिठाना चाहिए. चतुर राजनीतिज्ञ मोदी ने तुरंत पहचान लिया संघ-परिवार को खुश कर, उनसे अपनी गर्दन छुड़ाने का यह सही मौका है. सो सी.पी. राधाकृष्णन का नाम सामने आया. भाजपा नेतृत्व में से भी कोई नहीं कह रहा है कि उपराष्ट्रपति बनने की कोई दूसरी योग्यता सी.पी. में है. उनका नामांकन करवाने गए मोदी ने भी बहुत कहा तो इतना ही कहा कि सी.पी. ऐसे व्यक्ति हैं कि जो ‘ राजनीतिक खेल नहीं खेलते.’ भारतीय जनता पार्टी के सभी सदस्यों को यह खेल समझना चाहिए. सी.पी. को आगे कर मोदी अपना मनचाहा राजनीतिक खेल खेलें ताकि सत्ता पर उनकी अपनी पकड़ मजबूत बनी रहे और सी.पी. की योग्यता यह बताई जाए कि ‘वे राजनीतिक खेल नहीं खेलते !’ यह भाजपा के सांसदों का अपमान है. उनके साथ यह कैसा राजनीतिक खेल खेला जा रहा है ! कोई यह न भूले कि आज आप सत्ता पक्ष में भले हों, कल जनता के पास आपको भी जाना है. अपनी मनमानी के कारण जैसे कांग्रेस ने जनता का भरोसा खो दिया था, आप भी खो देंगे. हमारी जनता जरा धीरे से समझती है लेकिन एक बार समझ जाती है तो छट्ठी का दूध याद करा देती है.
सी.पी.अच्छे या बुरे उपराष्ट्रपति साबित नहीं होंगे, क्योंकि उन्हें उपराष्ट्रपति के काम के लिए चुना ही नहीं जा रहा है. शतरंज की चाल के एक मोहरे के रूप में उनका इस्तेमाल होने जा रहा है. इस सरकार ने अपने काम की ऐसी ही शैली बनाई है कि काम भी, दिशा भी, लक्ष्य भी और निशाना भी सब एक ही आदमी से आएगा; बाकी सब रीढ़ व अक्लविहीन भीड़ हैं जिनका एक ही काम है कि जहां कहा जाए वहां मुहर लगा दें. सरकार को ऐसे फरमाबरदार लोग चाहिए, देश को नहीं चाहिए. उसे मोहरों की नहीं, संवैधानिक पदों पर लोकतंत्र व संविधान से प्रतिबद्ध लोग चाहिए. यह जरूरत कल नहीं, आज पूरी होनी चाहिए, क्योंकि संसदीय लोकतंत्र पटरी पर लौटे तथा सांसदों की गरिमा फिर से बहाल हो, यह आज की और अभी की जरूरत है.
विपक्ष ने जिन सुदर्शन को उपराष्ट्रपति बनाने की सिफारिश की है, वे विपक्ष के आदमी नहीं हैं, विपक्ष के उम्मीदवार हैं. किसी विपक्षी दल से उनका कोई संबंध नहीं रहा है. वे संविधान के आदमी हैं. उनका सारा सक्रिय जीवन न्यायपालिका में बीता है और इस तरह बीता है कि कोई यह नहीं कह सकता है कि वे लोकतांत्रिक सरोकारों के प्रति उदासीन, अपने पेशे में डूबे-सिकुड़े व्यक्ति रहे हैं. वे हमेशा से संविधान की तरफ देखने की प्रगतिशील धारा के प्रतिनिधि रहे हैं.
2007-2011 तक वे सुप्रीम कोर्ट के जज रहे और इस काल में उनकी प्राथमिक चिंता नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों का संरक्षण ही नहीं रही बल्कि वे उसका दायरा बड़ा करने में भी सक्रिय रहे. सुप्रीम कोर्ट के अपने कार्यकाल में उन्होंने सरकार पर कालेधन को ले कर नकेल कसी थी और विदेशों व विदेशी बैंकों में रखे धन के संदर्भ में एक न्यायिक समिति का गठन किया था. जब जस्टिस सौमित्र सेन पर आर्थिक अनैतिकता का आरोप लगा था तब सुदर्शन ने ही उसकी समीक्ष कर, उन्हें दोषी बताया था. छत्तीसगढ़ सरकार ने नक्सली हिंसा की आड़ में राज्यपोषित हिंसा का अत्यंत अमानवीय सिलसिला ‘सलवा जुडुम’ के नाम से चलाया था तब उसके खिलाफ न्यायपालिका की सख्त रोक का आदेश सुदर्शन ने ही दिया था. कभी ऐसा भी हुआ था कि कांग्रेस ने उनके विरोध में अभियान चलाया था.
वे संघ परिवार से नहीं, संवैधानिक परिवार से जुड़े रहे हैं और आज भी इसके अलावा उनकी दूसरी कोई पहचान नहीं है. अभी हमें संवैधानिक पदों पर जैसे तटस्थ व अनुभवपक्व लोगों की जरूरत है, सुदर्शन उसके आदर्श उदाहरण हैं.
इसलिए उपराष्ट्रपति के चुनाव में हमारे सभी सांसदों को दलीय आधार पर नहीं, संविधान की गरिमा के आधार पर फैसला लेना चाहिए. यह दल का नहीं, देश का सवाल है. दलों की लड़ाई भी लोकतंत्र का एक पक्ष है. आम चुनाव में उसकी लड़ाई सभी जरूर लड़ें लेकिन जहां सवाल संविधान व लोकतंत्र का हो, वहां सारे जन-प्रतिनिधियों को उसके पक्ष में खड़ा होना चाहिए. संविधान की धारा 66(1) इसलिए ही बताती है कि उपराष्ट्रपति के चुनाव में पार्टी व्हिप जारी नहीं होगा. सभी सांसद अपने विवेक से गुप्त मतदान करेंगे. वह विवेक हमारे सभी सांसदों को पुकार रहा है.
सीपी बनाम सुदर्शन नहीं है यह; संविधान बनाम एकाधिकार है. तमिलनाड बनाम आंध्र नहीं है यह; हिंदुस्तान बनाम संघ-परिवार है यह. सत्ता, पार्टी, प्रांत व जाति आदि से इसे जोड़ कर देखेंगे हम तो संविधान व लोकतंत्र मुंह की खाएंगे. संसद व सांसद की गरिमा से जोड़ कर देखेंगे तो एक बार फिर राज्यसभा की गरिमा वापस लौटेगी.
(22.08.2025)
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