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इतिहास गोर्बाचेव को भूल नहीं सकता

कुमार प्रशांत|Opinion - Opinion|2 September 2022

उन्हें ठीक इसी तरह जाना था जैसे वे गए – बेआवाज, अचर्चित ! 91 साल की उम्र और लंबी बीमारी से जर्जर शरीर व मन को आगे खींचना जब शक्य नहीं रहा तब उन्होंने आंखें मूंद लीं. आंख मूंदने में भला कोई आवाज होती है !! लेकिन यह उस आदमी का आंख मूंदना था जिसने अपने वक्त में, दुनिया को आंखें फाड़ कर अपनी तरफ देखने-समझने पर मजबूर कर दिया था. 1985-91 के उस दौर में आत्मविश्वास व संकल्प से भरा वैसा दूसरा कोई नेता विश्व रंगमंच पर नहीं था. वे साम्यवादी सोवियत संघ के वैसे प्रधान थे जिसने साम्यवाद का चश्मा नहीं लगा रखा था और न यूरोप-अमरीका की दौलत का आतंक उस पर असर डालता था. वे रूसी किसान परिवार के बेटे थे – ग्रामीण परिवेश से निकले एक ऐसा युवा जिसकी आंखों में अपने देश व अपनी दुनिया के बारे में एक सपना था: “ मैंने खुद को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पहचाना था जिसे उन बुनियादी सुधारों की दिशा में काम करना है जिसकी मेरे देश को और यूरोप, दोनों को जरूरत है.”

आज शायद यह समझना भी मुश्किल हो कि तब की दुनिया की दो महान व विकराल महाशक्तियों में एक सोवियत संघ का राष्ट्रपति व वहां की कम्युनिस्ट पार्टी का मुखिया होने का मतलब क्या होता था ! मिखाइल सर्गेइविच गोर्बाचेव को भी शायद यह पता नहीं था कि वे जिस कुर्सी पर पहुंचे हैं उसका कद व उसका रुतबा क्या होता है. ऐसा इसलिए था कि वे रुतबे से कहीं ज्यादा रिश्ते की अहमियत जानते व पहचानते थे. रिश्ते उनकी राजनीति व उनकी राजनयिक रणनीति का आधार थी. बहुत छोटी उम्र में वे सोवियत संघ के सर्वेसर्वा बने थे. 15 साल की छोटी उम्र में वे सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के युवा संगठन में शामिल हुए और फिर जैसे दौड़ते हुए ऊपर चढ़े. सोवियत संघ के तत्कालीन विचारक-रणनीतिकार मिखाइल सुस्लोव ने इस युवा का हाथ थामा, इसे आगे बढ़ाया. वे जानते थे कि वे जो बने हैं वहां से उन्हें बनाने की शुरुआत करनी है. वे रूसी समाज के भीतर की खलबलाहट व घुटन को पहचानते थे. उनके बुजुर्गों ने साम्यवादी चाबुक झेली थी; शीतयुद्ध की विभीषिका से उन सबका साबका पड़ता रहा था. इसलिए गोर्बाचेव ने बहुत तेजी से, बहुत निश्चित दिशा में काम करना शुरू किया.

दुनिया भर में राष्ट्राध्यक्षों को गोर्बाचेव से परेशानी हुई. उन्होंने सोवियत संघ का ऐसा सर्वेसर्वा कभी देखा कहां था जो पारदर्शी निश्छल मन व सूरत लिए उनके बीच पहुंचता था. जो खुली, मानवीय हंसी हंसता था, संगीत सुनते हुए जिसकी आंखें भींग जाती थीं, जो अपनी पत्नी का भावुक प्रेमी था, जिसे हत्या व षड्यंत्र से वितृष्णा थी. यह सब तब भी और आज भी राजनीतिक पकवान के मसाले नहीं माने जाते हैं. गोर्बाचेव के पास दूसरे मसाले थे नहीं. ऐसा नहीं था कि वे सोवियत राजनीति की गलाकाट स्पर्धा और उसके खूनी इतिहास से परिचित नहीं थे और न ऐसा ही था कि विश्व राजनीति के घाघ दादाओं को पहचानते नहीं थे. ऐसा भी नहीं था कि वे ताकत की राजनीति और कूटनीतिक चालों को नहीं समझते थे. था तो बस इतना ही कि वे इन सबको खारिज करते थे. वे कुछ दूसरी ताकतों के बल पर सोवियत संघ को बदलना चाहते थे और जानते थे कि सोवियत संघ में कोई भी बदलाव तब तक संभव नहीं है जब तक दुनिया में बदलाव की बयार न बहे.

यह करने के लिए अपने दो हथियार चुने उन्होंने : ग्लासनोस्त (खुला दरवाजा) और  पेरेस्त्रोइका (आर्थिक सुधार). रूसी क्रांति के बाद से ही ये दोनों मनोभाव सोवियत संघ में लगभग बहिष्कृत ही थे. दरवाजा उतना ही और तभी खुलता था जितना और जभी सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के आका इजाजत देते थे; वही व उतनी ही आर्थिक दुनिया वहां मान्य थी जितनी आका इजाजत देते थे. इससे अधिक व इससे अलग जो कुछ भी था वह सब अमरीकी पूंजीवादी जाल था जो सोवियत संघ के सामान्य नागरिकों के लिए सर्वथा निषिद्ध था. गोर्बाचेव ने इन्हीं दोनों को आगे बढ़ाया – रूसी शासन के दरवाजे खोले और आर्थिक सुधारों की हवा बहाई. ऐसा करते हुए वे सावधान रहे कि दुनिया की दो महाशक्तियों के बीच शीतयुद्ध जारी रहे, उठाने-गिराने की चालें चली जाती रहें तो कोई परिवर्तन संभव नहीं होगा. इसलिए यूरोप-अमरीका के साथ रूसी संबंधों को एक नई  जमीन देने की उन्होंने ऐसी पहल की, और इतनी तेजी से की कि सब अवाक देखते ही रह गये. देखते-देखते रूसी समाज पर स्टालिन के जमाने का इस्पाती पंजा ढीला पड़ने लगा, यूरोप, अमरीका व सोवियत संघ घुलने-मिलने लगे, संधियां भी हुईं, कई मर्यादाएं भी तय हुईं. 28 साल पुरानी व अभेद्य बर्लिन की दीवार ढह गई, पोलैंड, हंगरी, रोमानिया, चेकोस्लोवाकिया टूटा. वारसा-संधि के देश यहां-वहां हुए. इन सबको रोकने के लिए केजीबी ने पोशीदा बगावत का षड्यंत्र रचा लेकिन वह विफल गया. गोर्बाचेव ने कुर्सी छोड़ दी,सोवियत संघ दरक गया.

“इससे कम गति से यह सब किया ही नहीं जा सकता था. सोवियत संघ के भीतर भी और  दुनिया में भी ऐसे परिवर्तनों की जड़ काटने वाली ताकतें मौजूद हैं, यह मैं जानता था. इसलिए उनकी गति से अधिक तेजी लाने की जरूरत थी. यूरोप समझे इससे पहले तो आण्विक हथियारों पर प्रतिबंध की संधि भी मैंने पूरी कर ली थी,” गोर्बाचेव याद करते थे, “इतना जरूर अब लगता है मुझे कि पेरेस्त्रोइका को पहले करता मैं ताकि सोवियत नागरिक उससे खूब परिचित हो जाते तब ग्लासनोस्त की शुरुआत करता तो यह जो बिखराव हुआ सोवियत संघ का, वह बचाया जा सकता था.”  ऐसा आत्मसंशय बुनियादी परिवर्तन की कोशिश करने वाले हर आदमी के भीतर कभी-न-कभी उठता ही है. बिखरता देश, टूटता साम्यवादी तिलिस्म और पश्चिमी आकाओं में सोवियत संघ के कमजोर पड़ने की अमर्यादित खुशी – इन सबका कितना दवाब गोर्बाचेव पर रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है लेकिन वे भीतर से कितने मजबूत व दृढ़ रहे होंगे, यह भी समझा जा सकता है. सच तो यह है कि दरवाजा खोलना भर ही आपके हाथ में होता है – फिर खुला दरवाजा अपनी गति व दिशा दोनों तय करने लगता है. दवाब, ताकत व दमन के जिस ईंट-गारे से सोवियत संघ – और पूरा साम्यवादी खेमा बनाया गया था, उसे बिखरना ही था और इसी तरह बिखरना था. क्या पाकिस्तान सारा जोर लगा कर भी खुद को बिखरने से रोक सका? पाकिस्तान एक कृत्रिम रचना थी. उसकी जिंदगी उतनी ही लंबी थी. ऐसा ही सोवियत संघ के साथ भी था.

सोवियत संघ को बिखरना ही था जैसे यूरोपीय यूनियन को अप्रभावी होना ही था. नाटो जैसी संधियां अर्थहीन होनी ही थीं. गोर्बाचेव के कारण यह बिखराव शांतिपूर्ण व स्वाभाविक हुआ अन्यथा इसका स्वरूप बहुत खूनी व प्रतिगामी हो सकता था. हम यह भी देख रहे हैं कि सोवियत संघ जिन 8 मुल्कों में टूटा वे सब अबतक अपना ठौर पा चुके हैं, अपनी तरह जी रहे हैं. पुतिन व रूस का दर्द व वहां पसरी गोर्बाचेव की आलोचना कुछ वैसी ही है जैसी कुछ मुस्लिमों के मन की यह गांठ कि हम तो शासक थे जिन्हें अंग्रेजों ने बेदखल कर दिया ! पाकिस्तान भी बिसूरता ही रहता है कि भारत ने शह दे कर हमें तोड़ा व बांग्लादेश बनवाया. अखंड भारत वाले बिसूरते हैं कि हम तो ऐसे थे जिसे ऐसा बना दिया गया. ये सभी इतिहास की गति को नहीं पहचानने वाले ‘फॉसिल्स’ हैं जो समाज व मानव-चेतना की राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक यात्रा में अवशेष-से छूट गए हैं.

गोर्बाचेव इतिहास की उस यात्रा को गति दे कर चले गए. वे महात्मा गांधी नहीं थे लेकिन अपनी कोशिशों व अपने लक्ष्यों में वे कोई गांधी-तत्व छिपाए जरूर थे. सांप्रदायिक दंगों के दावानल के सामने महात्मा जिस तरह खड़े-अड़े-लड़े उससे अभिभूत हो कर वाइसरॉय माउंटबेटन ने उन्हें ‘एक आदमी की फौज’ कहा था. इतिहास गोर्बाचेव के लिए भी ऐसा ही कहेगा – एक निहत्थे आदमी ने अकेले दम पर मेरी दिशा व दशा दोनों बदल दी ! हम अपनी दुनिया कितनी बदल पाएंगे यह तो पता नहीं लेकिन जब कभी दुनिया मनुष्यों के रहने के लिए आज से ज्यादा शांत, उदार व न्यायप्रिय बनेगी, वह गोर्बाचेव को याद जरूर करेगी.

(02.09.2022)
मेरे ताजा लेखों के लिए मेरा ब्लॉग पढ़ें  : https://kumarprashantg.blogspot.com

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2 September 2022 Vipool Kalyani
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