
कुमार प्रशांत
आरोप अपने पद व रसूख का इस्तेमाल कर लड़कियों के साथ जबर्दस्ती करने का है ! आरोप राजनीति के किसी खिलाड़ी ने नहीं लगाया है, खेल की खिलाड़ियों ने लगाया है. उन्होंने किसी गुमनाम आदमी पर यह आरोप नहीं लगाया है, सीधे नाम ले कर, उस आदमी के मुंह पर अपनी बात कही है. वह आदमी भारतीय कुश्ती महासंघ का अध्यक्ष है. भारत सरकार या खेलों की राष्ट्रीय स्तर की ऐसी संस्थाएं काफी हैं जो चाहतीं तो इधर आरोप आया और उधर इन महाशय की छुट्टी कर दी जाती. फिर मामला अदालत में जाए और दोनों अपना-अपना पक्ष रखें तथा फैसले का इंतजार करें. यह सामान्य प्रक्रिया है जो अपनाई जाती जो मामले को कुरूप होने से पहले ही बचा लेती. लेकिन हुआ क्या और हो रहा है क्या ? लड़कियां धरना देती रहीं, गोदी मीडिया ने उन्हें एकदम अंधेरे में फेंक दिया, उन्हें हर तरह से गलत व खराब साबित करने का आयोजन हुआ, डरी हुई सरकार की डरी हुई प्रतिनिधि पी.टी.ऊषा बमुश्किल एक बार इन लड़कियों तक पहुंची और फिर ऐसी भागीं कि लौट कर झांका भी नहीं, फिर राजधानी की सड़कों पर लड़कियां घसीटी-पीटी गईं, उन पर तरह-तरह के लांक्षन लगाए गए. आरोपी शख्स ने लड़कियों को धमकी दी, भला-बुरा कहा. मीडिया के नाम पर जो चारण-भांट बचे हैं, सब उनको बदनाम करने में जुट गए. गोदी मीडिया को सबसे बड़ा डर यही तो रहता है कि कहीं उन्हें गोदी से उतार न दिया जाए ! मामला सीधे बलात्कार का है या नहीं कहना मुश्किल है क्योंकि कहानी खुलेगी तभी न जब खुलने दी जाएगी ! सरकार ने आंख-कान बंद कर लिए हैं तथा साम-दाम-दंड-भेद के हर रास्ते से वह ऐसी चाल चल रही है कि लड़कियों का दम टूट जाए और सरकार अपना मंसूबा पूरा कर ले. क्यों है ऐसा ?
इसलिए है कि सत्ता और राजनीति दो ही हैं जो इस सरकार के हर कदम का आधार भी हैं और परिणाम भी. इसलिए खिलाड़ी जीतें कि आप चुनाव जीतें, हर में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित की जाती है. प्रधानमंत्री उन्हें अपने यहां बुला कर, अपनी महत्ता जताने से नहीं चूकते हैं; प्रधानमंत्री की अपनी विजय-रैली होती है जिसमें वे कुछ भी अनाप-शनाप बोल आते हैं. उनकी गोद में उचकने के लिए गोदी मीडिया तो बैठा ही रहता है. विभिन्न प्रतियोगिता में जीते खिलाड़ी भी, नगरपालिका से संसद तक चुनाव जीतने वाले सत्ता के खिलाड़ी भी उनकी विरुदावलि गाने लगते हैं मानो वे खेल कर नहीं, जयकारे लगा कर जीते हैं. एक कायर समाज में वीरता व विद्वता बड़ी सस्ती बिकती है. लेकिन आप देखिए कि वे ही वीर तब एकदम मौन धार लेते हैं जब दिल्ली या कर्नाटक में हार होती है या जब खिलाड़ी ( बेटियां !) अपनी परेशानियों की बात करते हैं. तब लगता है कि प्रधानमंत्री किसी दूसरे ग्रह के प्राणी हैं जिन तक यहां की हवा भी नहीं पहुंचती है. सरकार व संगठन जिन असामाजिक तत्वों के हाथ में है, वह पूरा जमावड़ा शोर करने लगता है ताकि जो कहा जा रहा है वह किसी को सुनाई न दे. दिखाई दें तो आप, सुनाई दें तो आप !
पहलवानों को पता न हो कि रिंग के दांव-पेंच में और राजनीति के दांव-पेंच में बुनियादी फर्क होता है, तो यह बात समझी जा सकती है. लेकिन खेल-खेल में खेलमंत्री बन गए अनुराग ठाकुर को यही पता न हो कि सड़कछाप नारे उछालने में और गंभीर विमर्श में क्या फर्क होता है, तो स्थिति दयनीय हो जाती है. पहलवानों को मार-पीट कर जंतर-मंतर से भगाने के बाद, उन्हें खाप के चक्कर में डालने के लिए नरेश टिकैत को लाया गया. नरेश टिकैत की जमीन कहां है ? न किसानों में, न संगठन में. उस जड़विहीन आदमी ने उनको गुपचुप गृहमंत्री के दरबार में खड़ा कर दिया. गंगा किनारे से उठ कर, नरेश टिकैत के पीछे-पीछे गृहमंत्री के यहां जाने के पीछे पहलवानों का जो भी तर्क रहा हो, यह मुलाकात इतनी पोशीदा क्यों रखी गई ? पहलवानों ने भी अबतक यह नहीं बताया कि गृहमंत्री से उन्होंने और गृहमंत्री ने उनसे क्या कहा-सुना. लेकिन हमने पाया कि गृहमंत्री ने उन सबको उन्हीं अनुराग ठाकुर के दरबार में भेज दिया जहां से बहुत बेआबरू वे निकाले गए थे. कुल मिला कर देश को यह बताने कि कोशिश हो रही है कि बात कुछ है नहीं, लड़कियां बेमतलब बात का बतंगड़ बना रही हैं. थोड़ी-बहुत जो बातें बाहर हवा में आ रही हैं वे बताती हैं कि ब्रजभूषण शरण सिंह का कार्यकाल वैसे ही समाप्त हो चला है और माननीय प्रधानमंत्री के राज में उनके सिवा किसी का कार्यकाल अनंत थोड़े ही रहता है ! इसलिए ब्रजभूषणजी को इशारा कर दिया गया है कि कुर्सी खाली कर दें और चुनाव की गद्दी संभाल लें. न उनको इस्तीफा देना है, न माफी मांगनी है, न उन पर मुकदमा चलना है, न उनकी गिरफ्तारी होनी है. सब कुछ ऐसे निबट जाए जैसे कि कोई गलतफहमी थी जो प्रधानमंत्रीजी के एक इशारे से दूर हो गई. महिलाओं के दैहिक शोषण की बात का क्या, वह तो आनी-जानी होती है. कुश्ती संघ की बात देखिए तो उसके अंग-अंग में ब्रजभूषणजी के परिजन जोंक की तरह चिपके हुए हैं. कहा गया कि उन सबको इशारा कर दिया गया है कि संघ के चुनाव में उनमें से कोई खड़ा नहीं होगा. अब आप देखिए, ये सब पार्टी के कितने अनुशासित सिपाही हैं, प्रधानमंत्रीजी के कैसे समर्पित भक्त हैं कि एक इशारे पर अपना सारा साम्राज्य छोड़ दिया ! उन पर लड़कियां कैसे गर्हित आरोप लगा रही थीं ! लेकिन कोई बात नहीं, अपनी बेटियां हैं. भटक गई थीं तो क्या घर वापस भी न लें ! भारतीय संस्कृति भी कोई चीज है !! बस, मामला खत्म कीजिए !
ऐसा ही कुछ कह कर सर्वोच्च न्यायालय भी अलग खड़ा हो गया. उसने यह कभी देखा-पूछा ही नहीं कि उसके दवाब से जो एफ.आई.आर. दर्ज हुई थी उसका हुआ क्या ? अगर सरकार बहादुर ने जंतर-मंतर को लोगों के धरना-प्रदर्शन के लिए दे रखा है तो वहां पहुंच कर यह धड़-पकड़, मार-पीट कैसे की जा सकती है ? क्या अदालत ने भी मान लिया है कि लोकतंत्र नहीं, नियंत्रित लोकतंत्र ही इस देश में चलेगा ? शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन लोकतंत्र में लोगों का अधिकार है बल्कि यही लोकतंत्र है.
अब पहलवान लड़कियां क्या करेंगी ? इस अखाड़े में पिटने के बाद उस अखाड़े में लौट सकती हैं क्या ? कौन लौटने देगा ? अनुमति तो उन्हीं अनुराग ठाकुरों से लेनी होगी. उन्हीं मैरी कॉम या पीटी उषा की सिफारिश लगेगी. तो दोनों अखाड़े बंद हुए. इनके लिए, अपने-अपने परकोटों से जो सूरमा खिलाड़ी झांक रहे हैं, उन सबके लिए मुझे खेद है. इन गूंगे खिलाड़ियों के परकोटे कभी टूटे तो ये भी कहीं के नहीं रहेंगे. जो समाज में नहीं खेलते हैं, वे सब ऐसे ही हमेशा पिटते हैं.
(13.06.2023)
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