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गोली की बोली 

कुमार प्रशांत|Opinion - Opinion|17 July 2024

कुमार प्रशांत

अमरीका में फिर बंदूक गरजी ! जो भी सुनेगा, पलट कर पूछेगा कि कब; क्योंकि वहां अकारण, असमय व सबसे अप्रत्याशित जगहों पर गोली बरसा कर दो-पांच-दस लोगों-बच्चों-महिलाओं को मार गिराना आम खबर की तरह होता है. यह अमरीकी समाज है जहां पागलपन सामान्य-सा बन गया है. लेकिन इस बार जो हुआ उसके निशाने पर पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप थे. छटांक भर की दूरी से मौत उन्हें छू कर निकल गई – उनका कान मौत के रास्ते में आ गया तो वह बेचारा थोड़ा घायल हो गया. घटना को देखने व जाननेवाले और गोली खाने से बच जाने वाले ट्रंप बता रहे हैं कि यह ईश्वर ही था कि जो उन्हें बचा ले गया. कैसा विद्रूप है कि जब हमारी जान बच जाती है तब हमें ईश्वर की साक्षात उपस्थिति महसूस होती है, जब हम दूसरों की जान लेते हैं तब कहां का ईश्वर और कहां की उसकी साक्षात उपस्थिति ! दुख में सुमरन सब करैं / सुख में करे ना कोई / जो सुख में सुमरन करैं/ तो दुख काहे को होई ! इसलिए ट्रंप पर चली गोली के समर्थन या विरोध का सवाल नहीं है. सवाल गोली की इस बोली को समझने व समझाने का है.

अपने-अपने देश में गोली की बोली से बात करने में जो सभी सत्ताधीश हैं, वे सभी अमरीका में गोली की बोली की इस घटना से सदमे में हैं — कम-से-कम ऐसा दिखा तो रहे ही हैं !! हमारे प्रधानमंत्री मोदीजी को सदमा लगा है कि ‘मेरे मित्र ट्रंप’ के साथ ऐसा हादसा हुआ ! मोदीजी, अगर ट्रंप आपके मित्र नहीं होते तो ? फिर भी सदमा होता ? इतना होता कि आप बयान दे कर अपना सदमा जगजाहिर करते ? सोचिएगा ! आपने कहा कि राजनीति में हिंसा की कोई जगह नहीं है. अगर यह सच है तो हिंसा, घृणा, द्वेष, झूठ, हिंसक भाषा व हिंसक मुद्रा की छौंक से चलने वाली आपकी अब तक की राजनीति क्या है ? हिंसा के पनपने व फूटने की जमीन जितनी तरह से तैयार हो सकती है, उतनी तरह से पिछले 10 सालों में आपकी तरफ से तैयार की गई है.

दुनिया के दूसरे कुछ हुक्मरानों ने भी गोली की बोली पर ऐतराज उठाया है. इनमें इसराइल के बेंजामिन नेतन्याहू भी हैं और फ्रांस के मैक्रां भी. ये भी और दूसरे सारे भी कह रहे हैं कि हमारे सभ्य समाज में ऐसी हिंसा की कोई जगह नहीं है. किसी ने यह भी कहा कि लोकतंत्र में हिंसा नहीं चल सकती. ये सच में ऐसा मानते हैं, इसलिए कह रहे हैं; या कह रहे हैं कि हम सच में ऐसा मान लें कि ये सच में ऐसा मानते हैं ? मामला बहुत जटिल है, क्योंकि झूठ को सच बनाना और फिर उसे सच मानना बहुत-बहुत बड़ा झूठ है.

हिंसा घटना नहीं है. हिंसा मनोवृत्ति है. जब आप हिंसा को एक परिणामकारी रास्ता मानते हैं तब किसी गांधी की हत्या की लंबी साजिश रचते हैं और प्रार्थना के लिए जाते 80 साल के वृद्ध को, प्रार्थना-स्थल पर पहुंचने से पहले ही भगवान के पास पहुंचा देते हैं. हाथ भी नहीं कांपता है आपका, और इतने लंबे वर्षों में कभी प्रायश्चित का भाव भी नहीं उभरा आपमें ! हम कायर इतने होते हैं कि उस हत्या के 76 साल बाद भी, एक दशक से ज्यादा समय से सत्ता की चादर ओढ़े रखने के बाद भी, कायरता की धुंध इतनी घनी है कि हर संभव मौकों पर वे सब गांधी की विरुदावलि गाते हैं लेकिन यह कह नहीं पाते हैं कि यह हत्या हमने की है ! जो हिंसक होते हैं वे कायर ही होते हैं; याकि ऐसे कहें कि जो कायर होते हैं, वे ही हिंसक भी होते हैं.

मैं मणिपुर की हिंसा की बात न भी करूं तो भी यह तो कहना ही होगा न कि  मोदीजी की भारत सरकार न यूक्रेन की हिंसा के बारे में कभी कुछ बोली, न गजा की हिंसा के बारे में बोली. मित्रों की हिंसा हिंसा नहीं होती है, मित्रों पर हिंसा ही हिंसा होती है, नैतिकता की ऐसी परिभाषा कितनी हिंसक है, इसका हिसाब कोई गांधी ही लगा सकते हैं. भारत की यह चुप्पी और अब यह मुखरता राष्ट्रीय शर्म का सबब है. बेंजामिन नेतन्याहू को भी ट्रंप पर चली गोली से एतराज है, जब कि गजा में दनादन चलती अपनी अमानवीय गोलियों पर उन्हें कभी एतराज नहीं हुआ. फ्रांस में पिछले दिनों हुए विरोध प्रदर्शन को गोली की बोली से ही मैक्रां ने चुप कराया था. और जिस अमरीका में यह गोली चली, उस अमरीका में राष्ट्रपति बाइडन ने उन बच्चों के साथ क्या किया था जो फलस्तीनियों के लिए न्याय की आवाज लगाते हुए वहां के अधिकांश विश्वविद्यालयों में जमा हुए थे ?

डोनाल्ड ट्रंप खुद हिंसा भड़काने व नागरिकों को भीड़ में बदल कर, हिंसा के लिए उकसाने के सबसे बड़े अपराधी हैं. अमरीकी अखबार उनके बारे में लिखते रहे हैं कि वे बला के झूठे, सड़कछाप आदमी हैं जो संयोगवश राष्ट्रपति बन गया था. उन पर अमरीकी अदालतों में मुकदमे भी चल रहे हैं जिसे पूर्व राष्ट्रपति को मिले विशेषाधिकार की आड़ में ट्रंप धता बताने में लगे हैं. पिछली बार राष्ट्रपति का चुनाव हारने के बाद भी वे जिस तरह गद्दी छोड़ने को तैयार नहीं हुए उसने, और जिस तरह उन्होंने अपने समर्थकों को कैपिटल हिल्स में घुस जाने तथा हिंसा, लूटपाट मचाने के लिए ललकारा तथा उस सारे हंगामे को चालना दी उसने, अमरीकी लोकतंत्र का चेहरा खासा धुंधला कर दिया है. ट्रंप जब तक राष्ट्रपति रहे, व्हाइट हाऊस से सफेद चमड़ी का अहंकार, सत्ता की बदबू तथा दौलतमंदों का कुसंस्कार ही अमरीका की पहचान बना रहा. चुनाव जीतना व देश के सर्वोच्च पदों पर जा कर बैठ जाना जैसे भारत में किसी नैतिक श्रेष्ठता का प्रमाण नहीं है – बल्कि उल्टा ही है ! – वैसे ही अमरीका में भी है. मैं तो कहूंगा कि भारत और अमरीका नहीं, सारी दुनिया के लिए यही सच है.

आज अधिकांश अमरीकी नहीं चाहते हैं, न बाइडन की पार्टी ही चाहती है कि बाइडन फिर से राष्ट्रपति बनने की कोशिश करें. उनकी दूसरी योग्यताओं की बात न भी करें हम तो भी यह तो सभी जान व देख रहे हैं कि बाइडन शारीरिक रूप से राष्ट्रपति बनने लायक नहीं हैं. लेकिन बाइडन खुद को खुद ही सर्टिफिकेट देते जाते हैं कि मैं हर तरह से राष्ट्रपति बनने लायक हूं : “या तो मैं या भगवान ही इस बारे कोई दूसरा फैसला कर सकते हैं !” इसे लोकतांत्रिक हिंसा कहते हैं भाई !

असहिष्णुता, घृणा, अंधी स्पर्धा, झूठ, हिंसा आदि कुछ अलग-अलग वृत्तियां नहीं हैं. ये सब एक-दूसरे की संतानें हैं. समाज में अाप जैसी वृत्तियों को चालना देते हैं वैसी ही लहरें उसमें उठती हैं. अमरीका में चुनावी बुखार चढ़ता जा रहा है जिसे उन्माद में बदलने की कोशिश में डोनाल्ड ट्रंप लगे हैं. वे जानते हैं कि अमरीकी समाज के दूसरे कई घटकों के खिलाफ उन्माद व असहिष्णुता फैला कर ही वे व्हाइट हाउस में दोबारा प्रवेश पा सकते हैं. वे अपने मित्र से सीखते हों शायद कि यदि यही सब कर के तीसरी बार सत्ता पाई जा सकती है, तो दूसरी बार क्यों नहीं ?

सत्ता सबसे बड़ा सच है, तो हिंसा सबसे बड़ा हथियार है. इसलिए सारे सत्तावान इस सबसे बड़े हथियार पर अपना एकाधिकार चाहते हैं.

(16.07.2024)
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17 July 2024 Vipool Kalyani
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