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लोकतंत्र की लक्ष्मण-रेखा को पहचानने व उसकी मर्यादा में रहने का है

कुमार प्रशान्त|Opinion - Opinion|31 October 2024

कुमार प्रशांत

भारत के सर्वोच्च न्यायाधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने हम पर, कई बार, कई तरह के उपकार किए हैं. जाते-जाते एक और बड़ा उपकार कर गए वे कि हमें बता गए कि न्यायपालिका के फैसले जज साहबान नहीं, भगवान करते हैं. बेचारे संविधान निर्माताओं ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि वे जिस न्यायपालिका का खाका खींच रहे हैं, उसे भगवान इस तरह ‘ हाइजैक’ कर लेंगे. चंद्रचूड़ साहब ने ही हमें यह भी बताया कि कैसे ऐसा किया जा सकता है कि अपराधियों को कोई सजा न दी जाए लेकिन उनके अपराध को असंवैधानिक बता कर वाहवाही लूटी जाए ! और यह भी कि एक सरकार को असंवैधानिक रास्तों से बनी सरकार करार दे कर भी वैध घोषित कर दिया जाए !

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने हमें स्वंय ही बताया कि रामजन्मभूमि विवाद ( या बाबरी मस्जिद विवाद ?) का क्या हल निकाला जाए, जब महीनों तक उन्हें यह सूझ ही नहीं रहा था, “ तब मैं ईश्वर की शरण में गया. मैंने उनसे प्रार्थना की कि अब आप ही कोई रास्ता बताइए….और रास्ता उन्होंने बताया. मेरा पक्का विश्वास है कि जब भी आप आस्था के साथ भगवान की शरण में जाते हैं, तो वे रास्ता बताते ही हैं.” जिसे हम-आप सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के रूप में जानते हैं, वह फैसला भगवान की तरफ से सीधे चंद्रचूड़ साहब को सुझाया गया था, यह जानते ही मेरे मन में पहला सवाल यह अाया कि यह सुनवाई तो पांच जजों की बेंच ने की थी, तो भगवान ने सीधे चंद्रचूड़ साहब को ही रास्ता बताने के लिए क्यों चुना ? देखता हूं कि तब इस बेंच में सर्वोच्च न्यायाधीश रंजन गोगई, बाद में सर्वोच्च न्यायाधीश बने एस.ए. बोरडे, अब के सर्वोच्च न्यायाधीश धनंजय चंद्रचूड़, जो सर्वोच्च तक नहीं पहुंच सके वे अशोक भूषण तथा एस.अब्दुल नजीर थे. क्या ये सारे न्यायमूर्ति भगवान की शरण में नहीं गए ? क्या गोगई साहब को भगवान ने ही बताया कि वत्स, धैर्य धरो, तुम्हारे लिए राज्यसभा का रास्ता बनाता हूं ? बोरडे साहब को बताया कि बच्चा, खामोश रहोगे तो यह सर्वोच्च कुर्सी तुम्हारी होगी ? यदि देश की सबसे बड़ी अदालत में यही नजीर है तो नजीर साहब भी तो अपने खुदा की रहमत में गए होंगे न ! क्या उन्हें खुदा ने कहा कि मुझे जो फैसला देना था, वह मैंने तुम्हारे चंद्रचूड़ साहब के भगवान को बता दिया है. खुदा व भगवान का झगड़ा खड़ा किए बिना वह चंद्रचूड़ जो कहे, तुम उसे मान लेना ? मुझे नहीं पता कि भगवान या खुदा ने एक-एक से बात करने की इतनी जहमत क्यों उठाई ! उन्हें कहना ही था तो चंद्रचूड़ साहब सहित पूरी बेंच से सिर्फ इतना ही कहते कि संविधान ठीक से देख लेना क्योंकि वही तुम्हारा भगवान है. न इसे कम कुछ, न इसे ज्यादा कुछ ! वैसे मुझे अब लग रहा है कि चंद्रचूड़ साहब ठीक ही कह रहे हैं कि रामजन्मभूमि का फैसला भगवान का बताया फैसला है. भगवान के फैसले अक्सर इंसानों की समझ में नहीं अाते हैं. इस फैसले के साथ भी ऐसा ही है.

चंद्रचूड़ साहब व हमारे जज साहबान की दिक्कत यह है कि वे मामले की सुनवाई नहीं करते हैं, वे हालात के भगवान होने के भ्रम में जीते हैं. वे इंसान हैं और उन्हें एक संविधान दिया गया है जो उनकी गीता, कुरान, बाइबल, जपुजी, गुरुग्रंथ साहब या अवेस्ता आदि है. इस संविधान के पन्नों के बाहर का जगत उनके लिए मिथ्या है. यह थोड़ा कठिन तो है लेकिन उनकी संवैधानिक सच्चाई यही है कि वे आज और अभी में जीने के लिए प्रतिबद्ध हैं. उनके अधिकार-क्षेत्र में यह आता ही नहीं है कि वे यह देखें कि उनका निर्णय संतुलन बिठा कर चलता है या नहीं. यह देखना जिनका काम है वे जब बेड़ा गर्क कर देते हैं तब तो देश आपके पास आता है, और चाहता है कि आप बेड़ा गर्क करने वाले (करने वालों) का बेड़ा गर्क करें. हर मामले में संविधान क्या कहता है, और क्या करने को कहता है, देश आपसे इतना ही जानना चाहता है.

हरियाणा के चुनाव में संवैधानिक व्यवस्थाओं से बाहर जाने की जितनी शिकायतें चंद्रचूड़ साहब की अदालत में पेश की गईं, उनकी पड़ताल कर उन्हें लगा कि ये बेबुनियाद हैं, तो एक आदेश से उसे खारिज कर देना था. चंद्रचूड़ साहब ने वैसा नहीं किया. उन्होंने आपत्ति उठाने वालों पर तंज कसा कि क्या आप चाहते हैं कि हम जीती हुई सरकार को शपथ-ग्रहण करने से रोक दें ? हां, चंद्रचूड़ साहब, मैं कहना चाहता हूं कि यदि संविधान की कसौटी पर कसने के बाद आपको लगता है कि यह जो सरकार बनने जा रही है वह असंवैधानिक रास्ते से सत्ता में पहुंचना चाह रही है, तो आपको उसे शपथ लेने से रोकना ही चाहिए. यह संवैधानिक दायित्व है जिसके निर्वाह में ही आपके होने की सार्थकता है. अगर आपको लगता है कि इस सरकार को शपथ ग्रहण करने से रोकना असंवैधानिक होगा, तो आरोप को रद्द कर देना भर काफी है. जो सवाल आपने पूछा वह पैदा ही नहीं होता है कि “ क्या हम जीती हुई सरकार को शपथ-ग्रहण करने से रोक दें ?” यह संविधान प्रदत्त आपके अधिकार-क्षेत्र से बाहर की बात है. ऐसा ही मामला महाराष्ट्र की उस सरकार की वैधानिकता के बारे में भी है जो बगैर संवैधानिक जांच-पड़ताल के चलती चली गई; और आज वहां दूसरा चुनाव आ गया है लेकिन आपकी अदालत में मामला खिंचता ही चला जा रहा है. अब आपके फैसले का आना, न आना अर्थहीन हो गया है. लेकिन अगर यह सरकार असंवैधानिक साबित हुई तो महाराष्ट्र की जनता की अदालत में आप व आपकी अदालत हमेशा के लिए अपराधी बन खड़ी रहेगी. न्याय में देरी अन्याय के बराबर होती है, यह आप कैसे भूल सकते हैं !

आप अपने घर में किसकी व कैसे पूजा करते हैं, यह आपका अधिकार भी है, आपकी निजी स्वतंत्रता भी है. लेकिन उसका सार्वजनिक प्रदर्शन ? यह न तो शोभनीय है, न संस्कारी; न भारत के धर्मनिरपेक्ष सार्वजनिक जीवन से मेल खाता है. यह धर्मनिरपेक्षता हमारे यहां आसमान से नहीं टपकी है बल्कि उस संविधान से हमें मिली है जिसके संरक्षण की शपथ आप खाते हैं. फिर अपने धार्मिक विश्वासों का सार्वजनिक प्रदर्शन, घर के गणपति-पूजन का राष्ट्रीय प्रसारण कैसे आपके गले उतर सकता है ? यह तर्क बहुत छूंछा है कि न्यायपालिका व विधायिका के लोग आपस में मिलते-जुलते रहते ही हैं. उनका सार्वजनिक समारोहों में मिल जाना एक बात है, पारिवारिक व निजी अनुष्ठांनों में एक-दूसरे से गलबहियां करना दूसरी बात है. संविधान चीख-चीख कर कहता है कि न्यायाधीशों की संवैधानिक प्रतिबद्धता होनी ही नहीं चाहिए, इस तरह दीखनी भी चाहिए कि समाज मान्य हो. सत्ता की ऊंगलियों पर नाचने वाले जजों के उदाहरण जब आम हों, जब संविधान द्वारा सत्ता व अधिकारों के स्पष्ट बंटवारे के बावजूद विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका अपनी लोकतंत्रसम्मत भूमिका समझने में इस कदर भटकती हो, तब सर्वोच्च न्यायाधीश का प्रधानमंत्री के साथ अपने घर में गणेश-पूजा करना गणेश-शील के एकदम विपरीत जाता है. यह सवाल किसी व्यक्ति का किसी व्यक्ति से नाते-रिश्ते का नहीं है, लोकतंत्र की लक्ष्मण-रेखा को पहचानने व उसकी मर्यादा में रहने का है.

संविधान कानून की किताब मात्र नहीं है, लोकतंत्र का आईना भी है. उस आईने में न तो इस सरकार की छवि उज्ज्वल है, न आपकी न्यायपालिका की.  इसलिए तो राष्ट्र विकल हो कर हर नये सर्वोच्च न्यायाधीश के पास जाता है कि शायद इसके पास संविधान की तराजू के अलावा दूसरा कुछ न हो. पता नहीं कैसे यह धारणा बनी थी कि धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ऐसे न्यायाधीश हैं, कि उनके पास वह संवैधानिक अनुशासन है कि जो न्यायपालिका की छवि निखार सकता है. आपने वह भ्रम तोड़ दिया, इसके लिए हम भारी मन से आपके आभारी हैं. 

(31.10.2024)
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