द्रौपदी १ : मेरे पांच पति
माता कुंता जानती थी सत्य
पता था की गर मिल बाँट के खाने को न कहा गया
तो मुझे पाने के लिए पांचो एकदूजे से भीड़ जाएंगे यकीकन
आखिरकार में उस दौर की सबसे सुंदर स्त्री जो थी !
वो जानती थी
न जाने कितने समय से राजा-महाराजा-योद्धा
कल्पनाओ में मुझसे संभोग करने लगे थे !
मेरी एक झलक को तकने लगे थे !
उन्हें पता था मेरे स्वयंवर में उमड़े वीर्य सैलाब का
पांडव-कौरव तो क्या प्रत्येक पुरुष बेताब था मुझे भोगने को
संसार के सबसे बड़े खजाने का मालिक बनने को !
वरना पानी में देख सर पर घूमती मछली की आँख फोड़ना,
कभी सोची भी है ऐसी कठोर परीक्षा किसी ने ?
अर्जुन तो क्या गुरु द्रोण भी यह न कर पाते !
कुंता जानती थी सत्य
गर मिल बाँट के खाने को न कहा गया तो
मेरे लिए पांचो के बीच फिर से एक स्वयंवर होगा
और फिर वे पांच से चार-तीन-दो-एक हो जायेंगे !
वैसे होना तो यही सही था पर कुंता से एक अलग सत्य
बतौर पुरुष महाधूर्त युधिस्ठिर से नम्र नकुल तक सभी जानते थे !
पता था की भीम की मदद के बिना वो धनुष नहीं उठा पायेगा !
होनहार जुआरी युधिस्ठिर के बिना
जल की और मछली की गति की चाल परख कैसे होगी ?
आनेवाले समय को देखने वाले सहदेव के सहयोग के बिना
क्या कुछ मुमकिन हो सकेगा ?
एक नम्र नकुल था जिसके होने न होने से कुछ फर्क नहीं होता पर
चार से भले पांच ! या फिर छ ?
कुंता की आज्ञा से पहले ही उनके पुरुष सत्य ने तय कर लिए थे हिस्से !
किसी एक के हाथ तो नहीं आएगी
आओ पांचो मिलकर खा ले,
हो सके तो बाँटकर वरना तोड़मरोड़ कर !
किसके साथ कितनी राते, किसके साथ कितने दिन
सारे समय का हो चूका था गठजोड़ पहले ही !
कौन पहले कौन बाद में तय थे सारे क्रम के मोड़ !
यह विवशता थी लेकिन आखिर संसार की सबसे सुन्दर स्त्री के लिए
इतना समाधान तो जायज था उन्हें !
फिर अपने षड्यंत्रकारी सत्य को बहोत आसानी से छुपा लिया उन्होंने
" देखो माँ में क्या लाया हु ? " अर्जुन ने कहा
" जो लाए अपने भाइओ से मिलकर खाना " कह दिया माता कुंता ने !
हा हा हा हा हा हा हा !!
अपने षड्यंत्र के सत्य को नजाकत से मोड़कर
थोप दिया माता कुंता के होठ पर !
उनकी आग को मिल गई हवा
अब दोष सारा हो गया हवा का
और आग बन गई पूर्ण निर्दोष !
आखिर खाना ही तो थी मै उनके लिए शुरू से !
अर्जुन बनकर रह गए मातृ आज्ञा की प्रतिज्ञा
कृष्ण ने भी कह दिया इसे पूर्वजन्म के कर्म की शिक्षा !
माता कुंता जानती थी सत्य,
पांचो पांडव जानते थे सत्य,
कृष्ण भी जानते थे सत्य !
और में ?
मेरा सत्य ?
− मेहुल मंगुबहन
०२ / ०६ / २०१४ अहमदाबाद
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द्रौपदी २ : चीरहरण से पूर्व
जब दुर्योधन ने कहा जाओ दुःशाशन ले आओ द्रौपदी
राजसभा में मच गई खलबली
दास बने अर्जुन को अचानक याद आई अपनी मधुरजनी
मन हुआ जाकर पहले बड़े भाई का गला दबा दे
पर फिर ध्यान आया पांचो के बराबरी के हिस्से की डील पर !
नजरे नीची गड़ाए कालीन की नक्शी देख रहे थे युधिष्ठिर
एक तो तनमन में उमड़ रही है लम्बी शंतरंज की थकान
और फिर ऊपर से यह … क्या तमाशा !
हम तो वैसे भी भोग भोगकर थक चुके थे
अब वो तुम्हारी है, जो करना था कर लेना था आराम से !
जब दुर्योधन ने कहा जाओ दुःशाशन ले आओ द्रौपदी
उसे रोकना तो दूर कोई भी उठ खड़ा भी हुआ न अपनी जगह से !
एक लम्बे अंतराल के बाद अचानक धृतराष्ट्र को याद आई अपनी आँखे
उफ्फ यह दृष्टिहीनता इससे पूर्व इतनी कठोर कभी न थी,
मेरे पुत्र संसार की सर्वाधिक सुन्दर स्त्री को जीते है
और में बेबस उसे एक नजर देख भी न पाउँगा ? छट !
विकर्ण के अलावा सारे कौरव का एक हाथ जांघ सहलाने लगा
और दूजा हाथ था वहां जहाँ उनकी असली खुजली थी !
भीष्म अपनी गंवाई जवानी की सोच में डूब गए,
द्रोण, कृपाचार्य रह गए हक्केबक्के !
जब वो उसे ले आए तब हमें क्या करना चाहिए ?
क्या हम भी बाकी दरबारीओ की तरह उसका सौंदर्यपान करे ?
हा हा क्यों नहीं ? आखिर राजऋषि है हम !
अधिकार तो सब है हमें पर धर्म ?
दोनो ने एकदूजे को झाँका, पल भर में किया फैसला
और नजरे गड दी दुःशाशन के बढ़ते कदम पर !
जब दुर्योधन ने कहा जाओ दुःशाशन ले आओ द्रौपदी …
सारे सेवक को छूट गया दुविधा का पसीना
होने लगी खुसर पुसर
आखिर राजबहु है, कहीं देखते पकडे गए तो ?
और देखे बिना भी रह पाएंगे तो कैसे !
जब दुर्योधन ने कहा जाओ दुःशाशन ले आओ द्रौपदी
हस्तिनापुर की राजसभा में बढ़ने लगी संख्या
आँखे मुंदी नहीं बल्कि दो से चार होने लगी
प्रवेश नहीं था वो भी आ गए दरारों से झांकने
दुःशाशन के निकलते ही फ़ैल गई खबर !
मार्ग पर जमा होने लगी भीड़,
रोज दाव पर लगती
रोज किसी की दासी बनती
हस्तिनापुर की सारी स्त्रियां सुन्न हो गई पल भर !
बीच बीच में आई ठहाकों की आवाझे
जो हररोज हमारे यहाँ होता है वह आज राजसभा में होगा !
हा हा हा.… आखिर शुरू तो उन्होंने ही किया था न !
आज शायद राजा को पता चलेगा
की रोज रोज हस्तिनापुर में
हर गली हर चोकठ पर
द्रौपदीओ के साथ होता है क्या क्या !
जब दुर्योधन ने कहा जाओ दुःशाशन ले आओ द्रौपदी …
अचानक से पूरी राजसभा हो गई वस्त्रहीन !
− मेहुल मंगुबहन
०३ / ०६ / २०१४ अहमदाबाद
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द्रौपदी ३ : चीरहरण
रुक जाओ कृष्ण
चीर की तुम्हारी यह खैरात नहीं चाहिए मुझे
आज तुम मुझे वस्त्र दोगे
और कल फिर से मुझे वस्त्रहीन कर दोगे
सौंप दोगे तुम मुझे उन पांचो के हवाले
फिर से उपवस्त्र बनाकर !
रुक जाओ कृष्ण !
इस भरी सभा में हो जाने दो मुझे नग्न
आखिर मेरा नग्न शरीर ही तो सत्य है न सबके लिए !
तभी तो तुमने मेरे पांच पति को
कह दिया था मेरे पिछले जन्म के कर्म का फल ! है न ?
अब यह मेरे कौन से नीच कर्मो का फल है बताओ कृष्ण ?
चिर रहने दो, अब आये हो तो
यहाँ सभा की प्रत्येक आँख जो मुझसे मैथुन कर रही है
तनिक उनके पूर्व जन्म के उच्च कर्मो के बारे में भी कुछ कहते जाओ कृष्ण !
अब नहीं चाहिए मुझे तुम्हारे वस्त्र
हो जाना चाहती हु में आज सम्पूर्ण नग्न
ताकि सारा संसार जान ले हस्तिनापुर का सत्य
पता तो चले सबको की यहाँ प्रत्येक घर में एक द्रौपदी है
जिसके न जाने कितने पति है
जिसे रोज लगाया जाता है दाव पर
जिसका वजूद है सिर्फ किसी मूंछ की ताव पर !
आज जब पांडव पर बन आई तुम आ गए हो मुझे बचाने
पर कल क्या होगा कृष्ण ?
में निर्वस्त्र हो जाउंगी उस पल के बाद क्या होगा कृष्ण ?
फिर से शतरंज बिछेगी, फिर लगेंगे दाव मुझ पर
फिर से सौदा होगा भोगने के अधिकार का
आखिर यही तो है इस महान हस्तिनापुर में
जिसकी लाज बचाने फिर से तुम आये हो !
अब बहोत हो चूका यह ढोंग कृष्ण
अब बहोत हो चुकी राज परम्परा भी
इस आर्य धर्म की जयजयकार बहोत हो चुकी !
मुझे नहीं चाहिए तुम्हारे वस्त्र कृष्ण
लौट जाओ अपने गोकल-मथुरा
और हो सके तो लौटा दो उन गोपियों के वस्त्र पहले!
में तो आज इस भरी सभा में नग्न हो जाना चाहती हूँ
हो जाना चाहती हु पूर्ण रूप से वस्त्रहीन
फिर जो चाहे अंजाम हो मेरा !
– मेहुल मंगुबहन
०४ जून २०१४ अहमदाबाद
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