 पूरा देश तालाबंदी में गया तो जैसे कोई एक ताला खुला ही रह गया. नई दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान के बंद द्वार में बंद हुआ मैं देखता रहा सामने की सूनी पड़ी सड़क पर वह अबाध मानव-झुंड जो अपना पूरा अस्तित्व संभाले चल रहा था- लगातार-लगातार ! कोरोना से डरी नगरीय सभ्यता ने उनके मुंह पर अपने दरवाजे बंद कर दिए थे. वे सब जा रहे थे – भाग या दौड़ नहीं रहे थे, बस जा रहे थे. मैं जब-जब उन्हें देखता, मन कहीं दौड़ कर ‘पान सिंह तोमर’ के पास पहुंच जाता था ! यह फिल्म देखी है आपने ? मैंने जब से देखी तब से आज तक वैसी दौड़ दोबारा देख नहीं पाया हूं. इरफान उस फिल्म में बहुत कुछ कर गये हैं लेकिन जिस तरह दौड़ गये वह भारतीय सिनेमा का एक मानक है. ये अनगिनत और अनचाहे दिहाड़ी मजदूर, जो पता नहीं देश के किस कोने से निकले थे और पहुंचे थे अपनी राजधानी दिल्ली- और बिना स्वागत, बिना आवाज, बिना सूचना उन्होंने राजधानी का सारा कल्मष खुद पर ओढ़ लिया. मुझे खूब पता है कि उनमें से किसी ने भी दिल्ली की राजधानी वाला चेहरा देखा भी नहीं होगा, उनके लिए दिल्ली का चेहरा रोटी का चेहरा था.
पूरा देश तालाबंदी में गया तो जैसे कोई एक ताला खुला ही रह गया. नई दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान के बंद द्वार में बंद हुआ मैं देखता रहा सामने की सूनी पड़ी सड़क पर वह अबाध मानव-झुंड जो अपना पूरा अस्तित्व संभाले चल रहा था- लगातार-लगातार ! कोरोना से डरी नगरीय सभ्यता ने उनके मुंह पर अपने दरवाजे बंद कर दिए थे. वे सब जा रहे थे – भाग या दौड़ नहीं रहे थे, बस जा रहे थे. मैं जब-जब उन्हें देखता, मन कहीं दौड़ कर ‘पान सिंह तोमर’ के पास पहुंच जाता था ! यह फिल्म देखी है आपने ? मैंने जब से देखी तब से आज तक वैसी दौड़ दोबारा देख नहीं पाया हूं. इरफान उस फिल्म में बहुत कुछ कर गये हैं लेकिन जिस तरह दौड़ गये वह भारतीय सिनेमा का एक मानक है. ये अनगिनत और अनचाहे दिहाड़ी मजदूर, जो पता नहीं देश के किस कोने से निकले थे और पहुंचे थे अपनी राजधानी दिल्ली- और बिना स्वागत, बिना आवाज, बिना सूचना उन्होंने राजधानी का सारा कल्मष खुद पर ओढ़ लिया. मुझे खूब पता है कि उनमें से किसी ने भी दिल्ली की राजधानी वाला चेहरा देखा भी नहीं होगा, उनके लिए दिल्ली का चेहरा रोटी का चेहरा था.
‘पान सिंह तोमर’ के साथ भी ऐसा ही था लेकिन उसकी रोटी में आत्मसम्मान का जायका भी घुला हुआ था. इसलिए उसकी दौड़ अस्तित्व की दौड़ थी. सामने से जा रहे मजदूर दौड़ नहीं रहे थे, वे कुछ कह भी नहीं रहे थे, बोल ही नहीं रहे थे – बस, अपनी अस्तित्वहीनता की कातर पुकार बन कर चले जा रहे थे. लेकिन मैं देख पा रहा था और सुन भी रहा था वह हाहाकार जो ‘पान सिंह तोमर’ से उठा था और आज राजधानी की सड़कों पर आकार ले रहा था, गूंज रहा था. अभिनय ( अभिनय ही क्यों, कोई भी कला जो सच को छूने को छटपटा रही हो) कितना लंबा सफर तै कर सकता है, क्या हमें इसका पता लगता है? इरफान को पता था? मेरे ऐसे कई सवालों का जवाब वे इस तरह देते थे मानो जवाब मुंह में घुला रहे हों लेकिन कह नहीं पा रहे हों.
इरफान को ‘पान सिंह तोमर’ में देख कर लगा कि यह मुकम्मिल बात हुई. खास क्या था ‘पान सिंह तोमर’ में? उसकी सच्चाई ! फिल्म भी सच्ची थी, कथानक भी और सबसे आदमकद था इरफान का अभिनय जो अभिनय जैसा था ही नहीं. उस एक पात्र में जैसे उन्होंने सब कुछ उडे़ल दिया था. वैसी बदहवास दौड़ कब किसी ने फिल्मी पर्दे पर दौड़ी? मुझे ‘दो बीघा जमीन’ के बलराज साहनी याद आते हैं जो रिक्शा ले कर वैसे ही दौड़े थे जैसे आदमी नहीं, सारा अस्तित्व दौड़ रहा हो. दिलीप कुमार भी ‘गंगा-जमुना’ में भयंकर दौड़े थे लेकिन फिर भी उसमें अभिनय था. इरफान की दौड़ में गरीबी भी थी, अपमान भी था, चुनौती भी थी और बदला लेने की ललकार भी थी. वह पान सिंह तोमर सारी कहानी, सारी फिल्म ले कर ही दौड़ पड़ा था. यह परिपूर्णता इरफान की विशेषता थी.
इरफान जिस तरह के कैंसर से ग्रस्त थे उसका इलाज बहुत मुश्किल था, और बहुत मुश्किल है. वैसे किस कैंसर का इलाज मुश्किल नहीं होता है ? इसके चंगुल से जो निकल सके हैं वे भी उसके खूनी पंजों का दंश झेलते ही रहते हैं. इसलिए इरफान को जाना ही था वे गये. बड़ी बात थी जिस तरह वे और उनका परिवार इससे लड़ा. बहुत सारी खबरें और बहुत सारी भाग-दौड़ और तकलीफों की बहुत सारी कहानियां इरफान के पास से नहीं आईं. बीमार हुए, इलाज के लिए बाहर गये, लंबे समय तक बाहर रहे और फिर लौटे तो ऐसे कि नहीं लौटे. फिर वह फिल्म आ गई ‘इंग्लिश मीडियम’. खबर मिली कि इरफान फिल्म कर रहे हैं तो अच्छा ही लगा लेकिन यह नहीं लगा कि वे अच्छे हो गये हैं. फिल्म देख कर भी नहीं लगा. वह बहुत कुछ वहां दीखता ही रहा जो कैंसर ने इरफान में से सोख लिया था.
इरफान से मेरा बहुत कम और बहुत हल्का मिलना हुआ था और वह भी तब जब वे ऐसे इरफान नहीं बने थे. उनका बंबई आना और फिल्मी दुनिया का दरवाजा खटखटाना और दरवाजे का खुलना बहुत लंबा चला था. काफी सारा समय और काफी सारा अपना सार उन्होंने उस दौर में गंवाया जिसे फिल्मी भाषा में ‘स्ट्रगल’ कहते हैं. वैसे ही दौर में, कभी-कभार जब मैं फिल्मी पार्टियों में जाता था तब झिझकते-से इरफान से मिलना हुआ. ऐसा भी हुआ कि वे टाइम्स ऑफ इंडिया के दफ्तर में आए तो मुलाकात हुई. इरफान की आंखें बहुत गहरी थीं – जितनी बाहर थीं उतनी ही भीतर भी थीं. आंखों में खोज भी थी और गहराई भी. इसलिए भी मुझे इरफान याद रहे. उनकी आवाज में भी एक आत्मा थी जो गूंजती रहती थी – फोन पर पकड़ में आने वाली आवाज ! सुनते ही मैं कहता था : हां, इरफानजी ? ‘अच्छा, याद हूं मैं आपको !’ मैंने एकाधिक बार कहा होगा कि नहीं, याद से नहीं, आवाज से पहचाना मैंने आपको.
उस रोज भारतीय विद्या भवन में फोन आया : मैं यहीं हूं … नीचे ! मैं ऊपर आऊं या आप नीचे आ सकेंगे ? तो हम लंबे समय बाद मिले थे. यह ‘मकबूल’ के बाद की बात है. मैंने ‘मकबूल’ पर और उसमें इरफान पर जो लिखा था “उसके बाद मिलने न आता, यह तो कैसी बात होती!” मैंने बधाई दी कि अब वह मुकाम बन रहा है जिसके लिए इतना इंतजार किया. ‘हां, लगता तो है कुमार साहब … लेकिन यहां लगने और होने में इतना फासला होता है कि लगते-लगते बात लग नहीं पाती है’- भारतीय विद्या भवन के नीचे मिलने वाली खास सैंडविच खाते हुए इमरान बोले थे. ऐसे ‘डायलॉग’ बनाते रहना इरफान को खूब आता था.
इरफान फिल्मों में किसके उत्तराधिकारी थे ? मोतीलाल, बलराज साहनी और किसी हद तक संजीव कुमार के. वे इनसे अच्छे या बुरे नहीं थे, इनकी परंपरा को आगे ले जाने वाले कलाकार थे. वे परदे पर छाते नहीं थे क्योंकि छाना अभिनय नहीं होता है, प्रदर्शन होता है. वे पर्दे पर अपनी जगह बना लेते थे जिस पर दूसरे की छाया टिकती नहीं थी. कहानी, कैमरा, रोशनी, गीत-संगीत, संवाद तथा अदाओं का पूरा जाज-जंजाल- सब मिल कर पूरी ताकत झोंक दते हैं तब कहीं जा कर पर्दे पर एक हीरो या हीरोइन खड़ा हो पाता है. बंबइया फिल्मों में तो हीरो या हीरोइन की ‘इंट्री’ कैसे हो, यह भी गहन विचार का विषय होता है और कैसी-कैसी हास्यास्पद फूहड़ता हमें झेलनी पड़ती है. इरफान जैसों की ‘इंट्री’ और ‘एक्जिट’ कैसे होगी न वे कभी सोचते हैं, और न हम; वे आते हैं और अपना अमिट प्रभाव छोड़ कर चले जाते हैं. यही कला है, इसे ही कलाकार कहते हैं. इरफान कलाकार थे – विशुद्ध !
‘पीकू’ में उनकी परीक्षा बहुत गहरी हुई जब कमर्शियल बंबइया फिल्मी व्याकरण के दो उस्तादों के साथ सीधा सामना था उनका. अमिताभ बच्चन और दीपिका पडुकोण; और कहानी भी इन्हीं दोनों को समेटने और इनकी परिक्रमा करने में लगी हुई थी. दोनों ने अपना वह सब इस फिल्म में झोंक दिया था जिसके लिए वे जाने व माने जाते हैं. तो इरफान के लिए काफी था कि वे उनके साथ हो भर लेते. कहते भी हैं न लोग कि फिल्म में दिलीप कुमार हों कि देव आनंद हों तो दूसरे किसी के करने के लिए बचता क्या है ! कैमरा तो वहीं रहना है. ‘पीकू’ भी फिल्म तो उन दोनों की ही थी तो इरफान से कोई ज्यादा मांगता भी क्या ? लेकिन ‘पीकू’ में इरफान ने एक फ्रेम भी ऐसा नहीं छोड़ा जिसमें वे उन दोनों के साथ थे भर पहले दृश्य से ही वे पर्दे पर उस तरह ‘अपनी जगह’ बनाते चले कि आप कहीं भी उन्हें नजरंदाज नहीं कर सकते हैं. अमिताभ बच्चन के साथ वे हर फ्रेम में वैसी ही ठसक से खड़े रहे थे जैसी ठसक से अमिताभ बच्चन ‘शक्ति’ में दिलीप कुमार के सामने खड़े रहे थे. दीपिका का सम्मोहन कहीं उनकी चमक को दबा नहीं सका. ‘पीकू’ इरफान की अदाकारी और इस कला पर उनकी पकड़ यानी क्राफ्ट पर उनकी पकड़ का बेहतरीन नमूना है. ‘नेमसेक’ इसी इरफान का दूसरा सिरा है. वहां पर्दे पर जगह बनानी ही नहीं थी, स्वंय पर्दा बन जाना था. तब्बू और इरफान को पर्दे पर विस्थापन लिख देना था और वह ऐसा लिखा उन दोनों ने कि अमिट हो गया.
ऐसा नहीं कि इरफान से पहले कोई कलाकार नहीं हुआ याकि इरफान ही अंतिम लकीर खींच कर गये. ऐसा कहना या सोचना बड़ी बेजा बात होगी. कलाकारों को ऐसी नजर से देखना ही कला को नहीं समझना है. कलाकार इतना ही करता है ( या कहूं कि कर सकता इतना ही है !) कि अपनी जगह बनाता है और उसकी कला संवेदना की फसल लगाती है. इरफान ने अपने बहुत छोटे कला-जीवन में बहुत बड़ी जगह बना ली और संवेदनाओं की ऐसी जरखेज फसल उगाई कि हम भरे मन से जितना चाहें काटें-बटोरें.
(30.04.2020)
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 अभी जब मैं यह लिख रहा हूं, देश-दुनिया में कोरोना अपनी कहानी के अगले पन्ने लिख रहा है. भारत में उसने अभी तक 2056 लोगों को दबोचा है और 53 लोगों को उठा ले गया है. आंकड़ा बहुत बड़ा नहीं है लेकिन यह जिस तेजी से रंग बदल रहा है उससे यह जरूरी हो गया है कि हम आपस में न लड़ें, बीमारी से लड़ें. लेकिन आदमी का दुर्भाग्य तो यही है न कि वह आपस में लड़ कर भले कट मरे लेकिन लड़ता है जरूर !
अभी जब मैं यह लिख रहा हूं, देश-दुनिया में कोरोना अपनी कहानी के अगले पन्ने लिख रहा है. भारत में उसने अभी तक 2056 लोगों को दबोचा है और 53 लोगों को उठा ले गया है. आंकड़ा बहुत बड़ा नहीं है लेकिन यह जिस तेजी से रंग बदल रहा है उससे यह जरूरी हो गया है कि हम आपस में न लड़ें, बीमारी से लड़ें. लेकिन आदमी का दुर्भाग्य तो यही है न कि वह आपस में लड़ कर भले कट मरे लेकिन लड़ता है जरूर !