कर्नाटक की जीत पुरानी पड़ चुकी है. इसलिए नहीं कि वह कोई व्यर्थ की जीत है. शायद ही कभी किसी राज्य की जीत का इतना गहरा व विस्तृत राष्ट्रीय परिणाम हुआ होगा. बंद, घुटते कमरे में जैसे कोई किरण उतरे या किसी सुराख से ताजा हवा की पतली-सी लहर दौड़ जाए, वैसा अवर्णनीय अहसास कर्नाटक ने राष्ट्र को दिया है. इस वक्त भारतीय लोकतंत्र को, सार्वजनिक जीवन तथा सामाजिक विमर्श को इससे बड़ी सौगात मिल ही नहीं सकती थी. यह मानसिक गंदगी, भोंडी प्रदर्शनप्रियता व राजनीतिक बेईमानी के खिलाफ एक चीत्कार सरीखी घटना है.
यह राहुल गांधी की जीत नहीं है हालांकि राहुल गांधी के बिना यह जीत संभव नहीं थी. कांग्रेस के साथ राहुल का नाता किसी विषाद सरीखा है. वे कांग्रेस के सबसे बड़े, प्रभावी नेता हैं जिन्हें किनारे लगाने की रणनीति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तैयार की. इसलिए नहीं कि वे ‘लल्लू’ हैं बल्कि इसलिए कि नरेंद्र मोदी को अच्छी तरह पता है कि यह आदमी और यह पार्टी ही है जो उन्हें ‘लल्लू” बना सकती है. इसलिए उनकी छवि खराब करने में इन लोगों ने बेहिसाब पैसा व संसाधन उड़ेला. परिवारवाद का आरोप इतने कलुषित ढंग से पिछले वर्षों में प्रधानमंत्री ने उछाला और हिंदुत्ववादी हर डेढ़इंची आदमी ने उसे दोहराया कि राजनीतिक सत्ता की दृष्टि से कमजोर पड़ती कांग्रेस एक पांव पर खड़ी हो गई. इससे हुआ वही जो प्रधानमंत्री चाहते थे. कांग्रेस राहुल से अलग दीखने की कोशिश करने लगी जबकि उनके बिना कांग्रेस का चलता नहीं है. इसमें गांधी-परिवार की अपनी कमजोरियों ने भी बड़ी भूमिका निभाई तथा पुराने कांग्रेसियों की नासमझी ने भी. यह सब कांग्रेस को भारी पड़ा.
फिर तो कांग्रेस के असली नेता को इसकी काट निकालनी ही थी. राहुल गांधी ने वह काट निकाली. वे भारत जोड़ो यात्रा पर निकल पड़े. इस यात्रा ने दूसरा कुछ किया या न किया, परिवारवाद के आरोप से राहुल गांधी को और उससे पैदा हुई झिझक से कांग्रेस को बाहर जरूर निकाल दिया. आज राहुल गांधी अपने दम पर कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे हैं, उसका रास्ता बना रहे हैं.परिवादवाद की बात अब खाली कारतूस से अधिक मतलब नहीं रखती है. जिस तरह राहुल की मां ने कभी कांग्रेस को खड़ा किया था, राहुल आज उसी तरह कांग्रेस को खड़ा कर रहे हैं. यह परिवार अपनी कमजोरियों से भी बाहर आने की कोशिश कर रहा है.
यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सबसे पक्की व बहुआयामी हार है. यह उनके खोखले नेतृत्व, अर्थहीन जुमलेबाजी, सार्वजनिक धन की बिना पर अपना महिमामंडन, झूठ, दंभ, घृणा, अंतिम हद तक घिनौना सांप्रदायिक तेवर- इन सबकी सामूहिक हार है. मनुष्य की कमजोरियों को निशाना बना कर राजनीति में जो कुछ भी हासिल किया जा सकता है, उन सबकी कोशिश 2014 से ही चल रही है. यह उसकी पराकाष्ठा का दौर है. भारतीय जनता पार्टी को इसका ही घमंड रहा कि कोई भी, कैसा भी चुनाव हो हमारा अंतिम मोहरा मोदीजी हैं. वे मैदान में उतरेंगे और हवा बदल जाएगी. ऐसा होता भी रहा क्योंकि सार्वजनिक जीवन को मोदीजी की तरह दूषित दूसरा कोई नहीं कर सकता. लेकिन कर्नाटक में वह मोहरा पिट गया!
भारतीय जनता पार्टी इस हार से दुखी हो, यह संभव है लेकिन यदि उसमें थोड़ी राजनीतिक समझ, दूरदर्शिता व आत्मसम्मान बचा हो ( कहां, किधर मुझे दिखाई तो नहीं देता है ) तो उसे इस हार से खुश होना चाहिए. लोकतांत्रिक राजनीतिक दल के रूप में भारतीय राजनीति में उसे अपनी जगह व अपना अस्तित्व बनाए रखना हो तो उसके लिए यह स्वर्ण अवसर है. भारतीय जनता पार्टी के लोकतांत्रिक तत्वों को तुरंत एकजुट होना चाहिए और मोदी-शाह नेतृत्व के रंग व ढंग के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए.
चुनावों की जय-पराजय, सत्ता पर कब्जा जैसी मानसिकता कितनी गर्हित व खोखली होती है, यह पहले भी कई बार प्रमाणित हुआ है. अपार बहुमत वाली इंदिरा गांधी, अश्रुतपूर्व बहुमत वाले राजीव गांधी, गहरी शुभेच्छा के साथ गद्दी पर बिठाए गए मोरारजी देसाई, किसी वरदान की तरह कबूल किए गए विश्वनाथ प्रताप सिंह आदि इसके ही उदाहरण हैं. लोकतंत्र की यांत्रिक प्रक्रिया से गद्दी तक पहुंच जाना सरल है लेकिन संविधान की छलनी से पार निकलना खेल नहीं है. जिसने भी यह बात भूली या अहंकार में इसे दफनाने की कोशिश की, वह इतिहास के कूड़ेखाने में गिरा मिला. यह बात किसी भी सत्ता के लिए सही है – चाहे राज्य की हो या केंद्र की. कर्नाटक भारतीय जनता पार्टी के लिए खतरे की घंटी है याकि विनाश की शुरुआत, यह देखने की बात है. यदि इस पार्टी में कहीं, कोई अटल-तत्व बचा हो तो उसके आगे आने व सक्रिय होने की यह अंतिम घड़ी है.
कर्नाटक की जीत को अपनी जीत मान कर चलेगी तो कांग्रेस गड्ढे में गिरेगी. संसदीय लोकतंत्र में जनता तो वोटों की भाषा में बोलती है. उसे खोल कर समझना आपकी राजनीतिक समझ व लोकतांत्रिक आस्था पर निर्भर है. कर्नाटक में जनता ने भारत की ओर से कहा है कि उसे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पसंद नहीं है; उसे अवसरवादी राजनीति पसंद नहीं है; उसे झूठ व मक्कारी पसंद नहीं है. मोदी-शाह रणनीति लोकतंत्र को बाजार बनाने की है. उसमें नैतिकता, ईमानदारी, आदर्श, सर्वधर्म समभाव, सामाजिक संकीर्णताओं से समाज को ऊपर उठाने का संघर्ष, संवैधानिक मर्यादाएं आदि ‘थोथा चना बाजे घना’ से अधिक मतलब के नहीं रह गए. लेकिन कांग्रेस व दूसरे दलों के सारे अवसरवादी तत्वों को पार्टी में ले कर, टिकट दे कर सरकार बनाने, न जीते तो अवसरवादियों को खरीद लेने की कला पर मोदी-शाह का एकाधिकार नहीं है. कांग्रेस भी यह करने की कोशिश करती मिलती है, दूसरे दल भी इस राह को पकड़ने में लगे रहे हैं. अगर भारतीय लोकतंत्र के पास यही एकमात्र रास्ता है बचा है, तो चुनाव में मतदाता के पास चुनने जैसा कुछ बचा कहां है ! नागनाथ-सांपनाथ का ही विकल्प यदि लोकतंत्र है तो इसकी फिक्र में हम दुबले क्यों हों ? इसलिए लोकतंत्र का खेल नहीं, खेल का रास्ता बदलना देश के राजनीतिक भविष्य के लिए जरूरी है.
राहुल गांधी ने कहा कि कर्नाटक में हमने ‘ घृणा के बाजार में प्यार की दूकान खोल दी है.’ यह जुमला है ? हो ही सकता है, क्योंकि देश जुमलों से घायल पड़ा है. राहुल गांधी को सिद्ध करना होगा कि यह जुमला नहीं, उनकी आस्था है. आस्था है तो इसकी कीमत देने की तैयारी करनी होगी. जीत या हार चुनाव में नहीं, उससे कहीं पहले समाज में निर्धारित होती है, फिर वोट की शक्ल लेती है. हमने देखा ही है कि समाज को पतनशील बना कर भी चुनाव जीता जा सकता है लेकिन हम यह भी देख रहे हैं कि वह चुनावी जीत लोकतांत्रिक हार में बदल जाती है. इसलिए लोकतंत्र के भीतर छिपे इस रहस्य को पहचानने व आत्मसात करने की जरूरत है कि समाज को ऊंचा उठाना, एकरस बनाना, समता व समानता की तरफ ले जाना, निर्भय व निष्कपट बनाना संसदीय लोकतंत्र का अभिन्न दायित्व है.
कर्नाटक ने यह कहा तो है लेकिन हमने इसे समझा कि नहीं, इसकी जांच करने 2024 से पहले भी कई मुकाम आने वाले हैं. भारतीय जनता पार्टी भी, कांग्रेस भी तथा विपक्ष का बिल्ला लगाए घूमने वाले सभी दल भारतीय लोकतंत्र की इस कसौटी पर परखे जाएंगे.
ठोकरें खा के भी न संभले तो मुसाफिर का नसीब
वरना पत्थरों ने तो अपना फ़र्ज़ निभा ही दिया.
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