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कबीर दास की उल्टी वाणी  

कुमार प्रशांत|Opinion - Opinion|14 November 2023

कुमार प्रशांत

चुनावी बुखार ऐसा ही होता है ! आप हमेशा ही सन्निपात में होते हैं. फिर आपको अहसास ही नहीं होता है कि आप जो कह रहे हैं वह कहने लायक है या नहीं; और यह भी कि आप जिनका गर्व से, अपनी उपलब्धि बना कर बखानकर रहे हैं, वह गर्व करने जैसी उपलब्धि है भी या नहीं ! चुनावी बुखार ऐसा ही होता है जिसका मरीज, बकौल विनोबा भावे, तीन ही बात बकता है : आत्मस्तुति, परनिंदा, मिथ्या–भाषण ! इन दिनों इनकी पराकाष्ठा हुई जा रही है. औरआजकल के चलन के मुताबिक प्रधानमंत्री ही इन सबके सिरमौर हैं.

अयोध्यामें, सरयू नदी के तट पर एक ही दिन, एक ही वक्त में 22 लाख दीपों को प्रज्ज्वलित किया गया ! क्यों? यह थी हिंदुओं की ताकत की घोषणा व वोटों को कमल का रास्ता दिखाने की प्रधानमंत्री की योजना ! इसके तुरंतबाद हमने देखा कि उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री व राज्यपाल गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड के किसी अधिकारी से यह प्रमाण–पत्र ले रहे हैं कि यह एक साथ सबसे अधिक दीप जलाने का विश्व कीर्तिमान हुआ ! यह सब सन्निपात काजीता–जागता उदाहरण है.

22 लाख दीपों से पता क्या–क्या चला ? पहली बात तो यही पता चली कि ये 22 लाख दीप सरकारी थे. इनमें सरकारी तेल इनमें भरा गया था और जिनकी भी ड्यूटी लगाई गई होगी, उन सबने इसे जलाया था. इन दीपों के पीछेअयोध्या के लोग नहीं थे. अगर लोगों की स्वस्फूर्त भागीदारी से ये दीप जुड़े व जले होते तो मुख्यमंत्री–राज्यपाल इसका प्रमाण–पत्र लेने क्यों अवतरित होते ? तो मिथ्याचार का पहला बैलून तो यही फूटा ! गिनीज वाले ऐसे व्यापारी हैं जोलोगों की सनक व बहक का व्यापार करते हैं. सरकार का मुखिया जब उनसे प्रमाणपत्र लेने की कतार में खड़ा हो जाता है तब समझ में आता है कि सरकार कैसी है, उसकी प्राथमिकताएं कैसी हैं. मुख्यमंत्री की समझ का यह दूसरा बैलूनफूटा ! गिनीज वालों को बुलडोजर से सबसे ज्यादा घर गिराने वाली सरकारों की प्रतियोगिता करवानी चाहिए. इस श्रेणी में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री जरूर आला साबित होंगे. जब तक आपका घर बुलडोजर के सामने न हो तब तक इस अपराध की नृसंशता आपकी समझ में नहीं आएगी.

जो अंधभक्ति का रोगी न हो व जिसकी दिमागी हालत ठीक हो वह तुरंत पूछेगा कि 22 लाख दीपों में कितना तेल जला होगा ? उनसे कितना प्रदूषण फैला होगा ? 22 लाख दीपों का कितना कचरा सड़कों पर जमा हुआ होगा ? उन्हेंअयोध्या में कहां दफनाया जाएगा ? आज सारी दुनिया जिन संकटों से घिरती जा रही है, ये 22 लाख दीप उन्हें और भी गहरा करेंगे. ये रोशनी वाली दीपों की दीपावली नहीं, मूढ़ता का अंधेरा फैलाने वाली सरकारी योजना थी. परालीजलाने वाले किसानों पर दिल्ली के प्रदूषण का ठीकरा फोड़ने वालों को यह समझना चाहिए कि 22 लाख दीपों ने उससे कई गुना ज्यादा जहर पर्यावरण में फैलाया है.  

हमें इन 22 लाख दीपों के बगल में मुंबई का यह चेहरा रख कर समझना चाहिए कि वहां कैसी आपात स्थिति में विशेष मार्शलों की नियुक्ति करनी पड़ रही है ये मार्शल मुंबई की सड़कों पर उतर कर रात–दिन इसकी निगरानी करेंगे कि कौन–कहां सड़कों पर गंदा बिखेर रहा है, कौन–कहां कूड़ा जला रहा है, और कौन–कहां सड़कों पर गंदगी फेंक रहा है. इन मार्शलों को यह अधिकार दिया गया है कि वे कानूनी निर्देशों का उल्लंघन करने वालों को वहीं–के–वहीं दंडित करसकेंगे. मुंबई कूड़े के एक बड़े ढेर में बदलती जा रही है जिसे हिंदुत्ववादी मनमानी ने और भी बदसूरत बना दिया है. देश की राजनीतिक राजधानी भी और औद्योगिक राजधानी भी ‘डेथ बाई ब्रेथ’ – सांस में छिपी मौत – जैसे संकट से गुजर रहीहै. एक स्थान पर, एक साथ जले 22 लाख दीपों ने मौत का सघन आयोजन ही किया है, भक्ति का विवेक नहीं जगाया है.

हमें यह समझना ही चाहिए कि दीप जलाना, पटाखे फोड़ना, आरती करना, ढोल बजाना, अजान देना, सार्वजनिक तौर पर नमाज पढ़ना, नए साल का जश्न मनाना, विभिन्न झांकियां निकालना आदि सारे आयोजन जब तक सीमित संख्या में, निजी विश्वासों की अभिव्यक्ति के तौर पर मनाए जाते थे, समाज में घुल जाते थे. जैसे–जैसे इनकी संख्या विशालतर होती गई, इन्हें राजनीतिक हथियार की तरह आयोजित करवाया जाने लगा, निजी आस्था की जगह यह भीड़ केउन्माद में बदलने लगी वैसे–वैसे यह असामाजिक होती गई. जैसे प्रकृति को आप अवकाश देते हैं – याद कीजिए, करोना के दौरान की बंदी – तो वह प्रदूषण का इलाज अपने आप कर लेती है. जब आप उसे सांस खींचने का मौका भी नहींदेते हैं, तो उसका भी, और समाज का दम भी घुट जाता है. इसलिए इन सारे सवालों को धार्मिक संकीर्णता के चश्मे से नहीं, हमारी आधुनिक जीवन–शैली व धार्मिक संकीर्णता से पैदा संकट के रूप में देखना चाहिए और उसका हल खोजना चाहिए. दीप में उन्माद का तेल जलाने से, विवेक का दीपक नहीं जलता है.

संकट यह है कि इसमें कोई किसी से बेहतर बनना नहीं चाहता है. सभी दूसरे से बढ़ कर पतनशील होने में लगे हैं. राममंदिर की पूरी ठेकेदारी भाजपा ने खुद के लिए घोषित कर रखी है तो कांग्रेस को बड़ी मुश्किल हो रही है. अगर रामपूरे–के–पूरे भाजपा के खेमे में चले गए तो वोट का क्या होगा, इसकी चिंता उसे खाए जा रही है. मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री का कांग्रेसी चेहरा चीखता है: याद करो कि रामलला का ताला किसने खुलवाया था ! बताओ , वहां पूजा–अर्चना कीअनुमति किसने दिलवाई थी ? वह चीख–चीख कर बता रहा है उसने भी दूसरे कई मंदिर बनवाए हैं – भव्य व विराट मंदिरों के निर्माण का काम आज भी चल रहा है. तो, होड़ यह है कि हिंदू केवल आप नहीं, हम भी हैं. विदेशी हिंदुओं कोनैतिक शक्ति देने इन दिनों अमरीका गए राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रधान मोहन भागवत यह घोषणा काफी पहले कर चुके हैं कि भारत में रहने वाले सभी हिंदू हैं. सभी हिंदू हैं तो सभी से एक–सा व्यवहार क्यों नहीं हो रहा है भागवतजी ?

एक चुनावी सभा में प्रधानमंत्री ने बड़े गर्व से घोषणा की कि देशके 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन की जिस सुविधा का अंत अभी होने जा रहा था, उसे मैं 5 साल के लिए आगे बढ़ाने की घोषणा करता हूं. ऐसी घोषणाएं तोराजा–महाराजा करते थे, लोकतंत्र में ऐसी घोषणा कोई प्रधानमंत्री तभी कर सकता है जब इसकी चर्चा व इसकी स्वीकृति मंत्रिपरिषद में हो चुकी हो. यदि संसद चल रही हो तो इसकी चर्चा संसद में होनी चाहिए. लेकिन यहां आलम तो यह है कि न मंत्रियों को न अपनी, न अपने मंत्रालयों की हैसियत से सरोकार है, न मंत्रिपरिषद का कोई वैधानिक मतलब रहने दिया गया है. सारी व्यवस्था हुआं–हुआं करने वाले सियारों के झुंड में बदल दी गई है. लेकिन सियार कितना भीहुआं–हुआं करें, प्रधानमंत्री की एक इस राज–घोषणा ने उनके 9 वर्षों को खोखला कर, सड़क पर खड़ा कर दिया है.

पिछले 9 सालों से विकास के जो तमाम दावे चीख–चीख कर किए जा रहे हैं, आंकड़ों की बमबारी, सबसे तेज अर्थ–व्यवस्था का नारा, खरबों की अर्थ–व्यवस्था का आसमान छूने की घोषणा, सारी दुनिया को राह दिखाने का दम, संसार के हर कोने को छू आने की बाजीगरी, क्या वह इन 80 करोड़ भारतीयों को छोड़ कर किया जाने वाला कारनामा है ? 80 करोड़ लोग यदि इतने विपन्न हैं कि मुफ़्त सरकारी अनाज ही उनका पेट भर सकता है तो इससे दो बातें साबितहोती हैं. भारतीय ऐसी निकम्मी कौम के लोग हैं जो अपना पेट भरने लायक मेहनत भी नहीं करते हैं; भारत सरकार इतनी निकम्मी है कि तमाम मनमानी व्यवस्था बनाने के बाद भी देश के 80 करोड़ लोग ऐसी विपन्नता के शिकार हैं किसरकार खिलाएगी तो खाएंगे, नहीं तो भूखे सो जाएंगे. यह आँकड़ा भूखे 80 करोड़ लोगों का कम, 80 करोड़ का वोट पा कर बनी सरकार के चरित्र का ज्यादा परिचय देता है. यह आंकड़ा नित नई काट व चमक वाले कपड़ों में सजे–धजेप्रधानमंत्री की छवि का विद्रूप बनाता है. हम किसी का चूल्हा ठंडा नहीं रहने देंगे जैसी दावेदारी के पीछे न ईमानदारी है, न अपनी विफलता का अहसास !  

किसी भी सरकार या व्यवस्था की कसौटी यह है कि उसके लोग भूख, नंग, छत से वंचित तो नहीं हैं और जीने की न्यूनतम सुविधाओं से महरूम तो नहीं हैं ? आप इस संदर्भ में सवाल क्या पूछेंगे, यह सरकार खुद ही कह रही है कि 9 सालों से लगातार सत्ता में रहने तथा अमृतकाल की घोषणा करने के बाद भी 80 करोड़ लोग खाने को मोहताज हैं. यह उपलब्धि नहीं, शर्म का विषय है. कबीर को पता था कि ऐसे लोग आ सकते हैं. इसलिए उन्होंने कुछ उलटबासियां लिख छोड़ी हैं : बरसे कंबल, भींगे पानी ! सूरदास बना राष्ट्र कबीरदास को देखे–समझे कैसे? 

चेहरा   बता   रहा   था   कि   मारा है भूख ने 

हाकिम ने कह दिया कि कुछ खा के मर गया।

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14 November 2023 कुमार प्रशांत
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