मैं जानता हूं कि हम में से बहुत सारे साथी-मित्र विनोबा का नाम पढते ही, आगे पढना छोड देते होंगे. यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि मुझे अबतक बहुत थोडे मित्रों की ओर से कोई फीड-बॅक मिला है. दूसरा भी एक कारण हो सकता है, कि उनका बहुत सारा बोलना और लिखना हिंदी भाषामें ही हुआ और मैं उसे मराठी या हिंदी, जैसे मेरे पुराने कागजात में भाषा होगी, उसी में ही भेजता रहता हूँ. उस का अनुवाद अंग्रेजी में नहीं करता.
लेकिन, आज मैं खास सब को प्रार्थना कर रहा हूँ कि हर कोई निम्न भाषण अवश्य पढे, इतना ही नहीं, उस को पढते समय आज जो उडीशा में ग्राम-सभाओं में घटित हो रहा है उस को याद करते करते पढें. उडीशा में यह हो रहा है, जो हमारा ग्राम-स्वराज्य का सपना था – नहीं, है, आज भी. उडीशा की आदिवासी ग्रामसभाएं यह निर्णय दे रहीं हैं कि उन्हें वेदान्ता का आक्रमण नहीं चाहिए. नियमगिरी में जो भी खनिज सम्पत्ति हो, भले वहीं रहे. लेकिन उन्हें तो उनके प्रभु की सुरक्षा चाहिए. इस संदर्भ में इस निम्नलिखित लेख को सरसरी नजर से भी आप देखेंगे तो आप का दिल और दिमाग आंदोलित हुए बगैर रहेगा नहीं.
आपका साथी,
डॅनियल माझगांवकर के जय-जगत्
राज्य – संस्था का क्षय करते जाना यही गांधीजी की राजनीति थी…
आज दुनिया में एक बडा मोह फैला है और वह हैः सत्ता-मोह. सज्जन लोग भी यह मानकर चलते हैं कि सत्ता हाथ में आये बिना वे कोई काम ही नहीं कर सकेंगे. या तो ऐसा कहें कि सत्ता की मदद से वे और अधिक काम कर सकेंगे. गांधी विचार पर श्रद्धा रखनेवाले जो हैं उनमें से भी कइयों को ऐसा लगता रहता है. उनको यह भी लगता है कि हम लोगों ने स्वराज्य प्राप्त किया है, और राज्य चलाने की जिम्मेदारी हम लोगों ने ही अपने कंधेपर नहीं ली, तो फिर स्वराज्य-प्राप्ति का अर्थ ही क्या है….? इसलिए राज्य शासन चलाने की जिम्मेदारी वे अपनी मानते है.
उनका कहना सही है, मान भी लें. लेकिन मेरा कहना है कि गांधी विचारपर श्रद्धा रखनेवालों को और थोडा गहराईसे विचार करना चाहिए. हमने स्वराज्य अवश्य प्राप्त किया. लेकिन गांधी विचारों के आधार से ही देखें तो, वह (स्वराज्य) इसलिए प्राप्त किया कि वह हाथ में आते ही उस सत्ता का क्षय करने का काम दूसरे क्षण से ही शुरू करना. पूर्ण रूपसे विलय होने में भले ५० साल भी क्यों न लगे ! लेकिन उस की शुरूआत आज से ही होनी चाहिए.
मैं ऐसा मानता हूँ कि यही अपना मुख्य विचार है. गांधी-विचार पर श्रद्धा रखनेवालों के सामने ये ही मुख्य ध्येय है – जनता को जगाना और राज्य का क्षय करते जाना. जनता की शक्ति जगाते जाना और उस आधार से राज्यशक्ति क्षीण करते जाना. इस के बिना हम लोग गांधीजी के कल्पना के समाज को अस्तित्त्व में नहीं ला सकेंगे. हम लोग सरकारों की सत्ता क्षीण करना चाहते हैं और उस की जगह पर लोगों की अपनी सत्ता प्रस्थापित करना चाहते हैं. सर्वोदय के सामने ये ही एक क्रातिकारी लक्ष्य है. इसे मैं ने नाम दिया है "लोकनीति". अपनी नजर के सामने सतत यही ध्येय्य रख करके हम काम करते रहेंगे तो उसे हम अवश्य प्राप्त कर सकेंगे.
सर्वोदय सर्वव्यापी है. और उस में राजनीति का भी समावेश हो ही जाता है. सर्वोदय कोई राजनीति से अलिप्त – दूर नहीं है. परंतु सर्वोदय की भी अपनी एक राजनीति है, जिसे हम "लोकनीति" कहते हैं. उस में "राज्य" नहीं, "लोक" मुख्य हैं.
आजतक 'राजा कालस्य कारणम्' या 'यथा राजा तथा प्रजा' चलते आया है. हम लोगों ने अभी लोकतंत्र लाया है. ऐसा होते हुए भी 'यथा मुख्यप्रधानः तथा राज्यम्' ही आजतक चलता आया है ! इस स्थिति को सर्वोदय पलटाना चाहता है. सर्वोदय में हम 'लोक ही कालस्य कारणम्' और 'यथा लोकमतः तथा राज्यम्' ऐसा करना चाहते हैं. आज की जो लोकतांत्रिक व्यवस्था है वह अभी भी प्रातिनिधिक लोकतंत्र ही है. उस में "लोक" सीधे राज नहीं चलाते. उनके द्वारा चुने हुए प्रतिनिधी राज चलाते हैं. परिणाम यह आता है कि लोगों के बुद्धि-शक्ति का विकास होता नहीं. लोगों की शक्ति तभी सही माने में प्रगट हो सकेगी जब वे अपने अपने छोटे छोटे गांवों में अपना राज – अपना कोरोबार स्वयं चलाते जायेंगे. आज अ-प्रत्यक्ष (indirect, delegated) लोकतंत्र चल रहा है. उस की जगह पर सर्वोदय का प्रयास है कि लोगों की भागिदारी वाला प्रत्यक्ष लोकतंत्र (direct democracy) स्थापित किया जाये. उसे ही हम "लोकनीति" कहते हैं.
राजनीति का एक संकीर्ण, संकुचित अर्थ होता है. और दूसरा व्यापक. संकीर्ण अर्थ में जो राजनीति चलती है, वह है पक्षीय राजनीति. याने सत्ता की राजनीति. लेकिन, सर्वोदय न सत्ता पर भरोसा रखता है, न पक्षीय राजनीति पर. राजनीति की प्रक्रिया में उपर से नीचे की ओर जाना होता है. तो लोकनीति में नीचे से उपर जाने का होता है. (ऐसी उलटी प्रक्रिया है.) राजनीति में सभी सत्ता केन्द्रस्थान में होती है. लोकनीति में वह गाँव गाँव में होती है. राजनीति में कुछ थोडे से ही लोग हुकूमत चलाते हैं, तो लोकनीति में अभिक्रम लोगों के हाथों मे रहता है.
सही माने में हम मानते हैं कि जीवन के अलग अलग विभाग होते नहीं है. जीवन याने एक अखंडित वस्तु, प्रवाह. उस अर्थ में उसमें राजनीति का भी समावेश तो हो ही जाता है. इसीलिए हम ऐसा नहीं चाहते हैं कि राजनीति को हम अपने चिंतन के दायरे के बाहर या निस्बत से भी दूर रखें. इस से उलटे, हमें राजनीति का उत्तम चिंतन करना चाहिए. और केवल अपने ही देश की राजनीति का नहीं, बल्कि वैश्र्विक राजानीति के संबंध में भी चिंतन-अध्ययन करते रहना जरुरी मानना चाहिए. किंतु वह साक्षी रूपसे ही करना चाहिए. आज की सत्ता की और पक्ष-विपक्ष की राजनीति से दूर रहकर ही वह करना चाहिए. इसलिए कि हम आज की राजनीति में मूलभूत रूप से ही बदलाव (परिवर्तन) करना चाह रहें हैं. लोकनीति को लाना हो तो राजनीति को हटाना ही पडेगा. यदि अपने को पेड काटना है तो क्या उस के ऊपर चढकर हम उसे काट सकेंगे ? हमें तो मात्र पेड की शाखाएं या टहनियाँ ही नहीं, बल्कि पूरा पेड ही, उस की बुनियाद से उखाड कर फेंकना है. उसी तरह राजनीति से दूर रहकर ही हम उसे उखाड सकते हैं. इसमें हम केवल सत्ता की और पक्ष-विपक्ष की संकीर्ण-संकुचित राजनीति से, अलिप्त रहते हैं, व्यापक राजनीति से बिलकुल नहीं.
इस अर्थमें लोकनीति याने एक व्यापक राजनीति ही है. उस का ध्येय्य है कि आज की यह संकीर्ण राजनीति दूर हटा कर लोगों की राजनीति स्थापित करना. लेकिन, आज नाम तो लोकतंत्र का लिया जाता है, किंतु प्रत्यक्ष में मात्र वही फटी-पुरानी राजनीति चलती रहती है. मैं ऐसी राजनीति को नाना फडणवीसी राजनीति कहते रहता हूँ. उन के जमाने में क्या स्थिति थी ? अंग्रेज हमला करनेवाले थे. वे बोरघाट तक आ पहुँचे थे. पुणे में पेशवा अपने साथीदारों को लेकर तैयार थे. पेशवाने तो पुणे का रूपांतर दावानल में -अग्नि-प्रलय- में करने की तैयारी की थी. और इधर बातचीत क्या चल रही थी ? "शिंदे कितनी सेना लेकर आयेगा ? भोंसले कितने सैनिक लायेगा ? होलकर कितना सैन्य ला सकेगा ?"
"हमने इतना इतना लष्कर लाया तो उस के बदले में हमें क्या मिलनेवाला है ?"
"जबाब था – खानदेश का अमुक अमुक हिस्सा दे देंगे आप को."
"हमने इतनी इतनी सेना लायी थी, उसके बदले में हमें क्या मिलेगा ?"
तो जबाब दिया – "अमुक अमुक विस्तार दे देंगे आप को."
बिलकुल वैसा ही आजकल भी चल रहा है. नाना फडणवीस के जमाने में जो चलता था, वैसी ही राजनीति आज भी चलती है !
"हमारे इतने इतने सदस्य हैं, प्रांत में या केन्द्र में. हमें प्रधानमंडल में कितनी सीटें मिलेंगी, कौन कौन से विभाग (डीपार्टमेंट्स-मिनिस्ट्रीज्) मिलेंगी ?"
मैं आप को पूछना चाहता हूँ – नाना फडणवीस के जमाने की राजनीति से भिन्न ऐसा आज की राजनीति में क्या चल रहा है ? सर्वोदय ऐसी संकुचित राजनीति को खत्म करना चाहता है. और उस की जगह पर व्यापक राजनीति की स्थापना करना चाहता है. इसीलिए ही सर्वोदय स्वयं सत्ता की और पक्ष-विपक्ष की राजनीति से अलिप्त रहना चाहता है. और लोकनीति को ही आगे बढाने की सातत्यपूर्वक कोशिष करते रहता है. लोकनीति का यदि आसान भाषामें अर्थ समझाना हो तो ऐसा कह सकते हैं – सत्ता एक के बाद एक लोगों के हाथों मे आती जायेगी. सरकार हंमेशा पडदे के पीछे ही रहेगी और उसकी जगह लोक-सत्ता प्रवेश करेगी. कर्तृत्त्व की लगाम लोगों के हाथमें आयेगी. और लोक उसके उपयोग की इच्छा और शक्ति दोनों बता सकेंगी. इसके लिए ही हम लोग लोकशक्ति जगाना चाहते हैं, और लोगों को कहते हैं – अरे लोगों, आप का नसीब आप के ही हाथों में है.
मेरी साफ साफ राय है कि गांधीजी की दृष्टि से ये ही सच्ची राजनीति है. गांधीजी ने भी स्वयं जीवनभर ऐसे ही व्यापक राजनीति के लिए, याने लोकनीति के लिए ही काम किया. लेकिन सत्ता के मोह के कारण और गांधीजी के जीवन के बारेमें गलत मूल्यांकन किया गया इसीलिए उनके विचारों का सही सही स्वरूप तुरन्त ध्यान में नहीं आ सका.
लेकिन जरा सोचिये तो सही. स्वराज हासिल हुआ, तो महमद अली जीन्हा पाकिस्तान के गव्हर्नर जनरल बन गये. वैसे गांधीजी को यदि भारत के गव्हर्नर जनरल बनना होता तो उन्हें कोई रोक सकता था क्या ? लेकिन उन्होंने नोआखाली की राह पकडी !और जब दिल्ली में स्वतंत्रता का महोत्सव मनाया जा रहा था उस समय पुलिस या लष्कर की सुरक्षा के बिना ही, उस कोलकता में साम्प्रदायिक दावानल बुझाने के लिए वे अपने प्राणों की बाजी लगा रहे थे ! वैसे ही,उन्होंने स्वराज्य प्राप्ति के बाद व्हाईसरोय भवन का रूपांतर अस्पताल में करने का सुझाव दिया. ये सब लक्षण राजनीति वाले के माने जायेंगे क्या ? इसलिए उनके संबंध में जो गलत आकलन अनेकों के दिमाग में घर कर गया है, उसे हटाने की जरूरत है. गांधीजी राजनीति के पीछे कभी थे ही नहीं. जीवनभर उनकी अखंड साधना चलती थी वह लोकनीति के लिए ही थी.
और इतना तो भला सोचिये कि यदि गांधीजी को राजनीति ही चलाने की इच्छा रहती तो आखिर में काँग्रेस का "लोकसेवक संघ" में रूपांतर कर देनेकी सलाह उन्होंने क्यों कर दी ? स्वयं के मारे जाने से एक दिन पहले वे लिखकर गये थेः "काँग्रेस का स्वराज्य-प्राप्ति का कार्य अब पूरा हुआ है. अभी उसे अपने को आम जनता की सेवा में स्वयं को जुटा देना चाहिए. और एक राजनीतिक पक्ष के रूप में उस का विलय कर के उस का रूपांतर लोक-सेवक संघ में कर देना चाहिए." काँग्रेस के लिए यह उनका "आदेश" था, उनका वसीयतनामा था, Last Will and Testament था. उसमें उन्होंने और भी कहा था. काँग्रेस ने राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त की, लेकिन देश की सामान्य जनता के लिए आर्थिक, सामाजिक वैसे ही नैतिक स्वतंत्रता प्राप्त होना अभी बाकी है. इस काम को पूरा करने के लिए एक लोक-सेवक संघ की रचना की जाये. देश की सेवा करने के लिए सभी पक्ष और पंथों से मुक्त ऐसा एक संगठन होगा और वह गाँव-गाँव को स्वावलंबी बनाने के वास्ते कटिबद्ध होगा. गांधीजी जनता को आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे. और काँग्रेस की शक्ति को इस काम की तरफ मोडना चाहते थे.
किन्तु राजनीति वालों को उन की यह सलाह रास नहीं आयी. उन्हें गांधीजी की यह सलाह एकदम निरर्थक, असंगत मालूम हुई, विचित्र लगी. और वह भी तो स्वाभाविक ही था. गांधीजी की वह सूचना पूरे तौर पर राजनीति से बिलकुल उलटे दिशा की ओर ले जानेवाली थी. लेकिन सही माने में देखें तो वह अति दिव्य, विशाल और भव्य कल्पना थी. एक अत्यंत श्रेष्ठ कल्पना थी. उस सुझाव में गांधीजी के प्रतिभा की चमक दिखाई देती थी. मैं जब जब इस कल्पना के विषय में सोचता हूँ तो ऐसा ध्यान में आता है कि वह एक उपनिषद-तुल्य दर्शन था. अनौखी प्रतिभा के बिना ऐसी कल्पना सूझना भी नामुमकिन है – अशक्य है.
गांधीजी की वह सलाह मानकर यदि लोक-सेवक संघ बना होता, तो सारे देशपर उसका एक अच्छा प्रभाव पडा होता. जनता को उचित दिशा में ले जाने, निष्काम और निःपक्ष भाव से जनता की सेवा करने, उचित मार्गदर्शन करने के वास्ते एक नैतिक शक्ति देश में खडी होती. और महत्त्व की बात यह होती कि देश में सेवा-संस्था मुख्य मानी जाती और राज चलानेवाली सत्ता-संस्था गौण हो जाती.
गांधीजी के जमाने में काँग्रेस याने राष्ट्रीय एकीकरण परिषद की तरह थी. उससे राष्ट्रीय एकजूट का बहुत बडा काम होता था. गांधीजी उसी काँग्रेस को स्वराज्य-प्राप्ति के बाद एक सत्ता-संस्था के नाते टिकाने के ऐवज में एक देशव्यापी, सब से बडी सेवा-संस्था बनाना चाहते थे. कारण यह था कि वे सरकार की शक्ति को गौण और जनता की शक्ति को मुख्य मानते थे. यदि आप लोक-सेवक बनोगे तो सत्ता धारण करनेवालोंपर आप का प्रभाव पडेगा. सत्ता का स्थान दूसरे नंबर पर होगा, पहला नहीं. पहला लोक-सेवक होगा, सेवा रानी होगी, और सत्ता उसकी दासी होगी.
परंतु इतनी प्रचंड कल्पना हजम करने के लायक चित्त उस समय अपनेपास नहीं था. शायद आज भी वह अपने पास नहीं है. इसका क्या परिणाम देश पर हुआ वह तो हमने देख लिया है. आज स्थिति ऐसी है कि देश में कोई नैतिक आवाज है ही नहीं. भिन्न-भिन्न राजनीतिक नेता जनता के सामने एक-दूजे के मुद्दे का खंडन करते रहते हैं, और स्वतः बडी बडी गर्जना (वल्गना) करते हैं. निष्क्रीय जनता में उस के कारण किसी भी प्रकार की क्रीयाशीलता निर्माण नहीं होती. जिसे हम नैतिक नेतृत्त्व कह सकें, इसका देशमें आज बिलकुल अभाव है. इसके कारण देश में एक तरह की निष्क्रीयता, शून्यता और रिक्तता फैली है. और जनता कशमकश में पडी है, कि कहाँ जायें, क्या करें….यह उस के ध्यान में ही नहीं आ रहा है. उपर से फिर देश में आज सत्ता-संस्था मुख्य बनी है, सब ओर उसका ही बोलबाला है. छोटी-छोटी सेवा संस्थाएं सरकार की आश्रित बनकर काम चलाती हैं ! और काँग्रेस का नाम जो एक समय में बहुत प्रभावी था, वह भी अभी क्षीण हो गया है.
ध्यान में लेने लायक बात यह है कि, यदि गांधीजी की उस सलाह को माना होता, तो ऐसे दिन आते नही ! गांधीजी की अपेक्षा के अनुसार राजनीति को हम अपनी जीवननिष्ठा के द्वारा प्रभावित कर सके होते. राजनीति को लोकनीति में परिवर्तित कर सके होते.
वैसेही, गांधीजी की राजनीति भिन्न प्रकार की है यह बात यदि गांधी विचार पर श्रद्धा रखनेवालों ने भी ठीक तरह से समझ ली होती तो वे भी राजनीति के प्रवाह में बह नहीं जाते और लोकनीति के लिए सतत प्रयत्नशील रहें होते. उन में से कितनों को यह लगा कि गांधीजी राजनीति से दूर रहें, लेकिन हम कैसे दूर रह सकते हैं ? सत्ता के द्वारा सेवा करना यह भी अपना कर्तव्य ही तो है. लेकिन समझने की बात यह थी कि उस में अलिप्त रहने की बात नहीं थी. हम सब जिस लोकनीति की बात कर रहें हैं, वह अभावात्मक नहीं है. उदारहरण के लिए, कोई संस्था या संघटन अ-राजनीतिक माना जाता है, उस अर्थ में हम सब अ-राजनीतिक नहीं है न. जैसे, एकाध अस्पताल अ-राजनीतिक माना जाता है और उस का एकमात्र उद्देश्य होता है कि बीमारों की सेवा करना. किंतु अपना उद्देश्य केवल सेवा करना ही नहीं है. उलटे, आज जो राजनीति चल रही है, उसे तोडने का काम अपना है. अपने को सत्ता की और पक्ष-विपक्ष की राजनीति को तोडना है. मतलब, हम भी व्यापक अर्थ में राजनीति में ही है. सत्ता की और पक्ष-विपक्ष की राजनीति को खतम करने के लिए ही हम लोग उस से अलिप्त रहकर लोकनीति की स्थापना करने के लिए प्रयत्नशील हैं.
इस तरह, गांधी विचार में श्रद्धा रखनेवालों के सामने आज मुख्य ध्येय्य है, जनता को जाग्रत करना और राज्य-शक्ति को क्षीण करते जाना. यहाँ इस बात का भी उल्लेख करना चाहिए कि राज्य क्षीण होना चाहिए यह बात साम्यवादी लोग भी करते हैं. उनका भी अंतिम आदर्श हैः ध स्टेट विल विधर अवे. याने आखिर में राज्य क्षीण होकर के गिर पडेगा – जैसे कोई पका फल. याने राज्य का विलय होना जरूरी है ऐसा वे भी मानते हैं. लेकिन वे ऐसा कहते हैं कि यह तो अंतिम अवस्था की बात हुई. लेकिन आज की घडी में, आज की परिस्थिति में तो, इस बीच वाली स्थिति में तो राज्य-सत्ता को शक्य है वहाँ तक मजबूत करने की जरूरत है. और उस के आधार से जो भी विरोधी शक्तियाँ हैं उन्हें नष्ट कर के बाद में ही राज्य क्षीण हो जायेगा. याने, साम्यवाद के तत्वज्ञान में राज्य-सत्ता मजबूत होनी चाहिए यह है "रोकड" बात, और राज्य-शक्ति का विलय यह बात है "उधार"! यह उधारी कब वसूल होगी, या होगी भी या नहीं, यह वे अभी तो बता नहीं सकते हैं.
साम्यवादियों की इस भूमिका के क्या क्या परिणाम हुए यह सब हमने देख लिया है. बीच की स्थिति, बीच की स्थिति कहते कहते रशिया में तो राज्य-सत्ता की पकड इतनी जोरदार – मजबूत – बैठी कि उस का रूपांतर तानाशाही में हुआ. इसीलिए, अपने को तो यह तय करना, पक्का करना चाहिए, कि जो भी करना है उस की शुरूआत आज से ही करना चाहिए. राज्य-सत्ता को आज के आज ही हम नष्ट नहीं कर सके तो भी उसे आज से ही कम कम करते जाना है. राज्यक्षय की प्रक्रिया आज से ही शुरू करनी चाहिए. और ऐसे होते होते वह संपूर्ण रूप से समाप्त होगी तब होगी.
इतना सब कहने का सार यह है कि गांधीजी की राजनीति याने राज्य का क्षय करने की ही राजनीति. लोगों को हम यह कहते रहेंगे कि आप की तकदीर आप के ही हाथ में है. इसी संदर्भ में ही हम लोग विकेन्द्रीकरण और ग्रामस्वराज्य की बात करते रहते हैं. आत्मनिर्भर गाँव निर्माण कर जनता की शक्ति जगाते जाना उस से ही अंततोगत्वा हम राज्य-सत्ता का विलोपन कर सकेंगे. गांधीजी की कल्पना की अहिंसक संस्कृति यदि हम सब को स्थापित करनी हो तो वह ऐसे आत्मनिर्भर गाँवों के आधार पर ही कर सकेंगे. लोगों को यह महसूस होना जरूरी है कि हमारी शक्तिसे ही हम हमारे गाँव को उन्नति की ओर ले जा सकेंगे.
(समाप्त)
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He spoke for 20 minutes in which he appealed to the refugees to face their suffering “with as much fortitude and patience” as they could summon. He said, “Today is Diwali day but there can be no lighting of chirags for you or for anyone. Our Diwali will be best celebrated by service of you and you will celebrate it by living in your camp as brothers and looking upon everyone as your own. If you will do that you will come through victorious.”