
कुमार प्रशांत
2024 ने देश को बहुत कुछ दिया है – इसने हमें एक ऐसा चुनाव दिखलाया है जैसा पतनशील चुनाव व चुनाव आयोग हमने पहले देखा नहीं था. इसने हमें एक ऐसा चुनाव परिणाम दिखलाया जैसा हमने पहले कभी देखा नहीं था. हमने पार्टियों की हार देखी थी, हमने पार्टियों की जीत देखी थी; हमने 1977 में वोट की ताकत से एक किस्म की तानाशाही को पराजित होते देखा था. लेकिन हमने ऐसा परिणाम पहली बार ही देखा जिसमें जीतने वाला हार गया, हारने वाला जीत गया ! और अब इस चुनाव परिणाम से हमें एक ऐसी सरकार मिली है जो पूर्ण बहुमत की सरकार से, बला के अल्पमत की सरकार में बदल गई है.
इस सरकार के शिखर पर बैठा आदमी वही है लेकिन उसके पास अब न ‘संख्या का बुलडोजर’ है, न ‘सर्वस्वीकृति वाला इकबाल’ है. वह कवच-कुंडल विहीन ऐसी ‘ईश्वरीय रचना’ है, जिसका देवता झोला उठा कर निकल गया है. मेरी ईश्वर से प्रार्थना है कि वह इस अल्पमत की सरकार को अल्पसंख्यकों, अल्प-अवसर प्राप्त वर्गों, अल्प-प्रतिष्ठा व अल्प-सुरक्षा प्राप्त महिलाओं, अल्प-सामर्थ्यवान बच्चों का सहारा बनने की समझ व दृष्टि दे. ईश्वर से मैं ऐसी प्रार्थना इसलिए करता हूं कि गांधी ने, ‘गांधी’ फिल्म बनने से बहुत-बहुत पहले कहा था कि लोकतंत्र में जब भी, जो भी सरकार रहे, वह चाहे जितने वक्त रहे, सरकार बन कर रहे. गांधी के शब्दों में: “ इस कुर्सी पर मजबूती से बैठो लेकिन इसे हल्के-से पकड़ो !” (1947 में, आजादी के बाद बने मंत्रियों से उन्होंने अंग्रेजी में कहा था : ‘ सिट ऑन इट टाइटली बट होल्ड इट लाइटली !) – जिम्मेवारी के भरपूर अहसास के साथ, इस कुर्सी पर आत्मविश्वास से बैठो लेकिन इससे चिपको मत !
गांधी ने जो कहा था, होने लगा इसका उल्टा; और होते-होते ऐसा हो गया कि आज सारा गोदी मीडिया, जिसकी ‘गोदी’ भी अब किसी हद तक छिन गई है, एक ही राग अलाप रहा है कि नेहरू के बाद मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं कि जो लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बने हैं ! कैसी तुलना है !! नेहरू अपनी क्षमता व समझ भर लोकतांत्रिक संस्थाओं व परंपराओं का सर्जन, संरक्षण व संवर्धन करते हुए, तीनों बार पूर्ण बहुमत से प्रधानमंत्री बने थे. मोदीजी के बारे में ऐसी बात कोई अंधभक्त या निरा अनपढ़ ही कह सकता है.
चुनाव नतीजों का पूर्वानुमान करने का धंधा – एक्जिट पोल – अब प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए. यह न कला है, न विज्ञान ! यह बाजार का नया धंधा है जिसे प्रतिष्ठित कर, भरपूर कमाई करने में कितने ही ‘किशोर’ लगे हैं. यह राजनीति का धंधा करने वालों की असीमित भूख को हथियार बना कर, लोकतंत्र से बलात्कार करने वाली नई बाजारू ताकत है. ऐसे धंधेबाजों को जिस तरह आज मुंह छुपाने की जगह नहीं मिल रही है, उसी तरह उन राजनीतिक पंडितों-विश्लेषकों को भी कल मुंह छुपाने की जगह नहीं मिलेगी जो आज सीटों की संख्या गिन रहे हैं और येनकेन प्रकारेण उसे बढ़ाने-घटाने की दुरभिसंधि में लगे हैं.
लोकतंत्र सत्ता का खेल नहीं है जैसा कि उसे बना दिया गया है; चुनाव मृत आंकड़ों का जोड़तोड़ नहीं है जैसी बाजीगरी करने में हम अक्सर लगे रहते हैं. हर चुनाव समाज की जमीन में नये बीज बोने और उनके अंकुरण की साधना है. यह गतिशील मनोविज्ञान का शास्त्र है जिसे हम अपनी आधी-अधूरी, छल-क्षद्म से भरी मानसिकता से आंकने-ढकने का खेल खेलते हैं. मतदाता ने एक संवैधानिक संरचना (चुनाव आयोग) की निष्पक्ष देख-रेख में अपना मत दे दिया जो आज के चलन के मुताबिक मशीनों में बंद हो गया. वे मशीनें खुलेंगी और मतदाता का फैसला सामने आ जाएगा. इतनी सीधी, सरल-सी बात को इन तथाकथित ‘विशेषज्ञों’ ने इतना जटिल बना दिया है कि वह धोखाधड़ी की श्रेणी में आ गया है. यह बंद होना चाहिए.
किसी ने बहुत खूब कहा कि 4 जून 2024 को जो चुनाव परिणाम आया, उसने लोकतंत्र की हवा में ऑक्सीजन की मात्रा थोड़ी बढ़ा दी है. हवा में ऑक्सीजन पर्याप्त हो तो जीवित संरचनाएं सांस खींच पाती हैं. ऐसा ही लोकतंत्र के साथ भी है. संसद जब संविधान के दायरे में रहती है और संवैधानिक संरचनाएं जब स्वतंत्रतापूर्वक अपनी-अपनी जिम्मेवारियों का निर्वहन करती हैं, तब लोकतंत्र सांस ले पाता है. जब ऐसा नहीं होता है तब अस्पताल चाहे जितना आधुनिक और ‘फाइवस्टार’ चमक-दमक वाला हो, कोविड के दौर में ऑक्सीजन बिना वहां जैसा हमारा हाल हुआ था वैसा ही हाल लोकतंत्र का होता है.
मैं कहूंगा कि 4 जून 2024 को आया चुनाव परिणाम भारतीय संसदीय लोकतंत्र को संजीवनी बूटी दे गया है. हनुमानजी की लाई संजीवनी बूटी अमृत नहीं थी कि जीवित हो उठे लक्ष्मण को अब कोई मार ही नहीं सकता है. संजीवनी बूटी यानी मृत होते पौधे को पानी पिलाना और यह पहचानना कि इसे जीवित, पल्लवित व पुष्पित रखना हो तो लगातार पानी खोजने व पिलाने की जरूरत होगी. यह अहसास ही लोकतंत्र की संजीवनी है. इसलिए मत गिनिए कि इंडिया गठबंधन को कितनी सीटें मिलीं और वह सत्ता से कितनी दूर रह गई. मत गिनिए कि मोदी-गठबंधन को कितनी सीटें मिलीं. इसमें भी समय मत खराब कीजिए कि वे अपनी अमर्यादित सत्ताभूख को तृप्त करने के लिए आगे क्या-क्या शैतानी चालें चलने जा रहे हैं. यह देखिए और यह समझिए कि इस चुनाव में मतदाताओं ने सत्ता व तिकड़म की शक्ति से बनाया गया वह माहौल तोड़ दिया जिसे पिछले 10 सालों से रचा जा रहा था कि एक आदमी ही राष्ट्र है; एक आदमी की कुंठाएं ही राष्ट्रनीति हैं और उसका अहंकार ही लोकतंत्र है.
यह मतदाता कौन है ?
यह मतदाता वह है जिसकी हम सबसे कम कद्र करते हैं. वह बिखरा हुआ, असंगठित है, इसलिए हम उसको कभी अपनी गिनती में नहीं लेते हैं. वह गरीब-अशिक्षित और अंगूठाछाप है, इसलिए हम अपने आभिजात्य ज्ञान में उसे गलती से भी जगह नहीं देते हैं. लेकिन वह आंखें खोल कर अपने चारो ओर की दुनिया को देखता रहता है; वह कम बोलता है लेकिन खूब जज्ब करता है; वह शैतानी ताकतों को पहचानता है; वह भटकता भी है, छला भी जाता है लेकिन फिर-फिर लौट कर राह पर आ जाता है. वह गांधी का वह अंतिम आदमी है जिसका ताबीज बना कर, उन्होंने तीन गोली खाने से पहले हमें सौंप दिया था.
मैं गांधी-से शब्द कहां से लाऊं ! इसलिए अपने शब्दों में गांधी का भाव पकड़ने की कोशिश करता हूं : ‘ जब कभी ऐसे संशय में घिरने लगो कि तुम जो करने जा रहे हो वह सही या गलत; याकि तुम्हारा अहंकार इतना प्रबल होने लगे कि सही-गलत का भेद करना कठिन होने लगे तब सही फैसले तक पहुंचने के लिए तुम्हें एक ताबीज देता हूं. जिसे तुमने खुद देखा हो, ऐसे सबसे निरीह-निराधार-कातर आदमी का चेहरा अपने ध्यान में लाना और खुद से पूछना कि तुम जो करने जा रहे हो, तुम जो सोच रहे हो क्या वह इस आदमी की किस्मत बदल सकेगा ? क्या इससे यह आदमी अपने भावी को बदलने में ज्यादा समर्थ होगा ? यदि जवाब हां हो तो आगे जाना; संशय में रह जाओ तो वह काम छोड़ देना !’ यही सबसे निरीह-निराधार आदमी भारत माता है, यही भारत भाग्यविधाता है. गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से इसकी साधना शुरू की तो 30 जनवरी 1948 तक करते ही रहे.
राहुल गांधी अपनी भारत-यात्रा में जाने-अनजाने इसी भाग्यविधाता तक पहुंच गए थे. राहुल गांधी का जो नया अवतार हम देख रहे हैं, वह इसी भाग्यविधाता के स्पर्श से संभव हुआ है. न कांग्रेस यह गलतफहमी पाले कि अब उसकी वापसी हो रही है, न राहुल इस मुगालते में रहें कि उनकी झोली में अक्षय राजनीतिक पूंजी आ गई है. गांधी का यह अंतिम आदमी सिर्फ उन्हें ही ‘प्रथम’ मानता है, सिर्फ उनका ही यह भाग्यविधाता है जो लगातार उसके बीच रहते हैं, उसकी बातें सुनते हैं, उससे बातें करते हैं और उसकी लड़ाई लड़ते हैं. वह जातिवादी नहीं है, हालांकि वह अपनी जाति के प्रति सावधान है; वह सांप्रदायिक नहीं है हालांकि वह अपने धर्म के प्रति अत्यंत संवेदनशील है; वह प्रांतीय व भाषाई द्वेष से घिरा नहीं है हालांकि उसके भीतर यह बोध जीवित रहता है. मतलब यह कि वह जटिल संरचना है. लेकिन सही-गलत, शुभ-अशुभ, सच-झूठ के संदर्भ की उसकी समझ बहुत बारीक व पवित्र है. वह देर से समझता है लेकिन समझता जरूर है. इसलिए उसके साथ लगातार संबंध-संपर्क-सक्रियता रणनीति नहीं, जरूरी कर्तव्य है.
इस भारत भाग्यविधाता के साथ जिसका जुड़ाव होगा, जुड़ाव बना रहेगा, उसकी संसदीय शक्ति भी बढ़ेगी और उसकी सामाजिक शक्ति भी बढ़ेगी. इन दोनों शक्तियों का कोई संयोजन हो तो भारत लोकतंत्र का एक नया नमूना पेश कर सकेगा – ‘विश्वगुरु !’ जयप्रकाश ने कहा था कि हमारे लोकतंत्र को जनांदोलनों की शक्ति से चलने वाली सरकार चाहिए. क्या इस चुनाव के संदर्भ में हम यह तत्व समझ सकेंगे और इसकी संभावना खोज सकेंगे ? जवाब राहुल गांधी दें कि कांग्रेस कि हम सामाजिक धारावाहिकता के प्रतिनिधि लेकिन जवाब दिए बिना चुनाव से हुए इस परिवर्तन को टिकाए रखना संभव नहीं होगा.
(10.06.2024)
मेरे ताजा लेखों के लिए मेरा ब्लॉग पढ़ें
https://kumarprashantg.blogspot.com
![]()





શક્યતાઓની વાત નીકળી છે ત્યારે યાદ કરીએ ‘હોપ ફોર ધ ફ્લાવર્સ’ નામના નાનકડા સુંદર પુસ્તકને પણ. આ પુસ્તક માટે ‘બ્યૂટીફૂલ માઈન્ડ્ઝ’ નામનું પ્રેરક માસિક ચલાવતા સ્કૉટ બેરી કૉફમેને કહ્યું છે કે ‘નાનો હતો ત્યારથી આજ સુધી જ્યારે પણ કોઈ નિરાશા ઘેરી વળતી લાગે ત્યારે હું આ પુસ્તક વાંચું છું અને મારી હતાશા ખંખેરાઈ જાય છે. મને થાય છે કે બીજાઓ સાથે સરખામણી કર્યા વિના હું મારા રસ્તે ચાલું એ જ બરાબર છે.’ ‘હોપ ફોર ધ ફ્લાવર્સ’ લખાયાને અડધી સદી વીતી ગઈ છે ને ત્યાર પછી દુનિયાએ બે નવી પેઢી જોઈ લીધી છે; પણ આજની જીવનશૈલી અને તેના ઉપાય માટેની જે વાત આ પુસ્તક કરે છે તે ત્યારે ય તાજી હતી, અત્યારે ય તાજી છે અને હંમેશાં તાજી રહેશે કારણ કે બીજું બધું ગમે તેટલું બદલાય, માનવીના મન અને જીવનની મૂળભૂત માગણી તો દરેક યુગમાં સરખી જ રહેવાની. નવા વર્ષે આપણે આપણા મનમાં, જીવનમાં કશુંક ઉમેરવું હોય કે કશુંક કાઢી નાખવું હોય તો ‘હોપ ફોર ધ ફ્લાવર્સ’ને યાદ કરવા જેવું છે.