
कुमार प्रशांत
राहुल गांधी ने एक अजीब-सी हवा पकड़ ली है. वे बोलते जा रहे हैं लगातार, बिना इस फिक्र के कि उन्हें कौन सुन व समझ रहा है. सत्ता की राजनीति की मुश्किल ही यह है कि यहां लोग अपनी ही प्रतिध्वनि सुनते हैं और खुश होते रहते हैं कि जमाना सुन रहा है. लेकिन राहुल गांधी के मामले में बात कुछ अलग-सी भी है. राहुल गांधी राजनीतिज्ञ हैं, तो राजनीति तो कर ही रहे हैं – वह भी सत्ता की राजनीति ! – लेकिन वे जो कह रहे हैं वह सत्ता की संकीर्ण राजनीति से अलग है. वे बोल भर नहीं रहे हैं, लोगों के बीच घुस-घुस कर बोल रहे हैं, चलते-चलते बोल रहे हैं, उनका चलना ही बोलने में बदल गया है.
राहुल गांधी जो कह रहे हैं, हम उसे अपने आग्रहों-पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ कर सुनें तो हम समझ पाएंगे कि वे जो कह रहे हैं, वह बात नहीं, आवाज है जिसकी प्रतिध्वनि हमारे भीतर उठनी चाहिए. यदि नहीं उठती है तो राहुल गांधी तो निश्चित ही विफल हो जाएंगे लेकिन उससे कहीं बड़ी व भयंकर बात यह होगी कि हमारा लोकतंत्र विफल हो जाएगा; संविधान व्यर्थ हो जाएगा और आजादी का वह सारा संघर्ष, जो गांधी की अंगुली पकड़ कर लड़ा गया था, अपनी अर्थवत्ता खो देगा. इसलिए मैं कह रहा हूं कि राहुल गांधी से सवाल मत पूछो. राहुल गांधी को सुनो और ख़ुद से पूछो भी और खुद को जवाब भी दो कि तुम क्या करोगे; क्या कर सकोगे और क्या करना जरूरी है.
भारतीय राजनीति में आज राहुल गांधी यदि हमारे पुराणकालिक किसी पात्र की भूमिका से मिलती-जुलती भूमिका में दिखाई देते हैं तो वह अभिमन्यु की भूमिका है.
महाभारत की कथा बताती है कि कौरव सेनापति गुरु द्रोण ने महाभारत के 13वें दिन चक्रव्यूह की रचना की थी ताकि धर्मराज युधिष्ठिर को बंदी बना कर, युद्ध समाप्त किया जा सके. वे जानते थे कि पांडवों में केवल अर्जुन ही हैं जिन्हें चक्रव्यूह को बिखेरने की कला आती है. इसलिए उस दिन युद्ध-स्थल की संरचना ऐसी की गई थी कि अर्जुन को चक्रव्यूह से कहीं दूर, दूसरे किसी युद्ध में उलझा कर रखा जाए और इधर युधिष्ठिर को चक्रव्यूह में फंसाया जाए. खबर पांडवों तक पहुंची तो उनके खेमे में सन्नाटा छा गया : अर्जुन तो हैं नहीं लेकिन तो चक्रव्यूह सामने है ! इस चुनौती से कैसे निबटें ? जवाब अभिमन्यु ने दिया : मैं चक्रव्यूह तोड़ कर भीतर प्रवेश करना जानता हूं. वह मैं करूंगा लेकिन मुझे उससे बाहर निकलना नहीं आता है. पांडव-महारथियों ने उसे आश्वासन दिया कि तुम चक्रव्यूह तोड़ कर भीतर प्रवेश करोगे तो हम तुम्हारे पीठ से लगे-लगे ही भीतर घुस आएंगे, और एक बार हम सब भीतर आ गए तो फिर क्या द्रोणाचार्य और क्या चक्रव्यूह, सब छिन्न-भिन्न कर देंगे.
लेकिन ऐसा हो न सका. अभिमन्यु ने चक्रव्यूह तोड़ कर भीतर प्रवेश तो कर लिया लेकिन उसके महारथी लाख कोशिश कर के भी, उसकी पीठ से लगे-लगे चक्रव्यूह के भीतर न जा सके और कौरव महारथियों ने घेर कर, निहत्थे अभिमन्यु का वध कर डाला. आज ही की तरह तब भी युद्ध में सबसे पहला बलिदान नैतिकता व शील का होता था.
राहुल संघ परिवार मार्का चक्रव्यूह में प्रवेश कर चुके हैं. अब लोकतंत्र के दूसरे महारथी नहीं आ गए तो संभव है कि महाभारत की कथा दुहराई जाए.
लोकतंत्र की शतरंज में वोट पासा होता है. यह पासा जनता के हाथ में होता है और जनता किसी के हाथ में नहीं होती है. इसलिए जनता को धर्म या जाति या रिश्ते-नाते के नाम पर या अब सीधे ही रेवड़ियां बांट कर अपनी तरफ़ करने का खेल सभी खेलते आए हैं. यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया की आंतरिक कमजोरी है जिसका कोई रास्ता खोजना है. लेकिन राहुल गांधी जो नई बात सामने ले कर आए हैं वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया की आंतरिक कमजोरी की बात नहीं है, लोकतांत्रिक प्रक्रिया को ‘हाइजैक’ करने की बात है; यह येनकेन प्रकारेण जनता को अपनी तरफ करने की बात नहीं है, जनता को अपने रास्ते से ही हटाने की बात है. राहुल जिसे वोट-चोरी कह रहे हैं, वह दरअसल लोकतंत्र का गला घोंटने का षड्यंत्र है. राहुल गांधी ने यह पूरा मामला जितनी खोज व तैयारी के साथ सामने लाया है उसके बाद इसकी तरफ़ से आंख मूंदना सारे देश के लिए शर्मनाक ही नहीं होगा, हमारे मुर्दा होने का भी प्रमाण होगा. एक राजनीतिक लड़ाई को उन्होंने लोकतंत्र की लड़ाई में बदल दिया है और इसलिए यह लड़ाई उन सबकी हो गई है जो लोकतंत्र को अपने जीने के एक अविभाज्य मूल्य की तरह देखते व जीते हैं.
एक बड़े पत्रकार ने उस रोज़ बड़ी तल्खी से पूछा था : बम फोड़ा तो राहुलजी ने, क्या हुआ ? फुस्स ! अब हाइड्रोजन बम की बात कर रहे हैं !!
मैं हैरान रह गया ! राहुल गांधी के पास वह बम तो है नहीं कि जिससे लाशें गिरती हैं. वे जिस बम की बात कर रहे हैं वह लोकतांत्रिक नैतिकता से जुड़ा है. अगर वह आपको छूता नहीं है तो आपको लोकतंत्र छूता नहीं है. लोकतंत्र में एक नागरिक इससे अधिक क्या कर सकता है कि वह सबको आगाह कर दिखा दे कि देखो, यहां इस तरह लोकतंत्र को विफल किया जा रहा है. इसके आगे का काम उन सबको करना चाहिए जिन्हें संविधान ने अलग-अलग भूमिकाएं सौंप रखी हैं. विधायिका है, कार्यपालिका है. न्यायपालिका और मीडिया है जिसे संविधान ने लोकतंत्र की पहरेदारी का काम दे रखा है. ये सब जब अपना काम न करें तो एक नागरिक क्या करे?
1974 की बात है. जयप्रकाश नारायण लोकतंत्र का क्षितिज बड़ा करने का संपूर्ण क्रांति का अपना आंदोलन बढ़ाते चले जा रहे थे. मांग थी कि बिहार की विधान सभा भंग की जाए व मंत्रिमंडल इस्तीफा दे. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आक्षेप उठाया कि क्या सड़क से उठ कर कोई कह दे कि विधान सभा भंग करो तो हम कर दें ? फिर लोकतांत्रिक परंपराओं का क्या होगा ? जयप्रकाश ने इंदिराजी की बात का यह सिरा पकड़ लिया और आंदोलन ने अगले कई महीने इस आक्षेप का खोखलापन उजागर करने में लगाए.
जयप्रकाश के मन में कहीं यह धुंधली-सी आशा थी कि यदि वे बड़े पैमाने आंदोलन की इस मांग के पीछे का जन-समर्थन स्थापित कर देंगे तो किसी सरकार के लिए उसकी उपेक्षा करना कठिन हो जाएगा. इसलिए हर स्तर पर उन्होंने जन-समर्थन उजागर करने वाले कार्यक्रमों का तांता लगा दिया. भारतीय लोकतंत्र में जनता की सहमति व सक्रियता का वैसा प्रदर्शन न कभी हुआ था, न फिर कभी हुआ. यहां तक हुआ कि 3 दिनों तक पूरा बिहार प्रांत बंद रहा. 3-5 अक्तूबर 1974 के दौरान हुआ बिहार बंद अकल्पनीय था. कोई नहीं था कि जिसे भरोसा था कि बग़ैर जबरदस्ती व हिंसा के ऐसा व इतना लंबा बंद करवाया जा सकता है. लेकिन वह बंद हुआ. सड़कें, दूकानें, स्कूल-कॉलेज आदि तो बंद हुए ही, रेलें भी बंद हुईं. सब हुआ और पूरी तरह लोकतांत्रिक व शांतिमय तरीकों से हुआ. देश-दुनिया का मीडिया ऐसे अभूतपूर्व बंद का गवाह बना.
लेकिन जयप्रकाश का यह बम भी उसी तरह फुस्स करार दिया गया जिस तरह राहुल का बम फुस्स करार दिया जा रहा है. 18 नवंबर 1974 को पटना के गांधी मैदान की अभूतपूर्व सभा में जयप्रकाश ने इस प्रश्न को इस तरह उठाया : “ कदम-दर-कदम कैसे चला है यह आंदोलन यह देखिए. इन सबका कोई असर नहीं. अब कौन-सी बात का असर होगा, मेरी समझ में नहीं आता है.” लोकतंत्र जिनके लिए सौदा करने की व्यवस्था नहीं, आस्था है, उनके लिए बम का मतलब कुछ अलग ही होता है. लोकतांत्रिक व्यवहार से थोड़ा भी विचलन उन्हें विचलित करता है. चुनावी हार नहीं, चुनाव की ही हार किसी लोकतांत्रिक आस्था वाले को कैसे पचे ? खेल ही बदल दिया जाए तो खेल कैसे खेला जाए ? इसलिए जनमत का हर तरह से प्रदर्शन करने के बाद भी जब सत्ता न सुनने-न देखने को तैयार हुई, तब झुंझला कर जयप्रकाश ने कहा था कि अब इतना ही बचा है न कि मैं बच्चों से कहूं कि जाओ, और हाथ पकड़ कर इन लोगों को कुर्सी से उतार दो !
राहुल गांधी ने बात जहां पहुंचा दी है उसके आगे वे,या कोई भी नागरिक क्या कर सकता है ? विनोबा स्वयं ऐसे ही मुकाम पर 1982 में तब पहुंचे थे जब गो-हत्याबंदी की उनकी मांग पर इंदिराजी कान धरने को भी तैयारी नहीं थीं. मुंबई से ले कर दिल्ली तक हर दरवाजे पर सालों तक दस्तक देने के बाद भी जब कोई दरवाजा नहीं खुला तो विनोबा ने झुंझला कर कहा था कि इंदिरा गांधी का हाथ पकड़ कर, उन्हें कुर्सी से उतार देना चाहिए.
हाथ पकड़ कर कुर्सी से उतारने जैसी बात राहुल गांधी नहीं कह रहे हैं लेकिन आप कह रहे हैं कि बम तो फुस्स हो गया ! जब हमारी लोकतांत्रिक चेतना इतनी संवेदना शून्य हो गई हो कि उस पर किसी बात का असर ही नहीं होता है, तो कोई क्या करे ? पत्रकार राहुल गांधी से पूछते हैं कि अब आपका अगला कदम क्या होगा ? पूछना तो उनसे चाहिए न, और बताना तो उनको चाहिए न कि कल सुबह आपके अखबार का चेहरा कैसा होगा ? यह खबर कहां व कैसे प्रकाशित होगी ? चैनलों को बताना चाहिए न कि कल से इस खबर को कैसे प्रसारित किया जाएगा ? क्या कंधों पर अपना कैमरा उठाए चैनलों के लोग उन जगहों पर उतर पड़ेंगे जिनकी बात राहुल कह रहे हैं ताकि जाना व बताया जा सके कि सच क्या है ? हर अखबार व चैनल को जा कर घेरना तो चुनाव आयोग को चाहिए न कि जब आपके बारे में ऐसी गंभीर शंका पैदा हो गई है तब आप क्या करने जा रहे हैं ? हम सबको पूछना तो सर्वोच्च न्यायालय से चाहिए न कि जब राहुल गांधी इतने सारे प्रमाण के साथ वोट चोरी की बात सामने ला रहे हैं तब क्या आपको अपनी पहल से ही इस मामले की सुनवाई नहीं करनी चाहिए ?
सवाल राहुल गांधी का नहीं, सवाल उस संविधान का है जिसकी बनाई कुर्सियों पर ये सभी विराजते हैं. संविधान की रक्षा की शपथ ले कर सारे सांसद संसद के भीतर प्रवेश करते हैं. चुनाव आयोग उसी संविधान की शपथ लेता है और न्यायाधीश उसी संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करते हैं. तो यह असामान्य घड़ी है कि हम सबके अस्तित्व का आधार संविधान ही धुंधलके में घिर रहा है. यह अकेले राहुल गांधी की जिम्मेवारी कैसे हो सकती है कि वे संविधान की रक्षा करें अौर बाकी सब संविधान पर चोट करें; याकि इसका उल्टा हो रहा हो, तो भी अदालत को या संसद को या चुनाव आयोग को आगे आना तो होगा.
कोई पूछ रहा है कि जब हालत इतनी खराब हो गई तब आप बोल रहे हैं, पहले क्यों नहीं बोले ? कोई कह रहा है को वोट चोरी की बात अब कमजोर पड़ती जा रही है. पहले नहीं बोले तो क्या अब भी नहीं बोलें ? यह कोई तर्क हुआ ? क्या पत्रकारों को और एंकरों को कभी पता चला था कि इस तरह वोट चोरी हो रही है? किसी को नहीं पता था की सरकार वि आयोग की मिलीभगत से ऐसा हो सकता है. अब राहुल को भी पता चला है और सबको पता चल चुका है. अब जाकर यदि वोट चोरी की बात कमजोर पड़ती जा रही है तो इससे हमें खुश होना चाहिए या दुखी ? यह बात गलत साबित हो तो हम राहत की सांस लें या फिर इसकी जड़ तक पहुंचने का आज का सिलसिला बना रहे, इसकी सावधानी हमें रखनी चाहिए. यह कांग्रेस का सवाल नहीं है, यह भाजपा की चिंता का विषय भी होना चाहिए. लेकिन भाजपा ने चोर-चोर मौसेरे भाई जैसा रवैया रखा है.
लोकतंत्र एक मूल्य है जिसमें से हमारे नागरिक होने याकि आदमी होने के अनेक मूल्य निकलते हैं. हम किसी भी पार्टी के हों या किसी के भी भक्त या अंधभक्त हों, अंधे तो न हों !
(26.09.2025)
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