बिहार फिर केंद्र में है. दिल्ली में बिहार को संदेह की गहरी नजरों से देखा जा रहा है; और उसी दिल्ली में, उसी बिहार को संभावनाओं की सावधान नजरों से भी देखा जा रहा है. बिहार जब भी दिल्ली का केंद्र बनता है, खतरे का एक चौखटा बन जाता है. नीतीश-तेजस्वी के समीकरण ने वैसा ही एक चौखटा रच दिया है. क्या यहां से हमारी राजनीति को नया मोड़ लेने जा रही है ?
खोजने वाले इस समीकरण में वह सारा अर्थ खोज रहे हैं, जो वहां है ही नहीं. दरअसल वहां कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है. अर्थहीन राजनीतिक माहौल में अर्थ की तलाश या तो कोई मूर्ख कर सकता है या फिर कोई उद्भट ज्ञानी ! सामान्यत: हम सब इन दोनों श्रेणियों में नहीं आते हैं. लेकिन अर्थवान राजनीति के पुरोधा लोकनायक जयप्रकाश ने कभी इस राजनीति के लिए कहा था : यह राजनीति तो गिर रही है; अभी और भी गिरेगी; टूटेगी-फूटेगी, छिन्न-भिन्न हो जाएगी; और तब उसके मलबे से एक नयी राजनीति का उदय होगा जो दरअसल राजनीति होगी ही नहीं; वह होगी लोकनीति ! तो क्या जिस तरह दिल्ली से पटना तक राजनीति का राष्ट्रीए पतन हुआ है, उसके बाद बिहार में किसी लोकनीति की संभावना खोजी जा सकती है ? नहीं, उसमें किसी लोकनीति की कोई संभावना नहीं है. लेकिन इसे शुद्ध राजनीतिक चालबाजी समझना भी इसे न समझने जैसा ही होगा.
हर सत्ताधारी की मुख्य प्रेरणा अपनी सत्ता का संरक्षण ही होती है और हर राजनीतिज्ञ अपने से ऊपर वाले पायदान का आकांक्षी होता है. आपमें ये दोनों वृत्तियां न हों तो इस खेल में आपके बने रहने का कोई औचित्य नहीं है. इसलिए जो लोग नीतीश कुमार पर यह आरोप लगा रहे हैं कि उन्होंने अपनी गद्दी बचाने के लिए यह किया है, या कि जो यह रहस्य खोल रहे हैं कि नीतीश राष्ट्रीय राजनीतिक महत्वाकांक्षा रखते हैं, वे फटा ढोल पीटने की व्यर्थ कोशिश कर रहे हैं. क्या वे ऐसा कहना चाह रहे हैं कि सत्ता की राजनीति में नीतीश कुमार को उद्धव ठाकरे बनकर रहना चाहिए था कि आप कुर्सी पर बैठे रहें और सारा खेत कोई और चर जाए ? अगर नहीं तो नीतीश को यह श्रेय देना ही होगा कि वे अल्पमत की अपनी सरकार चलाते हुए भी वे इतने सजग थे कि उनका खेत चरने की कोशिश हो, इससे पहले ही उन्होंने फसल काट ली. भारतीय जनता पार्टी का सारा रोना तो यही है न कि वह काट पाती इससे पहले नीतीश ने कैसे फसल काट ली ? अपनी हर राजनीतिक अनैतिकता व बेईमानी को सफल रणनीति घोषित करने वाली पार्टी सदमे में है कि उसे उसके ही खेल में किसने कैसे मात दे दी !
विफलता के छूंछे क्रोध में यह भी कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री बनने की आकांक्षा पालते हैं; याकि सुशील छोटे मोदी ने कटाक्ष किया कि वे तो उप-राष्ट्रपति बनना चाहते थे ! तो क्या छोटे मोदी ने पटना से दिल्ली का सफर बिना राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा के किया है ? महत्वाकांक्षा पूरी नहीं हुई या नहीं हो पा रही है, यह अलग बात हुई लेकिन दौड़ तो उनकी भी वही है न ! याद कीजिए तो याद आएगा कि बड़े मोदी ने तो गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए, गांधीनगर में एक नकली लालकिला बनवाया था और स्वतंत्रता दिवस पर, उस नकली लालकिला की नकली प्राचीर से राज्य को – राष्ट्र को – नकली प्रधानमंत्री के रूप में संबोधित कर अपनी कुंठा व अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा की घोषणा की थी. तब भारतीय जनता पार्टी में से भर्त्सना की कोई आवाज नहीं उठी थी – बल्कि बाद में हमने देखा कि सारी पार्टी नकली प्रधानमंत्री के सामने नतमस्तक हो गई – जो नहीं हुए वे भू-लुंठित नजर आए. नीतीश कुमार लगातार कह रहे हैं कि उनकी कुछ बनने की महत्वाकांक्षा नहीं है. हम चाहें तो कहें कि वे अपनी महत्वाकांक्षा को छिपा रहे हैं लेकिन कोई ऐसा कैसे कह सकता है कि ऐसी महत्वाकांक्षा रखना अनैतिक है ? राजनीति महत्वाकांक्षा के ऐसे ही ईंधन से चलती है.
नीतीश-तेजस्वी ने जो किया है उसका एक ही सुपरिणाम है, होना चाहिए और संभवत: होगा भी कि राजनीति का आज का सन्नाटा टूटेगा. नरेंद्र मोदी की राजनीति लगातार सन्नाटा पैदा करने वाली और उस सन्नाटे की आड़ में मनमाना करने वाली राजनीति है. इसलिए उन्हें विपक्ष पसंद नहीं आता है, असहमति वे सुनते भी नहीं हैं. उनकी घोषणा है कि वे विपक्षमुक्त भारत बनाएंगे. उनके पैदल सिपाही उनका यह संदेश सुनाते देश भर में घूमते ही रहते हैं. बिहार पहुंच कर नड्डा साहब ने वही संदेश इस तरह सुनाया कि बात बिगड़ गई और बिहार ने इसमें विक्षेप खड़ा कर दिया. नड्डा साहब जहां चूके, वहीं नीतीश-तेजस्वी अचूक रहे.
अब बिहार बोल रहा है. उसने दो बातें साफ-साफ कही हैं : पहली यह कि नीतीश-तेजस्वी का गठबंधन रातोरात नहीं बना है. इसकी लंबी, बारीक प्रक्रिया चली है और सब कुछ तय करने के बाद ही भाजपा के पैरों तले से जमीन खिसकाई गई है. मतलब साफ है कि यह गठबंधन जब तक बना व टिका रहेगा, भाजपा के लिए सस्ता-सुंदर व टिकाऊ गठबंधन बनाना मुश्किल होगा. दूसरी बात जो नीतीश कुमार ने कही, वह आगे की तस्वीर बनाती है : ‘जो 2014 में आए थे, वे 2024 में रह सकेंगे क्या ?’ यह आवाज पहली बार उठी है. 2014 में, दिल्ली पहुंचने के बाद ‘हम तो यहां से जाएंगे ही नहीं’, ‘हम तो अगले 20-30 सालों तक राज करेंगे’ की इतनी धूल उड़ाई गई कि विपक्ष इनके जाने की बात करना ही भूल गया था. नीतीश ने फिर से वह बात जिंदा कर दी है.
बोलते राहुल गांधी भी रहे हैं, अशोक गहलोत व भूपेश बघेल भी लेकिन उनकी आवाज में वह गूंज नहीं थी जो अब बिहार से पैदा हो रही है; और जिसकी अनुगूंज पूरे देश में सुनाई दे रही है. यह गूंज मोदी-शाह के दांव से उनको ही मात देने की गूंज भर नहीं है बल्कि लंबी चुप्पी के टूटने की गूंज है. तेजस्वी उस दौर की बात कर ही नहीं रहे हैं जब नीतीश भाजपा के साथ थे. बिहार में वह पूरा कालखंड उसी तरह विमर्श से गायब किया जा रहा है जैसे मोदी 2014 से पहले के भारत को गायब कर, सिर्फ अपनी ही बात करते हैं.
यह बिहार के लिए भी और देश की विपक्षी राजनीति के लिए भी जरूरी है. सन्नाटे की राजनीति टूटेगी तभी जब रचनात्मक शोर पैदा होगा. रक्षात्मक व बिसुरता हुआ विपक्ष कभी भारतीय जनता पार्टी की सत्ताजनित ताकत व धनबल के आगे खड़ा नहीं हो सकता है. उसे बेहतर संगठन, माकूल रणनीति व सशक्त नेतृत्व का त्रिभुज खड़ा करना होगा. राजनीति का सन्नाटा इसी बल पर टूटेगा. बिहार में नीतीश-तेजस्वी इस शुरुआत के प्रतीक हैं. इसलिए देश इस परिवर्तन का स्वागत कर रहा है लेकिन नीतीश-तेजस्वी को यह कभी भूलना नहीं चाहिए कि देश तेजहीन प्रतीकों के नहीं, जीवंत व प्रखर प्रतीकों के पीछे चलता है.
(15.08.2022)
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મુનશી કાઁગ્રેસના કાર્યકર હતા અને મહાત્મા ગાંધીના અહિંસક અંદોલનના સમર્થક હતા, પરતું સ્વતંત્ર પાકિસ્તાનની માંગણી બળવત્તર બની, ત્યારે તેમણે મુસ્લિમોને તેમની માંગણી ત્યજી દેવાની ફરજ પાડવા માટે ગૃહયુદ્ધની વકાલત કરી હતી. એમાં તેમણે ‘અખંડ હિન્દુસ્તાન’ની અલગ ચળવળ શરૂ કરી હતી. એમ તો મહાત્મા ગાંધી પણ માનતા હતા કે
1942માં, મુનશીએ “અખંડ હિન્દુસ્તાન” શીર્ષક હેઠળ એક પુસ્તક પણ પ્રકાશિત કર્યું હતું. તેમાં 1938થી તેમણે જે લેખો લખ્યા હતા, ભાષણો આપ્યાં હતા તેનો સંગ્રહ હતો. “અખંડ હિન્દુસ્તાન”નો તેમનો વિચાર એ માન્યતામાંથી આવ્યો હતો કે મુસ્લિમો ક્યારે ય ભારતનું વિભાજન નહીં થવા દે. પુસ્તકમાં મુનશી એક ટુચકા સાથે તેમની વાત લખે છે :
એક સવાલ કાયમ રહ્યો છે કે ભારત પર વિદેશી પ્રજાઓ વેપારને નામે સતત કબજો કરતી જ કેમ આવી? પોર્ચુગીસ, ડચ, અંગ્રેજ, ફ્રેંચ જેવી પ્રજાઓ પહેલાં, મોગલો આવ્યા. આ બધાએ હજારેક વર્ષ દેશ પર રાજ કર્યું. આ પ્રજાઓ ભારતમાં પ્રવેશી ત્યારે તે કૈં લાખોની સંખ્યામાં આવી ન હતી. તે વખતે પણ ભારતમાં એટલા રાજાઓ તો હતા જ કે વિદેશી આક્રમણ ખાળી શકાય, પણ એમ ન થયું. મુશ્કેલી એ હતી કે રાજાઓ વચ્ચે સંપ ન હતો. તેઓ અંદરોઅંદર લડવામાંથી જ ઊંચા ન આવ્યા ને એનો લાભ વિદેશી પ્રજાઓએ લીધો. સામેવાળા રાજાને પરાસ્ત કરવા ઘણીવાર વિદેશી પ્રજાની મદદ લેવાઈ. અંગ્રેજી સલ્તનતનો પાયો એ રીતે નંખાયો. અંગ્રેજોએ જોયું કે રાજાઓ વચ્ચે સંપ નથી. એનો લાભ રોબર્ટ કલાઈવે લીધો ને 1757માં પ્લાસીના યુદ્ધ પછી અંગ્રેજોએ પૂરો પગદંડો જમાવ્યો. અંગ્રેજી સૂબાઓએ ભારતના જ લોકોનું સૈન્ય ઊભું કરીને ભારતીય પ્રજા પર છોડી મૂક્યું ને એમ આખા દેશને એડી નીચે કચડવાનું ચાલ્યું. એવું ન હતું કે બધા જ નિર્માલ્ય હતા. પૃથ્વીરાજ ચૌહાણ, રાણા પ્રતાપ, છત્રપતિ શિવાજી, તાત્યા ટોપે, રાણી લક્ષ્મીબાઈ ને એવા ઘણાં રાજવીઓ વિદેશી સત્તા સામે ઝઝૂમ્યાં, 1857નો બળવો પણ થયો, પણ તે નિષ્ફળ ગયો, એ સાથે જ હિન્દુસ્તાનને કપાળે ગુલામી દૃઢપણે લખાઈ. એ દરમિયાન પણ ભગતસિંહ, ખુદીરામ બોઝ જેવા ઘણા યુવાનોએ અંગ્રેજો સામે બાથ ભીડી, પણ નસીબે ગાળિયો જ આવ્યો. ઈશ્વરચંદ્ર વિદ્યાસાગર, રાજારામ મોહનરાય, તિલક, ગોખલે જેવાઓએ વૈચારિક પરિવર્તનનું હવામાન ઊભું કર્યું ને સ્વરાજની ઝંખના તીવ્ર થઈ. 1915માં ગાંધીજી ભારત આવ્યા. એ દક્ષિણ આફ્રિકામાં અપમાનનો સ્વાદ ચાખી ચૂક્યા હતા એટલે એમને રાજકીય પરિસ્થિતિ સમજવાનું સરળ થઈ પડ્યું. ભારત ભ્રમણ દ્વારા એમણે પ્રજાની સ્થિતિ પણ પ્રમાણી. નહેરુ, સરદાર પણ એમની ચળવળમાં સાથે થયા. સુભાષચંદ્ર બોઝને ગાંધીજીનો અહિંસાનો માર્ગ અનુકૂળ ન આવ્યો. એમણે ‘આઝાદ હિન્દ ફોજ’ની રચના કરી ને પોતાની કેડી કંડારી. આ બધાનું પરિણામ એ આવ્યું કે આખો દેશ ગુલામી વિખેરવા તત્પર થઈ ઊઠયો અને 15મી ઓગસ્ટ, 1947ને રોજ ભારતને આઝાદી મળી.