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 भारत की आत्मा: संविधान या भगवान राम

राम पुनियानी|Opinion - Opinion|2 February 2024

राम पुनियानी

भगवान राम के मंदिर के उद्घाटन की धूम अब भी हम सबके कानों में गूँज रही है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उद्घाटन संपन्न किया और वे ही पूरे समारोह के केंद्र थे. ऐसा लग रहा था मानों वे राष्ट्र और धर्म दोनों की सत्ता का प्रतिनिधित्व कर रहे हों.

सामंती युग में राष्ट्र-सत्ता और धर्म-सत्ता एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करती थी – किंग और पोप, नवाब और शाही इमाम और राजा और राजगुरु. महाराष्ट्र में इस संयुक्त उपक्रम का नाम तुकबंदी में है – शेटजी-भटजी (जमींदार और पुरोहित). हमारे देश में धर्म के नाम पर राजनीति तो पहले से ही हो रही थी. धर्म और सत्ता का यह घालमेल सचमुच बहुत चिंताजनक है.

जब भारत स्वाधीन हुआ और भारतीय संविधान लागू हुआ तब हमारे समाज में धर्म की गहरी पैठ थी. इसी के चलते सोमनाथ मंदिर को लेकर विवाद की स्थिति बनी थी. डॉ. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति की हैसियत से मंदिर का उद्घाटन करना चाह रहे थे. नेहरु ने उन्हें लिखा, “मुझे लगता है कि सोमनाथ मंदिर के भव्य उद्घाटन के साथ अपने आपको जोड़ने का आपका इरादा ठीक नहीं है. यह केवल एक मंदिर में जाने का प्रश्न नहीं है. निश्चित तौर पर मंदिर में तो आप या कोई भी अन्य व्यक्ति जा सकता है. यहाँ सवाल एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम में भागीदारी का है और दुर्भाग्यवश इसके बहुत-से निहितार्थ हैं.”

इसके सात दशक बाद, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खूब शानोशौकत से एक मंदिर का उद्घाटन किया और राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अपने विशाल राष्ट्रपति भवन से इस भव्य समारोह को देखा. केन्द्रीय कैबिनेट ने न सिर्फ उद्घाटन का स्वागत किया वरन एक प्रस्ताव भी पारित किया. “….देश के शरीर ने 1947 में स्वाधीनता हासिल कर ली थी….उसमें प्राण-प्रतिष्ठा 22 जनवरी 2024 को हुई…” प्रस्ताव के अनुसार राममंदिर आन्दोलन ने देश में अभूतपूर्व एकता कायम की थी और 22 जनवरी को देश की आत्मा को आज़ादी हासिल हुई. (द इंडियन एक्सप्रेस, मुंबई, 25 जनवरी, 2024).

इस घटनाक्रम से धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों में गंभीर गिरावट का संकेत मिलता है. अब तक तो राज्य कुछ हद तक धर्म से दूरी बनाये रखता था. मगर अब तो धर्मनिरपेक्षता का कोई नामलेवा ही नहीं बचा है. स्वाधीनता के समय नेहरु ने कहा भी था कि जहाँ हमारा संविधान धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर आधारित है वहीं हमारा समाज धार्मिकता के चंगुल में फंसा हुआ है.

नेहरु ने राष्ट्रपति को यह सलाह दी थी कि वे अपनी आधिकारिक हैसियत से सोमनाथ मंदिर का उद्घाटन न करें. और आज पूरी कैबिनेट मंदिर का उद्घाटन करने के लिए मोदी की जयजयकार कर रही है और बल्कि यह भी कहा जा रहा है कि मंदिर का उद्घाटन, भारत की आत्मा की आज़ादी के सदृश है! देश की गुलामी और आज़ादी भी बहस का मुद्दा बन गई है. एक फिल्म तारिका कंगना रानौत ने तालियों की गडगडाहट के बीच कहा कि भारत को स्वतंत्रता 2014 में मिली क्योंकि उस साल मोदी प्रधानमंत्री बने.

प्रधानमंत्री और उनके विचारधारात्मक सहयोगी हमें बता रहे हैं कि भारत पिछले एक हज़ार सालों से गुलाम था. मतलब यह कि जिस समय भारत पर मुसलमान राजाओं का शासन था, उस समय देश गुलाम था. किसी देश या क्षेत्र की गुलामी की परिभाषा क्या है? मोट तौर पर हम दो कसौटियां अपना सकते हैं. पहला, जब किसी क्षेत्र का शासन उसके बाहर से चलाया जा रहा हो. जिन मुस्लिम राजाओं ने भारत में शासन किया वे यहीं बस गए और उन्होंने स्थानीय ज़मींदारों-राजाओं की मदद से राज चलाया.

दूसरी बड़ी कसौटी है कि क्या किसी इलाके की धन-संपत्ति वहां से बाहर ले जाई गयी. मुस्लिम शासनकाल में ऐसा कुछ नहीं हुआ. यह तो ब्रिटिश राज में हुआ. शशि थरूर ने अपनी पुस्तक “डार्क इरा ऑफ़ एम्पायर” में बताया है कि किस तरह ब्रिटिश राज में भारत की संपत्ति इंग्लैंड ले जाई गई. इन दोनों आधारों पर तो ब्रिटिश शासन गुलामी का काल था. हाँ, कुछ मुस्लिम लुटेरे भी भारत आये थे मगर वे यहाँ शासन चलाने के लिए रुके नहीं.

सन 1947 में आज़ादी के साथ हमें संप्रभुता भी हासिल हुई और सत्ता हमारे प्रतिनिधियों के हाथों में आई. भारत की आत्मा का क्या? भारत की आत्मा क्या है? भारत की आत्मा उन मूल्यों में है जो हमारे स्वाधीनता संग्राम का आधार थे. भारत की आत्मा उन आंदोलनों में है जो आज़ादी के आन्दोलन के साथ-साथ और उसके समानांतर चले. ये श्रमिकों और किसानों के आन्दोलन थे, ये सामाजिक समानता के लिए आन्दोलन थे. भारत की आत्मा, भारतीय सभ्यता से उभरी, जिसे नेहरु ने “एक ऐसी प्राचीन स्लेट बताया है जिस पर एक के ऊपर एक कई परतों में विचार और सपने लिखे गए मगर कोई परत, पिछली परत में जो लिखा गया था उसे न तो पूरी तरह ढँक पाई और ना ही मिटा पाई.”

आज़ादी के आन्दोलन को किसानों के आंदोलनों (जैसे बारडोली और चंपारण) से मदद मिली और श्रमिकों के आंदोलनों से भी, जिनमें नारायण मेघाजी लोखंडे एवं कॉमरेड सिंगारवेलु के नेतृत्व में चले आन्दोलन शामिल हैं. इसके अलावा, जातिगत और लैंगिक समानता के आंदोलनों की मदद भी मिली. सामाजिक समानता के पक्षधरों में जोतिराव फुले, सावित्रीबाई फुले, भीमराव आंबेडकर और रामासामी पेरियार नाईकर शामिल थे. इन आंदोलनों ने समाज को सामंती मूल्यों से दूर किया और उसमें प्रजातान्त्रिक आशाएं जागृत कीं.

हमारे देश के अधिकांश लोगों के लिए भारत का संविधान ही भारत की आत्मा का मूर्त रूप है. जिन लोगों ने स्वाधीनता आन्दोलन में हिस्सा नहीं लिया वे पुरातन काल की जातिगत और लैंगिक ऊँचनीच को कायम रखने के हामी थे. ये लोग उन सामाजिक वर्गों से थे जो जातिगत और लैंगिक समानता के खिलाफ थे और किसानों और मजदूरों को उनके हक़ देना नहीं चाहते थे. और इन्हीं ताकतों ने धर्म के नाम पर राजनीति की. इनमें शामिल थीं मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और आरएसएस.

एक ओर मुस्लिम लीग यह दावा कर रही थी कि अंग्रेजों के भारत में आने से पहले मुसलमान ही भारत के शासक थे वहीं हिन्दू महासभा-आरएसएस का मानना था कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और इस्लाम और ईसाई धर्म विदेशी हैं. सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने अपनी पुस्तक “इंडिया: नेशन इन द मेकिंग” में नए उभरते भारत का बहुत अच्छा वर्णन किया है. यह भारत स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल्यों के आसपास आकार ले रहा था.

यह कहा जा रहा है कि भगवान राम देश को एक करने वाले व्यक्तित्व हैं. भगवान राम के कई रूप हैं. वे एक ओर एक पौराणिक व्यक्तित्व हैं. उनके इस रूप को महर्षि वाल्मीकि ने उद्घाटित किया और गोस्वामी तुलसीदास ने लोकप्रिय बनाया. कबीर के लिए राम, वैश्विक मानवतावाद के मूर्त रूप थे और गांधीजी उन्हें लोगों को एक करने वाली ताकत मानते थे. संघ-भाजपा की राम की व्याख्या अलग है. वे राम को एक सीमित दायरे में कैद करना चाहते हैं. राममंदिर के नाम पर चलाए गए आन्दोलन में पिछले कुछ दशकों में कितने लोगों ने अपनी जान गंवाई है, किस तरह समाज का ध्रुवीकरण हुआ है, अल्पसंख्यक अपने मोहल्लों में सिमटे हैं और दलितों, आदिवासियों और महिलाओं की हालत में गिरावट आई है यह विभिन्न सूचकांकों से साफ़ है और हमें हमारे आसपास दिख भी रहा है.

आज भारत की उस आत्मा पर हमला हो रहा है जो स्वाधीनता आन्दोलन से उभरी है. मंदिर के नाम पर तमाशा खड़ा कर, सत्ताधारी जिस भारत की आत्मा की बात कर रहे हैं वह कहीं नहीं है.

30/01/2024
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया; लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

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