લોર્ડ વેલેસ્લી કદી ફરવા ન આવ્યો,
ગુન્હાખોરી જોઈને મરવા ન આવ્યો.
કેમ ભૂલ્યો, હે અ’લા ગુલામ છે તું,
લોકશાહીનું રટણ રટવા ન આવ્યો.
રાયફલની ધડબડાટીનું ચલણ છે,
શ્વેત ખાદીનું વલણ વણવા ન આવ્યો.
ખુદ કૃષ્ણે વંશ-વારસને કપાવ્યા,
સાંસદોની દુષ્ટતા કળવા ન આવ્યો.
ચાંચિયાગીરીને લાયક છે પ્રજાજન,
ભ્રષ્ટ ભારત દેશમાં ભમવા ન આવ્યો.
e.mail : addave68@gmail.com
![]()



यह भी कहना जरूरी है कि यदि निर्मल वर्मा न होते तो मेरे पास मिलान कुंडेरा भी नहीं होते. निर्मल वर्मा ने ही मिलान कुंडेरा से, उनके लेखन से मेरा परिचय करवाया था. वह दुबचैक का चेकोस्लोवाकिया था जिसे रूसी टैंकों ने घेर कर मार डाला था – बहुत कुछ उसी तरह जिस तरह आज वे ही रूसी टैंक यूक्रेन को घेर कर मारते जा रहे हैं. तब भी ऐसा ही था, आज भी ऐसा ही है कि सारी दुनिया तमाशाबीन बनी हुई थी. निर्मल वर्मा तब चेकोस्लोवाकिया में थे और चुप नहीं थे; यहां भारत में जयप्रकाश नारायण थे और चुप नहीं थे. जब भारत में कोई सोवियत खेमे के खिलाफ बोलने की हिमाकत नहीं करता था, जयप्रकाश चेक लोगों की स्वतंत्रता के पक्ष में खुल कर सामने आए थे, एक दवाब खड़ा करने की कोशिश भी की थी. मानवीय गरिमा के हनन पर जो साहित्य चुप रहे तो वह साहित्य नहीं है; जो गांधीवाला चुप रहे, वह गांधीवाला नहीं है, मेरी यह समझ उसी दौर में बनी. उसी दौर में मिलान कुंडेरा का साहित्य भी बना. विचार न हो तो आदमी होना शक्य नहीं है; प्रतिबद्धता न हो तो कलम उठाने से अर्थहीन काम दूसरा नहीं है. प्रतिबद्धता और ढोलबाजी में जो फर्क है, उसका विवेक खोये नहीं, यह जरूरी है. मुझे कुंडेरा इसलिए ही पसंद थे, अपने-से लगते थे. वे बला की प्रतिबद्धता से लिखते रहे लेकिन उनके समस्त लेखन में कोई ढोलबाजी नहीं थी.