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कितनी खोखली आवाजें 

कुमार प्रशांत|Opinion - Opinion|3 November 2023

कुमार प्रशांत

कैसे शोरों से भर गया है भारत !  जैसे सारे देश में कोई हांका पड़ा है. हर तरफ से आवाजें–ही–आवाजें आ रही हैं. कोई यह नहीं देख या सोच रहा है कि कौन, किसे सुन रहा है. इन आवाजवालों को इसका होश भी नहीं है कि वे कह क्या रहे हैं.

2014 में बनी भारत सरकार, 2018 में चुनावी बौंड की योजना ले कर आई थी. यह अंधेरे में काला कपड़ा पहन कर लूट करने की संवैधानिक योजना थी जिसे तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने प्रधानमंत्री मोदी की स्वीकृति से तैयार किया था. इसके गुण–दोष व इसी वैधानिकता पर विचार करने वाली य़ाचिका वर्षों से सर्वोच्च न्यायालय की जेब में पड़ी थी. कैसा गजब है कि ऐसे संवैधानिक मामले, जिनका देश के वर्तमान व भावी से निर्णायक संबंध है, न्यायालय पहुँच तो जाते हैं लेकिन सर्वोच्चन्यायालय प्राथमिकता के आधार पर उनकी सुनवाई नहीं करता है. कोई पूछे कि महाराष्ट्र विधान सभा का अध्यक्ष यदि अपने सदस्यों की वैधता का मामला राजनीतिक कारणों से वर्षों लटकाए रखता है तो चीफ जस्टिस उसे धमकाते हैं कि आप अनिश्चितकाल तक उसे रोके नहीं रख सकते; और आप ऐसा करेंगे तो हम आदेश जारी करेंगे; फिर सर्वोच्च न्यायालय ऐसे महत्वपूर्ण मामले को कब तक लटकाए रख सकता है, इसकी जवाबदेही नहीं होनी चाहिए ? किसी भी राजनीतिक व संवैधानिक संरचना कोयह नहीं भूलना चाहिए कि अंतत: सब इसी संविधान की संतान हैं और यह संविधान भारत की जनता की संतान है. सर्वभौम सिर्फ जनता है जिसके प्रति संविधान की रोशनी में हर कोई जवाबदेह है.

फिर भारत की सर्वोच्च अदालत में खड़े हो कर भारत के एटर्नी जेनरल आर. वेंकटमणी यह लिखित बयान कैसे दे रहे हैं हैं कि भारत की जनता को यह जानने का अधिकार ही नहीं है कि किस आदमी ने, किस पार्टी को कितना पैसा दिया है ? जोसरकार जनता के वोट से बनती और जनता के नोट से चलती है, उस सरकार का कानूनी नुमाइंदा जब यह कहता है कि जनता को यह जानने का अधिकार है ही नहीं कि उसके पैसे का कौन, कैसा इस्तेमाल कर रहा है तब वह कह यह रहा होता है कि जनताकी कोई हैसियत ही नहीं है. इन वेंकटरमणी महाशय को भी महीन की तनख्वाह जनता ही देती है और अदालतों की यह सारी व्यवस्था भी जनता के पैसों पर ही टिकी हुई है. फिर अदालत में खड़े हो कर ऐसा कहना महान मूढ़ता का या फिर महान अहमन्यताका प्रमाण है. यह देश की जनता की सार्वभौमिकता पर हमला है.

इस से भी हैरानी की  बात यह है कि देश की सर्वोच्च अदालत ऐसा सरकारी दंभ सुन भी लेती है और चुप भी रहती है. अदालतें वैसे तो लोगों को धमकाती ही रहती हैं, जज महाशयों को यह कहने की आदत है कि हम आपको बता देंगे कि हम कौन हैंलेकिन जब सामने सत्ता का प्रतिनिधि खड़ा हो तो अदालत भी ऊंचा सुनने लगती है और बोलते हुए हकलाने लगती है.

राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने के लिए धन कहां से मिले, यह यक्ष प्रश्न है. यह आर्थिक व राजनीतिक भ्रष्टाचार की गंगोत्री है. तब सवाल यह उठता है कि चुनावी बौंड योजना क्या चुनाव में धनपतियों के हस्तक्षेप पर रोक लगाती है ? इस हस्तक्षेपको काबू में करने की कोई कोशिश अब तक प्रभावी नहीं हुई है क्योंकि राजनीतिक दल ईमानदार नहीं हैं. जरूरत ऐसा रास्ता खोजने की थी; और है, कि जिससे इस गठबंधन शह दिया जा सके. तो सामने आई चुनावी बौंड योजना. यह वह अनैतिक योजनाहै जो बेईमानी को कानूनसम्मत बनाती है. दाता कौन है, यह पता नहीं है. आप पता करें, यह आपका अधिकार नहीं है. जिन्हें भीतरखाने पता है, वे इस खेल में शरीक हैं. इस तरह की गुमनामी किसी को धनबल से जनबल को परास्त करने का असंवैधानिकअधिकार देती है. इससे दाताओं को सत्ता का अभय मिलता है. इसलिए ही तो 2014 के बाद से भारतीय जनता पार्टी को अकूत धन मिलता रहा है. बाकी पार्टियां सुदामा से ज्यादा हैसियत नहीं रखती है. यह भारतीय जनता पार्टी का कमाल नहीं, सत्ता काकमाल है. कल को दूसरी कोई पार्टी सत्ता में होगी तो यह सारा धन उसकी तरफ बहने लगेगा. ऐसी व्यवस्था न नैतिक है, न लोकतांत्रिक और न संविधानसम्मत. चुनावी बॉंड वैसी सरकारी पहल थी जिसे लोकतांत्रिक संविधान की रक्षा की संवैधानिक शपथलेने वाली न्यायपालिका को आगे बढ़ कर निरस्त कर देना था. लेकिन ऐसा करना तो दूर, अदालत इसकी सुनवाई को ही तैयार नहीं हुई; और अब उसके सामने ही बगैर किसी रोक–टोक के सरकार कह रही है कि जनता को यह जानने का अधिकार ही नहीं हैकि सत्ता व धनपति मिल कर कैसा खेल रच रहे हैं. यूपीए कानून जिस तरह अदालत के संवैधानिक अधिकार की तौहीन करता है, चुनाव बौंड भी उसका वैसा ही माखौल उड़ाते हैं.      

मणिपुर का नाम आते ही सरकार को सांप सूंघ जाता है. कई शब्द प्रधानमंत्री के शब्द–ज्ञान के बाहर हैं. मणिपुर भी ऐसा ही एक शब्द है. गृह मंत्रालय ने अपने शब्दकोश से यह शब्द निकला ही दिया है. वहां हो क्या रहा है और हो क्यों रहा है जैसे सवाल आज कौन पूछे  और किससे ? छापे वाला और फोटोवाला, दोनों मीडिया अब देश में कहीं बचा नहीं है. मीडिया के नाम पर सत्ता की जुगाली करते व्यापारिक संस्थान हैं जो कागज भी गंदा करते  हैं और देश का मन भी. आज गजापट्टी में भी हमारेयहां से ज्यादा सार्थक मीडिया सांस लेता है. 

जब मणिपुर के बारे में कुछ न बोलने का निर्देश है तब मणिपुर के बारे में बोल रहे हैं असम राइ फल्स के डायरेक्टर जेनरल लेफ्टिनेंट जेनरल पी.सी. नायर ! कभी रवायत रही थी कि फौज–पुलिस राजनीतिक बयानबाजी नहीं करती थी; उन्हें इसकी अलिखित संवैधानिक–सी मुमानियत थी. लेकिन नया ढर्रा तो यह बना है कि फौज विदेशी मामलों पर नीतिगत बयान देती है; सरकार उससे ही अपने कारनामों पर पुताई करवाती है और हमें महावीर चक्र वाले चूहे दिखाई देने लगते हैं. आज पुलिस काअधिकारी मणिपुर के भूत–भविष्य व वर्तमान की तस्वीर खींचता है. जब लोकतंत्र में से ‘लोक’ खत्म हो जाता है तब ‘तंत्र’ अपनी ही प्रतिध्वनि से आसमान गुंजाता है. अपनी ही सुनता–सुनता है. 

नायर साहब कह रहे हैं कि मणिपुर धीमे–धीमे शांति की तरफ लौट रहा है. और वे बेहद चिंतित हैं कि मणिपुर में बड़े पैमाने पर जो हथियार लूटे गए हैं, वे कहीं गलत हाथों में न पड़ जाएं. राज्य सरकार कह रही है कि सरकारी हथियार गोदाम से जो हथियार लूटे गए हैं, उनका चौथाई भी लौटा नहीं है. नायर साहब कहते हैं कि यदि ये हथियार वापस नहीं लौटे तो इसका मतलब होगा कि ये गलत हाथों में चले गए हैं. उनमें से बहुत सारे आतिवादियों के हाथ में पहुंच गए होंगे. वे गहन विश्लेषण करते हैंऔर कहते हैं कि इन हथियारों की मदद से अतिवाद फिर सर उठा सकता है. उनसे पूछना यह चाहिए कि सरकारी गोदामों से यदि हथियार लूट लिए गए तो आपकी नौकरी अब तक सलामत कैसे है ? उनसे पूछना यह भी चाहिए कि यदि गोदामों से हथियारलूट लिए गए यह सच है, तो क्या इससे यह साबित नहीं होता है कि गोदाम की चाभियां गलत हाथों में थीं ? नायर साहब जैसे बड़ी कुर्सियों वाले अधिकारी होते ही इसलिए हैं कि वे सही व गलत का विवेक करें. आप रो रहे हैं कि हथियार कहींअतिवादियों के हाथ न पहुंच जाएं ? मतलब क्या हथियार दो तरह के लोगों के हाथ में गए हैं : अतिवादी व शांतिवादी ? यहीं समस्या की जड़ है. 

जनजातियों के बीच टकराव का इतिहास बहुत पुराना है. हमारे समाज में जातीय संगठनों के आपसी संघर्ष इसका ही आधुनिक संस्करण हैं. मणिपुर में भी मैतेई व कुकी लोगों के बीच यह पहला संघर्ष नहीं है. फिर क्या हुआ कि इस बार संघर्ष का स्वरूप इतना भयंकर व इतना लंबा हो गया है ? फिर क्या हुआ कि मणिपुर में सत्ता पेट्रोल ले कर आग बुझाने पहुंच गई ? मणिपुर की दो जनजातियों के बीच का संघर्ष देशी–विदेशी हथियारों की जंग में बदल गया तो नायर साहब जैसों की जरूरत क्या हैदेश को ? फौज–पुलिस का काम किसी एक पार्टी की तरफ से खेलना नहीं होता है बल्कि लड़ाई को दबाना होता है. उस रास्ते में कोई भी आए उसे भी उतनी ही सख्ती से रास्ते से हटाना होता है. नायर साहब जैसे इस सच्चाई को छुपा जाते हैं कि हथियारलूटे ही नहीं गए हैं, बांटे भी गए हैं, पहुंचाए भी गए हैं. किसी को सत्ता का सहारा है, तो किसी को बाहरी ताकतों का उकसावा है. हिंदुस्तान उनके बीच पिस रहा है.
(03.11.2023 )
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